Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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नागपुर की पहाड़ियों में प्राप्त नाट्य शाला है 184 इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों जैन ग्रन्थों, कामसूत्र, अर्थशास्त्र आदि में भी नाटकों में प्रदर्शित किये जाने का विवेचन हुआ है। अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृत नाटकों का निरन्तर विकास शताब्दियों तक होता रहा और परवर्ती नाटक कारों की कृतियों में प्रतिफलित हुआ है। संस्कृत नाटकों के विकास क्रम का संक्षिप्त में अध्ययन प्रस्तुत है -
महाकवि भास ने 13 नाटकों की रचना के उनकी नाट्यकृतियाँ अधोलिखित हैंप्रतिमा नाटक, अभिषेकनाटक, बाल चरित, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासवदत्तम, पंचरात्र, भंग, दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णधार, मध्यम व्यायोग, अविमारक और चारुदत्त । इनमें भारतीय संस्कृति, कला, आदर्श संस्कृति आदि का मणिकाञ्चन समन्वय दृष्टिगोचर होता है । ये सभी नाटक 1909 में ई. के लगभग महामहोपाध्याय श्री टी. गणपति शास्त्री ने त्रावनकोर राज्य से प्राप्त किये थे । इसके पश्चात् शूद्रक कृत "मृच्छकटिक" भी चरित्र-चित्रण प्रधान प्रकरण की अनुपम रचना है इसमें 10 अङ्क हैं । उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका बसन्तसेना और दरिद्र ब्राह्मण चारुदत्त की प्रणय कथा वर्णित है । इसमें तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक • स्थिति का यथार्थ मूल्याङ्कन हुआ है । इसे षष्ठ शताब्दी की रचना माना गया है । विश्व साहित्य के गौरव शाली कवि कालिदास ने तीन नाटक ग्रन्थ भी विरचित किये - मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुन्तल । मालविकाग्निमित्र के 5 अङ्कों में राजा अग्निमित्र तथा मालविका के प्रेम का चित्रण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में, कमनीयता के साथ अंकित हुआ है । "विक्रमोर्वशीय " 5 अङ्कों में निबद्ध " त्रोटक" नामक उपरूपक है । इसमें राज पुरुरवा और उर्वशी अप्सरा की प्रणय कथा वर्णित है । कालिदास की तीसरी नाटक "अभिज्ञानशाकुन्तल विश्व साहित्य का अमूल्य रत्न है। इसके 7 अङ्कों में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त और निसर्गकन्या शकुन्तला के प्रेम, वियोग तथा पुनर्मिलन का अत्यन्त मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है । इस नाटक ने पाश्चात्य साहित्यकारों को भारतीय वाङ्मय की ओर आकृष्ट किया। यह कालिदास की प्रतिभा, आदर्श, जीवनदर्शन एवं भावाभिव्यक्ति का सच्चा प्रतिनिधि ग्रन्थ है । कालिदास का स्थिति काल प्रथम शताब्दो ही मानना युक्तिसङ्गत है । अश्वघोष ने ( प्रथम शती में ) तीन नाटकों का प्रणयन किया" "शरिपुत्र प्रकरण' | दो अन्य कृतियाँ अपूर्ण हैं, जिनके नाम भी ज्ञात हैं । शरिपुत्र प्रकरण में 9 ॐ हैं । इसमें गौतम बुद्ध द्वारा शरिपुत्र तथा मौद्गलायन नामक दो युवकों को बौद्धधर्म में दीक्षित कराने की कथा का रोचक वर्णन है । इसके भरत वाक्य में नवीनता मिलती है। दूसरा नाटक जीर्णावस्था में उपलब्ध हुआ, यह रूप काव्यक नाटक है बुद्धि, कीर्ति, धृति आदि भावों का मानवीकरण करके उनमें परस्पर संवाद कराये गये हैं और पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । तीसरा नाटक गणिका विषयक है । अश्वघोष की कृतियों में बौद्धधर्म का व्यापक प्रभाव प्रतिबिम्बित है । सम्राट् हर्षवर्धन नाटककार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। इन्होंने तीन नाटक ग्रन्थों का प्रणयन किया - प्रियदर्शिका, नागानन्द, रत्नावली । “प्रियदर्शिका " 4 अङ्कों की नाटिका है, इसमें राजा उदयन एवं सिंहलदेश की राजकुमारी रत्नावली, जो सागरिका के नाम से उदयन के महल में रहती है, के प्रणय और परिणय की मनोहर कथा विश्लेषित हुई हैं । यह रचना शास्त्रीय एवं रङ्गमञ्च की दृष्टि से अत्यन्त सफल मानी गयी है।
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विशाखदत्त ने 'मुद्राराक्षस " तथा देवी चन्द्रगुप्त" इन दो नाटकों की रचना की। विशाखदत्त 5वीं एवं 6वीं शती के नाटककार माने गये हैं । मुद्राराक्षस 7 अंकों का राजनीति विषयक