Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 310
________________ 289 आचार्य श्री के शतक काव्यों में शान्तरस की प्रधानता है और उपजाति, आर्यावसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित वृत्तों का प्रयोग है । शब्दालङ्कारों और अर्थलङ्कारों के बहुविध प्रयोग सर्वत्र सुलभ है । प्रसाद और माधुर्य गुणों की उपस्थिति है । उक्त शतकों में यमकालङ्कार का प्राधान्य है। शतक काव्यों का कथ्य महाकाव्य के समान कथात्मक/वर्णनात्मक नहीं होता । इसी कारण उपर्युक्त शतकों की कथावस्तु में गतिहीनता और घटनाओं का अभाव है। आचार्य श्री के शतकों का कथ्य पूर्णत: अमूर्त भाव ही है । निरञ्जन, भावना, सुनीति, परीषह जयये सभी अन्तरात्मा में अनुभूत भाव ही आपके कथाविन्यास के सूत्रधार है । अतः इनके काव्यों में नायक-नायिका की कल्पना नहीं की गई है - पुरुष और स्त्री पात्रों का सर्वथा अभाव ही है। आचार्य प्रवर ने जैनदर्शन और अध्यात्म से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थों के पद्यानुवाद हिन्दी भाषा की कविता में प्रस्तुत करके उन्हें बोधगम्य बनाया है । दक्षिण भारत में जन्म और शिक्षा ग्रहण करने पर भी आचार्य श्री का राष्ट्रभारती पर असाधारण अधिकार है । इनका "मूकमाटी'" बहुचर्चित हिन्दी महाकाव्य है । इस प्रकार आचार्य प्रवर विद्यासागर जी महाराज के ग्रन्थों में काव्यशास्त्र के सभी तत्त्वों का सम्यक् निदर्शन है । वे बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दि. जैनाचार्य है उनके ग्रन्थों में धर्म, दर्शन, नीति, अध्यात्म के तत्त्वों का सामञ्जस्य है । वे विश्व शांति के प्रतीक बन गये हैं । वर्तमान समय में उनकी कृतियाँ अज्ञानान्धकार में दबी हुई मानव जाति को ज्ञान की दीपशिखायें सिद्ध हो रही हैं । यही कारण है कि आचार्य श्री के वचनामृत से लाभान्वित होने के लिए श्रद्धालुओं के साथ-साथ विचार प्रवण प्रत्येक मानव उनके प्रवचनों को श्रवण करते हैं और आत्मोत्थान के पथ पर अग्रसर होते हैं। ३. आचार्य कुन्थुसागर के काव्य आचार्य कुन्थुसागर जी मुनि महाराज ने शान्तिसुधा सिन्धु, श्रावक धर्म प्रदीप, सुवर्णसूत्रम् आदि ग्रन्थों में सदाचार, नीति, वैराग्य, अध्यात्म, दर्शन, मानवता, विश्वकल्याण से सम्बन्धित विषयों का विवेचन प्रस्तुत किया है। आचार्य प्रवर के काव्य-संसार पर संस्कृति साहित्य के प्राचीन कवियों का स्पष्ट प्रभाव है । इनकी कृतियाँ अनेक दार्शनिकों और मनीषियों से पूर्णत: प्रभावित हैं । आपके चिन्तन, अभिव्यक्ति और साहित्य पर समयसार, ज्ञानार्णव, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ऋग्वेद, श्रीमद्भगवत् गीता, मनुस्मृति, पञ्चतन्त्र, नीतिशतक, वैराग्यशतक, रामचरितमानस और विनयपत्रिका आदि ग्रन्थों का प्रभाव पदे-पदे परिलक्षित होता है । सांख्यदर्शन को सांसारिक दुःखों की व्याख्या में प्रतिबिम्बित किया है । आचार्य श्री के ग्रन्थों में विश्वबन्धुत्व, मानवता, तृष्णा त्याग आदि पर बल दिया गया है। शान्तिसुधा सिन्धु - आचार्य श्री के लोककल्याणकारी विचारों से ओत-प्रोत रचना है । इसमें पांच अध्यायों में आत्म तत्त्व, जिनागम, रहस्य, वस्तुस्वरूप, मानवीय आदर्शों और हेयोपदेय स्वरूप और समग्र शांति की कामना की गई है । यह ग्रन्थ आचार संहिता ही है । वसुधैव कुटुम्बकम्, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय, अहिंसा परमोधर्म, आदि सिद्धान्तों का विश्लेषण किया है। इसमें अनुष्टुप् इन्द्रवज्रा उपजाति, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडितादि प्रसिद्ध छन्दों का प्रयोग है, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपहृति, विरोधाभासादि अर्थालङ्कार तथा अनुप्रास, श्लेष

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