Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 315
________________ 294 राजीमती ने अपने वचनों द्वारा अपने प्राणनाथ नेमि को अपनी आन्तरिक वेदना सुनायी है । __ जैन साहित्य संस्कृति और कला में सुविख्यात नेमिकुमार - राजीमती के ऐतिहासिक वृत्त को शास्त्री जी ने अपनी-मनोरम कल्पनाओं और सुकुमार भावों के माध्यम से इस काव्य में सुगुम्फित किया है। रचनाकार ने राजीमती के प्रेम का कारण पूर्वजन्म के वासना जन्य संस्कार को माना है, जो जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त के अनुसार सहज एवं स्वाभाविक है । कविता की प्रथम पङ्क्ति अतीव सुन्दर बन पड़ी है - "पूर्व स्नेह स्मृति वश भव प्रेमलीनान्त रङ्गा ।' विवाह की माङ्गलिक बेला. पर सुकुमार नारी हृदय की निराशा का अनन्त पारावार इस काव्य में उल्लसित है -- केवल ज्ञान श्लाध्य नहीं पर राजुल का अपने भावी पति के प्रति स्वाभाविक प्रणय भाव भी कम श्लाध्य नहीं है । इस काव्य को पढ़ते-पढ़ते राजीमती की विरह-संवेदना अत्यन्त सान्द्र हो उठती है, भावुकता के तीव्र वेग में कविता निखर गई है - वचनदूतम् का अन्तस्तत्त्वभी यही है । इस रचना में राग के उदय और विराग में अवसान की कल्पना स्तुत्य है । वचनदूतम् में ललितोचित सन्निवेश रमणीय है, इसमें कोमलकान्त पदावली विद्यमान है - माधुर्य और प्रसाद गुणों का आद्योपान्त प्रभाव छाया हुआ है । "वामा - वामा भवति यदि सा स्वामिनोपेक्षिता स्यात् ।'' इसी क्रम में निदर्शनीय है - "नारी प्रेयो विरह-विधुरा दुःख भागेव बुद्धा ।'' इस प्रकार कवि ने सुन्दर कल्पनाओं की उड़ाने भरी हैं । वचनदूतम् में अनुप्रास, श्लेष, उपमा, रूपक, दृष्टान्त, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, सन्देह आदि अलङ्कारों का बाहुल्य है । मन्दाक्रान्ता, वसंततिलका, उपजाति आदि वृत्तों में निबद्ध यह रचना एक "विरह गीत" ही है । पद्यों में गेयता सङ्गीतात्मक पदे-पदे निदर्शित है । इस ग्रन्थ में शृङ्गार के वियोगपक्ष का उद्घाटन है । ग्रन्थ का पर्यवसान शान्तरस में होता है जब नायक का अनुकरण करते हुए नायिका भी साधना पथ ग्रहण कर लेती है । वर्धमान चम्पू "वर्धमान चम्पू" शास्त्री जी की प्रतिभा का उत्कृष्ट निदर्शन है । इसमें चौबीसवें जैन तीर्थङ्कर श्री महावीर स्वामी के पाँचों कल्याणकों का आठ स्तवकों में वर्णन है । इस चम्पू में उनके जन्म, शैशव, गृहत्याग, ज्ञान प्राप्ति, उपदेशों आदि का सम्यक् निरूपण है। कैवल्य-प्राप्ति का महत्व भी प्रतिपादित है । इस ग्रन्थ में पं. मूलचन्द्र शास्त्री ने अपना सम्पूर्ण जीवन परिचय, पारिवारिक, सामाजिक जीवन की झांकी प्रस्तुत की है। यह रचना प्रसादगुण एवं वैदर्भी रीति प्रधान, सरल, बोधगम्य संस्कृत भाषा में निबद्ध है । इसमें अङ्गी रस के रूप में शान्तरस की प्रतिष्ठा की गई है । इसमें भारत के प्रसिद्ध नगरों-वैशाली, हस्तिनापुर आदि की भौगोलिक स्थिति का आकलन भी हुआ है । लोकाशाह महाकाव्य "लोकाशाह महाकाव्य" शास्त्री जी के मौलिक सृजन की आधारभूत रचना है। अपनी भावपूर्ण कल्पनाओं को इस महाकाव्य के चौदह सर्गों में साकार किया है । प्रसादमाधुर्य

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