Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 03
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1330
________________ चेइयवंदण 1306 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 3 चेइयवंदण य इह निहतकामं मुक्ताराज्यादिकामम्, प्रणतसुरनिकामं त्यक्तसद्भोगकामम् / नमति स निजकामं प्राप्यते त्वां प्रकामं, श्रयत कृतमकामं सार्विका श्रीः स्वकामम्॥११॥ विषमविशिखदोषा चारिवारप्रदोषा, प्रतिविशति सदोषाऽप्यस्य किं कालदोषा। य इह वदनदोषाषार्चिषाऽक्षालिदोषा, तनुकमलमदोषा श्रेयसा शस्तदोषा॥१२॥ कृतकुमतपिधानं सत्त्वरक्षाविधानं, विहितदमविधानं सर्वलोकप्रधानम्। असमशमनिधानं शं जिनं संदधानं, नमत सदुपधानं वासुपूज्याभिधानम् // 13 // भवदवजलवाहः कर्मकुम्भाज्यदाहः, शिवपुरपथवाहस्त्यक्तलोकप्रवाहः। विमलजयसुवाहः सिद्धिकान्ताविवाहः, शमितकरणवाहः शान्ततमहव्यत्राहः॥१४|| जिनवरविनयेन श्रीविशुद्धाशयेन, प्रवरतरनयेन त्वं नतोऽनन्त ! येन।। भविकमल चयेन स्फूर्जदूर्जस्वनेन, द्विरदगतिनयेन तेन भाव्यं नयेन॥१५॥ जडिमरविस धर्म प्रोक्तदानादिधर्म, विदितनिखिलधर्म न्यक्कृताप्राज्ञधर्म / जय जिनवरधर्म त्यक्तसंसारिधर्म। प्रतिनिगदितधर्मा द्रव्यमुख्यार्थधर्म / / 16 / / यदि नियतमशान्तिं नेतुमिच्छोपशान्तिं, समभिलपत शान्तिं तद् द्विधा दत्त शान्तिम्।। विहितकलशान्तिं जन्मतोऽप्यात्तशान्तिं, नमत विगतशान्तिं हे जनाः ! देवशान्तिम्॥१७॥ ननु सुरवरनाथ ! त्वं सदाऽनाथनाथ, प्रथितविगतनाथः किं त्वहं कुन्थुनाथ!" प्रकुरु जिन ! सनाथ ! स्यां यथाऽऽद्योपनाथ। प्रणतविवुधनाश्च ! प्राज्यसच्छिष्यनाथ!|१८|| अवगमसवितारं विश्वविश्वेशितारं, तनुरूचिजिततारं सद्दयासान्द्रतारम्। जिनमभिनमतारं भव्यलोकावतारं, यदि पुनरवतारं संसृतौ नेच्छतारम्॥१६॥ अनिशमिह निशान्तं प्राप्य यः सन्निशान्तं, नमति शिवनिशान्तं मल्लिनाथं प्रशान्तम्। अधिपमिह विशान्तं श्रीर्गता चावशान्तं, अयति दुरितशान्तं प्रोज्झय नित्यं च शान्तम् / / 20 // नमन तमथवा सत्प्रोल्लसच्छुद्धवासः, परिहतगृहवासस्याशकेयस्य वासः। विहित शिवनिवासः प्रत्तमोहप्रवासः, स मन इह भवासः सुव्रतो मेऽध्युवास।।२१। समनमयतवालःशात्रवान योऽप्यबालप्रकृतिरसितवालः स्रस्तरुगचक्रवालः। जयतु नमिरवालः सोऽधरास्ततावालः, श्वसितविजितबालः पुण्यवल्ल्यालवालः / / 22 / / जिन मदनमुने मे नानिशं नाथ नेमे, निरुपमशमिनेमे ये न तुल्यं विनेमे। निकृतिजलधिनेमेः सीरमोहद्रुनेमे, प्रणिदधति न नेमे ते नरा अप्यनेमे / / 23 / / अहिपतिनृपपार्श्व छिन्नसंमोहपार्श्व, दुरितहरणपार्श्व संनमद्यक्षपार्श्वम्। अशुभतमनुपार्श्वन्यक्कृतामंशुपार्श्व, वृजिनविपिनपार्श्व श्रोजिनं नौमि पार्श्वम्॥२४॥ त्रिदिशविहितमानं सप्तहस्ताङ्गमानं, दलितमदनमानं सदगुणैर्वर्द्धमानम्। अनवरतममानं क्रोधमत्यस्यमानं, जिनवरमसमानं संस्तुवे वर्द्धमानम्॥२५॥ विगलितबृजिनानां नौमि राजि जिनानां, सरसिजनयनानां पूर्णचन्द्राननानाम्॥ गजवरगमनानां वारिवाहस्वनानां, हतमदमदनानां मुक्तजीवासनानाम् // 26|| अविकलकलतारा प्रीणताथांशुताराभवजलनिधितारा सर्वदा विप्रतारा / / सुरनरविनतारा त्वार्हतीगीर्वतारादनवरतमितारा ज्ञानलक्ष्मी सुतारा // 27 // नयनजितकुरङ्गीमिन्दुसद्रोचिरङ्गीमिह कुलमनुरङ्गीकृत्य चिन्तातरङ्गी। स्मृतिरिह सुचिरं गीर्देवतां यस्तरङ्गी, कुरुत इममरङ्गीत्यादि कृबन्धुरङ्गी॥२८॥ (इति द्विवर्णमिताहियत्यष्टकस्तुतयः) "तस्स निम्मलरयणेसुन मणागमविलोभो जाओ, देवया चिंतेइ-अहो माणुसमलुद्धति। तुट्ठा देवया, वूहि वरं भणंति उवलिया। तओ संवेगेण लवियं-नियचो हं माणुस्सएसुं कामभोगेसु किं वरेण कजं ति। अमोहं देवयादरित्रणं ति भणित्ता देवया अट्ठसयं गुलिआणं जहाचिंतियमणोरहाणं पणमेइ, तओय निग्गओ। सुयं च णेण“वीयभए नयरे वी, सव्वालंकारभूसिया दिव्या।। देवावयारिया सा, एगा मणतोसिणी पडिमा। तं पडिमंदच्छामि ति, तत्थ गओ वंदिया पडिमा॥४१॥ तत्थ गओ स गिलाणो, जाओ पडिचारिओ य कुजाए। अट्ठसयं गुलियाणं, तीए दाउंस पव्वइओ॥४२॥ अह एगगुलियभक्खण-पभावओ सा सुवन्नाभा। जाया तप्पभिइजणे, सुवन्नगुलिय त्ति विक्खाया॥४३|| भक्खित्तु वीयगुलियं, चिंतइ सा मे पिउव्व एस निवो। सेसा गोहसमा तो, मह भत्ता हवउ पज्जोओ।।४४|| सो देवयाणुभावा, तीइऽणुरत्तो विसज्जए दूयं / सा भणइदंसउ निवं, पजोयस्साह सो गंतुं / / 45|| नलगिरिमारुहिय इमो, निसि पत्तो तत्थ तीइ अभिरुइओ। जियपडिमं सह गिण्हसु, एमि तहा अन्नहा नेव।।४६|| अह गंतु सो सनयर, पडिरूवं काउ तो तहिं पत्तो। तं मुत्तुं जियपडिम, दासिं गहिउंगओ सपुरि॥४७॥ गोसेस करी सोउं, नट्ठमए चेडियं अवहडं च। कुविओ उदायणनिवो, जा जोयावेइ जियपडिमं // 48 // तो तम्मिलणे पुव्वं, मल्लं दटुं दसमउडबद्धनिवसहिओ। पज्जोयनिवस्सुवरिं, चलिओ काले निदाघम्मि // 46 / / पत्तो मरुम्मि सिन्ने, भिसं तिसापीडिए सरइ राया। झ त्ति पभावइदेवं, स विउव्वइ पुक्खरतिगं तो // 50 //

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