Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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५.
• डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य के काव्य
श्रद्धेय पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने अपने अनवरत स्वाध्याय, गम्भीर चिन्तन और उत्कृष्ट मनन के आधार पर जिनागम के प्रतिपाद्य और जैनदर्शन के आधारभूत रत्नत्रय के व्यवस्थित विवेचन हेतु संस्कृत साहित्य को तीन ग्रन्थ रत्न प्रदान करके उपकृत किया है। ( १ ) सम्यक्त्व चिन्तामणि
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'सम्यक्त्व चिन्तामणि" के दश मयूखों में (186 पद्य हैं) क्रमशः सम्यग्दर्शन, जीवतत्त्व, गतिमार्गणा, द्वीप समुद्र, चौदह मार्गणाएँ, अजीव तत्त्व, आस्त्रव, बन्ध संवर, निर्जरा तथा मोक्ष का विवेचन है । प्रसङ्गानुसार जीव के भेद, संसारी जीव के पञ्च परावर्तन, चौदह गुणस्थान और उसमें बन्धव्युच्छिति आदि का वर्णन है । अन्त में सिद्धों के स्वरूप का निदर्शन है। 'सम्यक्त्व चिन्तामणि' की रचना शैली प्राचीन परम्परा के अनुरूप है । ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है जिसमें पंच बाल यति तीर्थंकरों को नमस्कारपूर्वक पूर्वाचार्य तथा स्वकीय गुरुस्मरण के साथ ग्रन्थ रचना की प्रतिज्ञा की गई है। प्रत्येक मयूख के अंत में " इति सम्यक्त्व चित्र्तामणि सम्यग्दर्शनोत्पत्ति माहात्म्य वर्णनो नाम प्रथमो मयूखः समाप्तः" इत्यादि रूप से पुष्पिका वाक्य में उस-उस मयूख के विषय का अतिसंक्षेप एवं समारोप बताया गया है। ग्रन्थ के अन्त में शुद्धि पत्र दिया गया है ।
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प्रस्तुत ग्रन्थ में उन्नीस प्रकार के छन्दों - जिनमें मालिनी, स्वागता, आर्या, अनुष्टुप् वसन्ततिलका, प्रमदानन, वंशस्थ, रथोद्धता, शालिनी आदि प्रमुख हैं, - का प्रयोग किया गया है । सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों पर भी रचनाकार की सूक्ष्म दृष्टि ने गहराई से विवेचना की है और चमत्कार दिखाया है । शब्दालङ्कारों और अर्थालङ्कारों का विपुल प्रयोग हुआ है । इस धर्मग्रन्थ में काव्य का आनन्द है, इस रचना का विद्वत्समाज में समादर हुआ है। जैनदर्शन में सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्र, गोम्मटसार, पञ्चाध्यायी, आदि ग्रन्थों के विषयों को एकत्र समावेश करके पं. साहित्यचार्य जी ने " सम्यक्त्व - चिन्तामणि का सृजन किया है। इसमें विवेचनात्मक, व्याख्यात्मक, संवादात्मक दृष्टान्त आदि शैली रूपों की अभिव्यञ्जना हुई है । भावानुकूल भाषा का प्रयोग है । सरल, सरस, कोमलकान्त पदावली के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति की है ।
(२) सज्ज्ञान चन्द्रिका
'सज्ज्ञान चन्द्रिका " दश प्रकाशों के 797 पद्यों में निबद्ध दार्शनिक रचना है । इसमें सम्यक्ज्ञान की विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचना की है । रचनाकार ने प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर विषय वस्तु ग्रहण करके उसे नवीन शैली में सम्यक्ज्ञान का लक्षण, स्वरूप, पांच भेद - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान तथा ज्ञान में सहयोगी धमर्म्यध्यान एवं शुक्ल ध्यान का साङ्गोपाङ्ग विश्लेषण विविध छन्दों में निबद्ध किया है। विषय के प्रतिपादन
लेखक ने सुबोध संस्कृत भाषा के अनुरूप सहज बोधगम्य भावावली प्रस्तुत की है । इस रचना में समाहार शैली, विवेचनात्मक शैली दृष्टान्त शैली, समास शैली और प्रश्नोत्तर शैली निदर्शित है । यह रचना प्रसाद - माधुर्य गुणों से ओत-प्रोत है । इसमें वेदर्भी रीति बहुधा प्रयुक्त है । शांतरस का आद्योपान्त प्राधान्य है । कवि को अनुष्टुप छन्द अतिप्रिय है । इसके अलावा अन्य सोलह प्रकार के छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। इस प्रकार इस रचना में पदेपदे साहित्यिक छटा विद्यमान है, इसमें पं. साहित्याचार्य जी की प्रतिभा का उत्कृष्ट निदर्शन हुआ है।
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