Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 256
________________ | 235 त्रिपथगाम्ब सुचन्दन वासितं शशिकलां सुमणि ह्यथवा सिता। प्रकल्यन्ति न धर्मसुशान्तये भुवि मता मनयो जिनशान्त ये॥10 ऋषियों के लिए गङ्गाजल और मलयागिरि का चन्दन तथा आनन्द प्रदायिनी शरद कालीन चन्द्रमा की शीतल और शुभ्रकिरणें ही सुरमा, काजल मणिमाला आदि शृंगारिक साधन हैं । आचार्य विद्यासागर जी की शैली की एक विशेषता यह भी है कि उनकी रचनाओं में प्रसादगुण पदे-पदे मिलता है । परीषहजय शतकम् में से एक उदाहरण द्रष्टव्य है नहि करोति तृषाकिल कोपिनः शुचि मुनीम नितरो भुवि कोपि न।। विचलितो न गजो गजभावतः श्वगणेकन सहापि विभावतः ।।" ___ कवि के कहने का अभिप्राय है कि स्वालम्बी होकर मुनिवर तृषा आदि के वश में न हरते हुए जीवन यापन करते हैं किसी कारण से कुपित न होने वाले ये उस मतवाले हाथी के समान अपने पथ पर चलते हैं जिसके पीछे सौ-सौ श्वान भौंकते हैं, किन्तु वह उनकी और देखता भी नहीं । "परिषहजय शतक" में अभिधा शक्ति की विपुलता परिलक्षित होती है । भावार्थ का सहज और स्पष्ट वर्णन ही अभिधा वृत्ति को उपस्थित कर देता है - विरमित श्रुततो ह्यधकारतः वचसि ते रमते त्वविकारतः । स्मृतिपथं नयतीति न भोगकान् विगत भावितकांश्च विबोधकान्॥12 कवि का अभिप्राय यह है कि साधुजन पाप से लिप्त करने वाले (विषय वासना प्रधान) शास्त्रों से दूर रहते हैं तथा वैराग्य बढ़ाने वाले ग्रन्थों को पढ़ने में संलग्न रहते हैं। अतीतकाल में भोगे गये भोगों को न सोचते हुए वर्तमानकाल के प्रति सचेत रहते हैं । इसी प्रकार लाक्षणिक शब्द के अर्थ को अभिव्यक्त करने लक्ष्यार्थ उपस्थित होता है। यह लक्ष्यार्थ लक्षणा शक्ति के द्वारा प्रकट होता है । लक्षणा शक्ति का प्रतिपादन परीषहजय शतकम् के कतिपय पद्यों में दर्शनीय है । आचार्य श्री प्रसङ्गानुकूल आचार्य श्री प्रसङ्गानुकूल लक्षणा के आधार पर अपने भावों को अभिव्यजित किया है, उदाहरण के रूप में अधोलिखित पद्य प्रस्तुत है - पद विहारिण आगमनेत्रकाः धृतदया विमदा भुवनैत्र का:13 "दया-बन्धु" और "आगमनैत्र" इनमें लाक्षणिक प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार के प्रयोग निम्न पद्य में भी आये हैं । ____ लसति मां परितो मुदितां सती तदसह्येति तृषा कृपिा उसती अर्थात् मुक्ति रमा उनके सम्मुख मुदित होकर नाचती है इसीलिए ही मानो तृषा ईर्ष्या करती हुई जलने लगती है और कुपित होती है । यहाँ लक्षणिक प्रयोग हुए हैं, जिनमें लक्षणा प्ररूपित हुई है। परीषह जय शतक में अनेक स्थलों पर व्यञ्जना व्यापार की सजीव अभिव्यक्ति हुई है - अन्तिम वृत्त में स्पष्ट किया गया है कि सभी ऐश्वर्यों के प्रति उदासीन हो आत्मा को देखने की दीर्घकाल से प्यास थी । उसे मिटाने के लिए ज्ञानसागर से उत्पन्न विद्या के प्याले को पान कर संतुष्ट हो जाऊँगा -

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