Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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__ आकार - शान्ति सुधा सिन्धु पाँच अध्यायों में विभक्त है, जिनमें पाँच सौ बीस पद्य हैं, इसे एक आचार संहिता मानना युक्ति संगत है ।
ग्रन्थ परिचय - इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में आत्मतत्त्व पर आधारित हितपूर्ण मार्मिक प्रश्नों के उत्तर हैं। द्वितीय अध्याय जिनागम के रहस्यों की अभिव्यक्ति है। तृतीय अध्याय में वस्तुस्वरूप एवं माननीय आदर्शों का व्यापक विवेचन हुआ है । चतुर्थ अध्याय हेयोपादेय के स्वरूप का सारपूर्ण अंश है तथा पंचम अध्याय में समग्र शान्ति की कामना की गयी है और आत्मा के दिव्य गुणों का अवतरण किया है । इस ग्रन्थ में जैन सिद्धान्तों का विवेचन तथा शान्ति की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित की है और अध्यात्म, मनोविज्ञान, जीव, मोक्ष, वैराग्य, पुरुष, सत्य, धर्म, कर्म, सुख, दुःख आदि तत्त्वों की यथार्थता विश्वगति के परिप्रेक्ष्य में निरूपित की गई हैं।
उद्देश्य - आचार्य कुन्थुसागर जी ने यह रचना सांसारिक विकारों, जन्ममरणरूप व्याधियों से सर्वथा मुक्त होने तथा जीवों के कल्याणार्थ चिरन्तर सुख, शान्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर निबद्ध की हैं । इस कथन की पुष्टि आचार्य श्री द्वारा ही रचित ग्रन्थ के अन्त में प्राप्त प्रशक्ति से भी होती है । इसके साथ ही आचार्य श्री का यह भी लक्ष्य हैकि पृथ्वी पर कल्याणकारी धर्म, सम्यववाणी, और सच्चरित्र के धारक साधुवृन्द सदैव विजयी
हों ।
टीका - हिन्दी अनुवादक-श्री धर्मरत्न पं. लालाराम जी शास्त्री जी हैंशान्तिसुधासिन्धु का अनुशीलन
इस ग्रन्थ में कुन्थुसागर जी का मनोवैज्ञानिक चिन्तन और जीवदर्शन की यर्थाथता समाहित है, प्रस्तुत ग्रन्थ का भावात्मक विश्लेषण प्रस्तुत है -
प्रथम अध्याय - इस अध्याय का नाम हितोपदेश वर्णन है । इसमें एक सौ (100) पद्य हैं, आत्मा के स्वरूप के सम्बद्ध - जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों के समीचीन उत्तर निबद्ध हैं आत्मज्ञान रहित दु:खी होता है जबकि सम्यग्दृष्टि सर्वत्र सुखानुभूति प्राप्त करता है मनुष्य के दुःखी होने का प्रधान कारण अज्ञान है, इसके विपरीत शुभयोगसाधना चरमसुख का साधन है । इस संसार में कोई भी पदार्थ सुख या दुख की अनुभूति कराने में सक्षम है नहीं है किन्तु अज्ञान एवं मोह के कारण पदार्थों में यह कल्पना की जाती है । आचार्य श्री का दृढ़ मत है कि कर्म के अनुसार यह जीव स्थिर नहीं रहता तथा अपने कर्मानुसार ही चारों गतियों में परिभ्रमण करता है किन्तु कर्मों का अभाव होने पर जीव इस परिभ्रमण से मुक्त हो जाता है-इसे ही "मोक्ष" कहते हैं ।
जो व्यक्ति दूसरे का अहित करना चाहता है परन्तु उसे ही अपने दुष्कर्म का फल भोगना होता है । क्योंकि कर्मरूपी रस्सी से पुरुष पशुओं के समान बन्धनग्रस्त है अर्थात् कर्म प्रधान है।
इसके पश्चात् आत्मा में राग और द्वेष की साथ-साथ उपस्थिति का भी विवेचन किया है तथा संसारी जीवों के सुख-दुःख को दिन और रात्रि के समान निरूपित किया है । इसके उपरान्त धन की हेयता प्रतिपादित की है और उसकी तीन गतियों का विवेचन किया है धन को दुःखों का कारण माना है । तत्पश्चात् मानव को सदाचार की ओर प्रेरित किया