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है? जी नहीं । व्याप्ति की दृष्टि से देखने पर ध्यान को चिन्तनात्मक कहा जा सकता है। लेकिन चिन्तन मात्र को ध्यान नहीं कहा जा सकता। क्योंकि सभी प्रकार के चिन्तन में विषय की स्थिरता नहीं भी रहती है । और चिन्ता से चिन्तन में या चिन्तन से चिन्ता में जाने आने के लिए बीच में इतनी बडी दिवाल नहीं है । चिन्ता से तो चिन्तन में आना बहुत मुश्किल जैसा है लेकिन चिन्तन में से चिन्ता में एक क्षण में संभव है। अतः बीच की दिवाल कोई बडी नहीं अपितु वह तो पतलासा पारदर्शक परदा मात्र है । जो कि एक तरफ से पारदर्शक है । अतः चिन्तन से चिन्ता में जाना सरल है लेकिन चिन्ता से चिन्तन में आना इतना ज्यादा आसान नहीं है, बहुत ही ज्यादा कठिन है । जैसे स्व आत्मा का चिन्तन करता करता साधक क्षण भर में मेरी आत्मा का क्या होगा? मैं सुखी बनूँगा या दुःखी बनूँगा? अरे रे ! इस तरह वह चिन्ता में चला जाएगा। परमात्मा के विषय में चिन्तन करते करते .साधक अरे....अरे ! मैंने मेरा अपना मंदिर बनाया है, मैंने भगवान की मूर्ति नई भराई है? अरे ! क्या होगा? कौन पूजा करेगा? मेरे पीछे कौन संभालेगा? इत्यादि विचार धारा से चिन्ता के गर्त में घसीटा चला जाएगा । उसे पता भी नहीं रहेगा । और फिर किसी के पूछने पर यही कहेगा कि मैंने परमात्मा के विषय का आज बहुत ज्यादा ध्यान किया। . जैसा कि कल्पसूत्र में दृष्टान्त आता है— वृद्धावस्था में दीक्षा ग्रहण कर मुनि श्रमण बनकर इरियावहीया की क्रिया में कायोत्सर्ग करते हुए जीव दया चिन्तवता हुआ मेरे ४ बेटे समयपर उठेंगे नहीं, बुवाई की मौसम आ चुकी है, जमीन में हल नहीं चलाएंगे, बीज नहीं बोएंगे, खेती परी नहीं करेंगे, खेती का ध्यान नहीं रखेंगे तो क्या होगा? फिर क्या खाएंगे? पीएंगे? अरे ! इनका बिचारों का क्या होगा? इस तरह काफी लम्बे काल तक सोचते ही रहे । जबकि गुरुदेव ने पूछा- भाग्यशाली ! क्या बात है? इरियावहिया के कायोत्सर्ग में तो सिर्फ एक लोगस्स ही गिनना रहता है और उसमें आपको इतना ज्यादा लम्बा समय कैसे लगा? कालक्षेप बहुत ज्यादा हुआ। तब सहजभाव से मुनि ने कहा कि मैं तो जीवदया की चिन्तवना कर रहा था । गुरु ने पूछा- बताइये, ऐसा कैसा और क्या चिन्तन कर रहे थे? ... तब नूतन मुनि ने जो कुछ किया था वह स्पष्ट बता दिया । तब गुरु ने कहा- देखो भाग्यशाली ! यह तुमने चिन्तन नहीं यह तो एक मात्र चिन्ता ही की है। यह क्या किया? इसमें तो कर्म क्षय होने के बदले ऊपर से कर्म का बंध हआ । इस तरह यदि चिन्तन में से चिन्ता में चले जाएं तो वह चिन्तन नहीं, चिन्ता ही कहलाएगी और निरर्थक कर्मों का बंध ही ज्यादा होता रहेगा। अतः चिन्ता से बचना, छोडना और चिन्तन को बराबर अपनाना चाहिए, बराबर समझना चाहिए।
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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