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286 ग्रन्थों की रचना शैली जहां एक और वाल्मिकी, कालिदास, और अश्वघोष का अनुसरण करती है वहीं दूसरी और श्री हर्ष, माघ, भारवि से भी प्रभावित प्रतीत होती है । संस्कृत साहित्य की श्री वृद्धि करने के साथ ही जैन-दर्शन के प्रचार-प्रसार की दिशा में पं. जी का योगदान स्मरणीय है- धर्म-कर्म, आचार-विचार, राष्ट्रप्रेम आदि की शिक्षाओं से ओतप्रोत पण्डित जी की रचनाएं आचार-संहिताएँ ही हैं ।
मानवीय भावों की सुकुमार अभिव्यक्ति करने के लिए विख्यात पं. मूलचन्द्र जी शास्त्री का साहित्य प्राचीन भारतीय संस्कृति की भव्यता को प्रतिबिम्बित करता है- मेघदूत की शैली पर आधारित 'वचनदूतम्' काव्य में नायिका की प्रणय-भावना एवं निराशा को आध्यात्मिकता की ज्योति किरण से आलोकित किया है । शास्त्री जी के ग्रन्थों में जीवनादर्शों की सजीव अभिव्यक्ति हुई है।
इसी प्रकार पं. दयाचन्द्र साहित्याचार्य जी की कृतियों में आत्मोत्थान, चिन्तन त्याग, संयम आदि तत्त्वों की विशद् व्याख्या है ।
पं. जवाहर लाल शास्त्री जी ने भी जैनदर्शन के गूढ़ विषयों को जिनोपदेश, पद्मप्रभस्तवनम् आदि ग्रन्थों में प्रतिबिम्बित किया है । आपकी रचनाएं ब्रह्म 'सत्यं जगन्मिथ्या' को चरितार्थ करती प्रतीत होती हैं । राग द्वेष, पाप त्याग पर बल दिया गया है ।
इसी प्रकार बीसवीं शताब्दी के अनेक रचनाकारों - जिनमें पं. गोविन्द राय शास्त्री, पं. जुगल किशोर मुख्तार, पं. बारेलाल जी राजवैद्य, प्रो. राजकुमार साहित्याचार्य, डा. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, पं. भुवनेन्द्र कुमार शास्त्री, डा. दामोदर शास्त्री प्रभृति रचनाकार प्रमुख हैं इन तथा ऐसे सभी कवियों की रचनाओं में मानवीय गुणों, आदर्शों और उदात्त जीवन मूल्यों की सफल अभिव्यंजना हुई है । इन रचनाकारों ने उत्कृष्ट जीवन दर्शन की प्रतिष्ठा के लिये सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि का पालन करने और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के सिए सम्यक्रत्नत्रय का आश्रय लेने पर बल दिया है। इनके ग्रन्थों में मानव का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति निरूपित किया गया है । स्वस्थ समाज की रचना हेतु इन्होंने क्षमा, विनयशीलता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग और परोपकारिता के गुणों को प्राणिमात्र के लिए आवश्यक निरूपित किया है।
वर्तमान समय में जब मानवता पर सङ्कट के बादल मण्डरा रहे हैं। निरन्तर आणविक अस्त्र-शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है । केवल भारत राष्ट्र ही नहीं प्रत्युत सम्पूर्ण विश्व में परस्पर ईर्ष्या भाव एवं अविश्वास विद्यमान है और वैज्ञानिक विकास की उपलब्धियों ने मानवीय भावनाओं एवं आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को आघात पहुंचाया है । विश्व पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है, विश्व विनाशोन्मुख है । ऐसे वातावरण में आत्मशांति, अहिंसा, सदाचार, प्रेम, परोपकार, ममता, करूणा, दया आदि मानवीय गुणों के साथ-साथ नैतिक उत्थान की विशेष आवश्यकता है । अतः उक्त मानवीयगुणों और आदर्शों की प्राप्ति के लिए बीसवीं शताब्दी के जैन-काव्यों का अध्ययन-अनुशीलन अनिवार्य है, क्योंकि विवेच्यग्रन्थों में वसुधैव कुटुम्बकम्', सत्यमेव जयते, अहिंसा परमो धर्मः, क्षमावीरस्य भूषणम् आदि प्राचीन सिद्धान्त पुष्पित, पल्लवित और फलीभूत भी हुए हैं । मानव मन का कालुष्य दूर करके उसे आदर्श नागरिक बनाने की अभूतपूर्व क्षमता संस्कृत जैन काव्यों में सन्निविष्ट है ।
संस्कृत जैन काव्य स्वान्तः सुखाय होकर भी लोकानुरञ्जन तथा लोकहितैषिता के उदात्त मूल्यों से सम्वेष्टित हैं । इनका प्रतिपाद्य अभिधेय नित नूतन, नव-नवोन्मेषशालिनी
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