Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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(३) सम्यक्चारित्र चिन्तामणि रत्नत्रय के तृतीय अङ्ग के रूप में रचित "सम्यक्चारित्र चिंतामणि" ग्रन्थ 13 प्रकाशों में सम्गुफित 1072 पद्यों में निबद्ध है । इसमें सकल चारित्र के विविध अङ्गों का वर्णन करते हुए अन्तिम परिच्छेद में श्रावकाचार का भी विशद् वर्णन है । ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण से हुआ है - इसमें जिनेन्द्रदेव को नमस्कार पूर्वक ग्रन्थारम्भ किया है। इसके पूर्व विषयानुक्रमणिका है उसके पहले ग्रन्थ में प्रयुक्त 15 प्रकार के छन्दों की सूची दी गई है। अन्त में अकारादि क्रम से पद्यों की सूची तथा शुद्धि पत्रक संलग्न है। इस प्रकार सम्यक्चारित्र के अङ्गों-उपाङ्गों पर सुविस्तृत विवेचन इस रचना में उपलब्ध है । भाषा की दृष्टि से रचना में सरलता और सुबोधता है। व्याख्यात्मक, विवेचनात्मक दृष्टि से रचना में सरलता और सुबोधता है। व्याख्यात्मक, विवेचनात्मक दृष्टान्त और संवाद शैली रूपों का निदर्शन है। प्रसाद गुण पूर्ण इस रचना में वेदी रीति का सर्वत्र प्रभाव है । इसमें शान्तरस की प्रधानता है, काव्यशास्त्र और भाषाशास्त्र के सभी तत्त्वों की उपलब्धि भी होती है ।
(४) धर्मकुसुमोद्यानम् "धर्मकुसुमोद्यानम्" के 110 पद्यों में सम्यक्त्व चिन्तामणि के संवर प्रकरण में आगत दशधर्मों का विवेचन हुआ है । श्लोकों का हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है । इसमें "गागर में सागर" सन्निविष्ट है । अध्यात्म, दर्शन, नीति, धर्म आदि की व्याख्या सरल, सरस, बोधगम्य भाषाशैली में विद्यमान है । मनुस्मृति के समान यह धर्मशास्त्र ही है, जो मानव मात्र को धार्मिक आचार-विचारों और धर्मगत रहस्यों की शिक्षा देता है । यह कृति सदाचार की सेतु और चारित्रिक उत्थान की प्रतिनिधि है। इसमें अनुष्टुप्, वसन्ततिलका, रथोद्धता, आर्या, द्रुतविलम्बित प्रभति अनेक छन्दों का समावेश हआ है। इस रचना में माधुर्य और प्रसाद गुणों के साथ ही साथ वेदर्भी रीति का सर्वत्र प्रयोग हुआ है । भाषा बोधगम्य, प्रवाहशील एवं सरल संस्कृत है, भावों में सजीवता है । पर्वराज पर्दूषण में दशधर्मों के विवेचन हेतु इस रचना का अनेक जगह उपयोग होता है । त्याग, धर्म के वर्णन में अन्योक्तियों का समावेश है ।
(५) सामायिक पाठ सामायिक के काल में व्यक्ति के द्वारा किये गये पाप-क्रिया-कलापों की आलोचना 'निर्जरा' का कारण होती है । इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए पं. जी ने "सामयिक पाठ" का प्रणयन किया है । इसमें आत्मन्तिन-परक, प्रेरक, सुश्राव्य 73 पद्य हैं । इनमें अनुष्टुप्, इन्द्रवज्रा, उपजाति, आर्या, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित प्रभृति अनेक छन्दों का प्रयोग हुआ है । यह रचना भावपूर्ण, सरस एवं गेय है । इसमें सामयिक के विविध अङ्गोंप्रत्याख्यान कर्म, सामायिक कर्म, स्तुति कर्म और कायोत्सर्ग कर्म का विशद वर्णन है ।
(६) मुक्ताहार पं. जी ने चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति परक रचना "मुक्ताहार" 24 छन्दों में आबद्ध की है । आदिनाथ एवं संभवनाथ का स्तवन वसंततिलका छन्द में किया है । अजित, अभिनन्दन, श्रेयांस, अनन्त, नेमि जिन का स्तवन उपजाति छन्द में किया है । पद्मप्रभ पार्श्वनाथ, वर्धमान जिन को इन्द्रवज्रा छन्द के माध्यम से स्मरण किया गया है । सुपार्श्वनाथ का स्तवन भुजङ्गप्रयात, सुविधि, नेमि जिन का द्रुतविलम्बित में, वासुपूज्य का मालिनी, विमलनाथ अरहनाथ का तोटक, शान्ति जिन का दोधक, कुन्थुनाथ का उपेन्द्रवज्रा, मल्लिजिन का स्वागता, मुनिसुव्रत का शालिनी