Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 308
________________ 287 कला वीथियों से नितरां भव्य और अभिराम है । ये समस्त काव्य अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पूर्णतः सक्षम है । सदाचार-प्रवण व्यक्ति की इकाई से प्रारम्भ होकर स्वस्थ समाज की दहाई के सृजन में अपनी महनीय भूमिका का निर्वाह करना ही जैन संस्कृत काव्यों का सर्वोपरि प्रदेय है और वस्तुतः यही साहित्य की इष्टापत्ति स्वीकार की गयी है। (स) बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अनुशीलन : बीसवीं शताब्दी में जैन और जैनेतर मनीषियों ने संस्कृत में जैन विषयों पर विपुल मात्रा में काव्य सृजन करके संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है । इन रचनाओं में कवियों की मौलिक प्रतिभा, कल्पना शक्ति, पाण्डित्य प्रदर्शन, अर्थ-गौरव, अध्यात्म, दर्शन, आत्मचिंतन आदि का समग्रतया निदर्शन हुआ है । इस शताब्दी के प्रमुख कवियों के काव्यों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अनुशीलन अग्रिम शीर्षकों में प्रस्तुत है : १. आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के काव्य : जैन पुराणों और कोश ग्रन्थों के आधार पर रचित आचार्य ज्ञानसागर जी मुनि के काव्यों में कथावस्तु, प्रसङ्गानुकूल, संशोधित, परिवर्तित होकर नवीन रूप में प्रस्तुत हुई है । वीरोदय, जयोदय, सुदर्शनोदय, श्री समुद्रदत्तचरित्र, दयोदय चम्पू आदि ग्रन्थों के नामकरण कथा वस्तु के आधार पर न होकर नायकों के आधार पर किये गये हैं। आचार्य श्री का कवित्व भी कालिदास, शूद्रक, भारवि, माघ, भट्टि, श्री हर्ष आदि कवियों के समकक्ष है । उनके 'वीरोदय' काव्य में अश्वघोष की दार्शनिक शैली और कालिदास की वैदर्भी शैली प्रतिबिम्बत होती है । शिशुपाल वध के वर्षा वर्णन और वीरोदय के वर्षा वर्णन में भाव साम्य है। पुराणेतिहास, धर्म-दर्शन से समन्वित इस ग्रन्थ की संवाद योजना अप्रतिम है । ऋतु वर्णन के दृश्यों में प्राकृतिक सौन्दर्य के नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत हुए हैं । जयोदय में अङ्कित पर्वत, वन विहार, सन्ध्या, प्रभात आदि के प्रसङ्ग शिशुपाल वध के वर्णनों से मेल रखते हैं । जयोदय में अङ्कित चित्राललङ्कारों में ज्ञानसागर जी की प्रतिभा, भारवि, माघ, श्रीहर्ष की तुलना मे प्रभावशाली सिद्ध हुई है । जयकुमार के स्वयंवर दृश्य में नैषधीय चरित, स्त्रियों के दुर्गुण विवेचन में मृच्छकटिक, अनवधमती के सदुपदेश में किरातार्जुनीयम् के प्रसङ्गों की स्मृति होने लगती है । पात्रों के वाक्चातुर्य के माध्यम से कवि के असीमित शब्दभण्डार का परिचय सहज ही प्राप्त होता है । "सुदर्शनोदय' में शृंगार रस पर शान्तरस की विजय का विवेचन है। कपिला की कामुकता, अभयमती की चालें और देवदत्ता की कुचेष्टाएं नायक सुदर्शन की परीक्षा के केन्द्रस्थल हैं। साहित्य, संगीत, राग-रागनियों, अन्तर्द्वन्दों, विविध भावों और शैलीरूपों में आबद्ध सुदर्शनोदय जयदेव के गीतगोविन्द की पूरक रचना मालूम पड़ती है । सुदर्शन के व्यक्तित्व के माध्यम से संयम, ब्रह्मचर्य की शिक्षाओं से ओत-प्रोत इस ग्रंथ में शासक वर्ग को सोच-विचार कर निर्णय लेने की प्रेरणा दी गई है। यह ग्रन्थ वादीभसिंह सूरि की क्षत्र चूड़ामणि, श्रुतसागर सूरि के चारित्रपाहुड़ और योगीन्द्र देव के श्रावकाचार से प्रभावित प्रतीत होता है । श्री समुद्रदत्त चरित्र 'सत्यमेव जयते नानृतम्' - सिद्धांत पर आधारित काव्य है। इसमें पुनर्जन्म से वर्तमान जन्म का तारतम्य स्थापित करते हुए कर्मफल की सर्वोच्चता स्वीकार की गई है । यह चरित प्रधान काव्य है ।

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