Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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गया है । लोभी व्यक्तियों की घोर निन्दा की है एवं धन की उपयोगिता और उद्देश्य पर भी प्रकाश डाला है जप, तप, ध्यान, दया आदि गुणों से मण्डित मानव "पात्र कहलाता है - जो विधिवत् पात्र को आहार देता है, इसके पश्चात् स्वयं अन्न जल ग्रहण करता है वही श्रेष्ठ गृहस्थ है किन्तु अकेला खानेवाला पापी होता है । इसके अनन्तर काम शक्ति को दुःखदायी सन्तापयुक्त, अपमानसूचक कहकर उसके सर्वत्र व्याप्त होने पर चिंता व्यक्ति की है, कुछ ऐतिहासिक पुरुषों का भी उल्लेख किया गया है, जो कामशक्ति के प्रभाव से सम्पृक्त हो गये । ग्रन्थकार का यह भी मत है कि यह जीव काम भोगों से तृप्त नहीं होना न स्याद्धि जीवश्च कदापि तृप्तः सत्काम भोगैरिह जीव- लोके काम सेवन से तृष्णा की पूर्ति नहीं होती अपितु वह बढ़ती ही जाती है, इसलिए आत्महित में विषयवासना का परित्याग ही कर देना चाहिये । तदुपरान्त सजन, दुष्ट की प्रकृति (स्वभाव) की समीक्षा की गई है। प्रत्येक विचारशील मानव द्वारा अपने प्रतिदिन के कार्यों की समीक्षा की जाती है, जिससे उसे कर्तव्यबोध हो जाता है । ग्रन्थकार ने एक तर्क यह भी प्रस्तुत किया कि कर्मबन्धन में आबद्ध यह मनुष्य अनादिकाल से अशुद्ध हो रहा है, अत: वह जप, तप, ध्यान, सदाचार आदि के द्वारा अनन्त सुख प्राप्त कर सकता है और शुद्ध हो सकता है, मानव शरीर को अत्यन्त अशुद्ध और नश्वर भी निरूपित किया है-क्योंकि यह मलमूत्र, मांस, रुधिर आदि से समन्वित है तथा इनका निवास स्थान भी है-जीव निकल जाने पर तो कोई इस शरीर को स्पर्श करना भी उचित नहीं मानता, ऐसे शरीर में अहं, स्वार्थ को प्रश्रय न देकर व्रत, उपवास, जप, तप, करुणा, क्षमा, ध्यान, मैत्री आदि को स्थापित (के प्रति आकृष्ट होकर) करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिये। क्रोधादि विकार तो आत्मा का अहित करने वाले हैं तथा नरक के साधन हैं कहने का अभिप्राय यह कि यह शरीर ही जीव के हित एवं अहित का माध्यम होता है ।
आचार्य श्री का यह संदेश भी है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने वाला मोक्ष नगर में प्रतिष्ठित होता है । आत्मा के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का चिन्तन अत्यन्त मुखर है-आत्मा सर्वज्ञ है यह आत्मा ज्ञेय, ज्ञायक, दृष्टा एवं दृश्य भी है । इसके साथ ही जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट मार्ग के शास्त्रों का अध्ययन करने की प्रेरणा प्रदान की है। इस अध्याय में अपरिग्रही साधुओं की महिमा, कठोरसाधना एवं लोकपूज्यता का व्यापक वर्णन किया गया है और सरागी, साधुओं की निन्दा की है-मोक्ष के लिए सतत् यत्न करने वाले को “यति" कहा गया तथा जिनेन्द्रदेव की उपासना एवं आत्मचिन्तन पर विशेष ध्यान देने की प्रेरणा प्रदान की है।
द्वितीय अध्याय - यह अध्याय 102 पद्यों में निबद्ध है । इसका नाम "जिनागम रहस्य वर्णन" है । इस जीव के कर्मों से आबद्ध और उनसे मुक्त होने का विश्लेषण किया है।
यति अनन्त सुख का अन्वेषण करने में चिन्तनरत होते हैं तथा पापों के समान पुण्यों का भी परित्याग कर देते हैं । इसके पश्चात् आत्मा के से विमुख को परमुखी तथा उसके सम्मुख रहने वाले को चिदानन्दमय, निराकार, शुद्ध विकाररहित मोक्षगामी कहा गया है । श्रावकों के लिए शान्ति ग्रीष्म, वर्षाकाल में तपस्या करने का व्यवस्थित कार्यक्रम (दिनचर्या) निर्धारित किया गया है तथा मुनियों द्वारा भौतिक बाधाओं को उपेक्षा किये जाने का भी विवेचन किया है । इसके पश्चात् देव, शास्त्र, गुरु के उपासकों की प्रशंसा की गई है और बन्ध तथा मोक्ष के स्वरूप की व्याख्या भी प्रस्तुत हुई है । जिसमें अज्ञान, मोह, परपदार्थ प्रेम