Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
-266 किन्तु पद्मप्रस्तवनम् की भाषा में अधिक मधुरता एवं तुकान्ता या पदमैत्री परिलक्षित होती हैं । इस स्तोत्र की भाषा अलङ्कत, आकर्षक एवं भावानुकूल है - यथा -
नित्यं विमत्सर - विराग विभुं नमामि ।
निःशेषसङ्गसुविविक्त - विभुं - नमामि ॥ इस प्रकार कवि भाषा में सहज सारल्य उत्पन्न किया है ।
शैली
कवि की रचनाएँ वैदर्भी प्रधान सुललित शैली में निबद्ध हैं । जिनोपदेश में वैदर्भी शैली की सफलता उल्लेखनीय है, क्योंकि आध्यात्मिक पर आधारित होते हुए भी इसमें नीरसता नहीं आ सकी है - इस शैली के द्वारा विषम को सरलता से स्पष्ट करना कवि का प्रधान लक्ष्य प्रतीत होता है - यथा -
यो व्यवहार कालः स नरक्षेत्रे तु सम्भवः ।
नर क्षेत्र-समुत्थेनाऽन्यत्र व्यवहृतिर्भवेत् 146 . इस पद्य में काल द्रव्य के अन्तर्गत व्यवहार काल की विवेचना है। कि वह मनुष्य क्षेत्र में सक्रिय है । इस क्षेत्र उत्पन्न काल से ही अन्यत्र काल व्यवहार कहलाता है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में सर्वत्र व्याख्यात्मक वैदर्भी शैली के दर्शन होते हैं ।
वैदर्भी शैली का अपर आलङ्कारिक रूप “पद्मप्रभस्तवनम्" में परिलक्षित होता है। इस स्तोत्र की शैली सुललित, आनुप्रासिक है । उसमें पदमैत्री के कारण सर्वत्र माधुर्य एवं गेयता आ गयी है - यह स्तोत्र की सफलता के लिए आवश्यक भी है 17 दर्शनीय है - इस प्रकार कवि का कृतित्व वैदर्भी शैली प्रधान है ।
कवि ने अपनी रचनाओं में प्रसाद गुण को प्राथमिकता दी है । जिनोपदेश एवं पद्मप्रभस्तवनम् के अधिकांश श्लोकों में प्रसादगुण की अभिव्यञ्जना है । एक उदाहरण प्ररूपित है -
ज्ञानाऽज्ञाने हि जानीयान्मोक्षसंसारकारणे ।
तस्मात्स्वसर्वसारेण ज्ञानमाराध्यमेव नः ॥ अर्थात् मनुष्य के लिये ज्ञान और अज्ञान ही क्रमशः मोक्ष और संसार का कारण हैअतः हमारे लिए सर्वस्वसारमय यह ज्ञान ही आराध्य है। यह पद्य पढ़ते ही अर्थ की प्रतीती हो जाने के प्रसादगुण हैं ।
इस गुण के पश्चात् दूसरे स्थान पर माधुर्यगुण शास्त्री जी के काव्यों में देखा जा सकता है 51 एक उदाहरण द्वारा माधुर्य गुण निदर्शित है- इसमें पद्मप्रभु सर्वसुखों का दाता, रक्षक और संसार में जब- के निर्लिप्त कमल के समान सुशोभित होने का उल्लेख है
पद्मत्वमेव हि महेश्वर । नाथ विज्ञ । त्रातासि सर्वसुखदो भविक त्वमेव । यद्वत्प्रफुल्लकमलेन जलस्य शोभा,
तद्वत्त्वयाऽपि भुवनस्य विशिष्ट शोभा ॥452 यहाँ कोमलकान्त पदावली तथा "सर्वसुखद" पद में समास प्रयोग होने से एवं मधुर वर्णों का प्रयोग होने से माधुर्यगुण विद्यमान है । शास्त्री जी की रचनाओं में ओजगुण का सर्वथा अभाव है।