Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 263
________________ 12424 यदि श्रावक प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखे तो उसकी निर्मल कीर्ति फैले और स्वराज्यरूपी लक्ष्मी सदाकाल दासी के समान उसकी सेवा करे । यहाँ लक्ष्मी उपमेय है और दासी उपमान । ऐसे श्रावकों की सेवा सेविका के समान लक्ष्मी करे । इस भाव की प्रतीती होने से उपमा है । सन्देह अलङ्कार की झलक भी हमें इस पद्य में होती है - इस पद्य में ग्राम में अथवा नगर में या वन में मार्ग रेल, मोटर नदी तट या अन्यत्र भी छोड़े हुए या गड़े हुए या रखे धन को ग्रहण करना चोरी माना है ग्रामपुरे वनपथे पतितं न दत्तम्, कौ स्थापितं परधनं यदि विस्मृतं वा। तत्त्यागं एवं सुखदं व्रतमुत्तमं स्यात्, श्राद्धस्य धर्मरसिकस्य किलैकदेशम्।।53 यहाँ कौ, वा अथवा आदि वाचक शब्दों से संदेह अलङ्कार की प्रतीती होती है क्योंकि कवि ने किसी निश्चित स्थान को न बताकर विकल्प से स्थानों का चयन किया है । विरोधाभास इस पद्य में मात्र विरोध की प्रतीती होती है - नेत्रवानपि चान्धः स, बुधोऽपि मूर्ख एवं स्तः । स कलहप्रियो महन्ये, स्वमोक्ष सौख्यदुरगः।।54 अर्थात् धर्म से विमुख व्यक्ति नेत्रयुक्त होने पर भी, अन्धा विद्वान होने पर भी मूर्ख है और उसे हम कलहप्रिय एवं स्वर्ग, मोक्ष के सुख से दूर मानते हैं । इसमें विरोध की प्रतीती केवल यही है कि नेत्रवान को अंधा और विद्वान को मूर्ख कहा है किन्तु विरोध का परिहार भी कह दिया है । इसके साथ ही "मन्ये" के कारण उत्प्रेक्षा का भी आभास हो जाता है। . इस प्रकार विवेच्य श्रावकाचार में अलंकारों का विशेष प्रयोग नहीं हुआ है, केवल सिद्धान्तों और आचार-विचार सम्बन्धी उपदेशों को अंकित किया गया है । - गुण . आचार्य कुन्थुसागर का कृतित्व प्रसादगुण प्रधान माना जाता है । उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों में अपने विचारों से जनजीवन को प्रभावित करने और उनका बौद्धिक उन्नयन करने के लिए सरल, सरस रचनाएँ की । यह श्रावकाचार भी अत्यन्त सटीक है इसमें प्रसादगुण की छटा सर्वत्र विद्यमान है, ओजगुण का सर्वथा अभाव है - प्रसाद से परिपूर्ण एक पद्य द्रष्टव्य है - ___ स्वधर्मे सुखदे प्रीतिरधर्मे दुःखदेऽरुचिः । __ भावो यस्येति स्यातस्य संवेगः सुखदो गुणः ।।55 अपने धर्म में सुखद प्रीति और अधर्म में अरूचि ही संवेग नामक गुण है । अपना धर्म आत्मप्रधान है । उसके क्षमा, दयादि अनेक गुणों में प्रीति होती है किन्तु सांसारिकता दुःखद अधर्म की प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ सरल शब्दों में भावों का स्पष्टीकरण होने से प्रसादगुण हे । माधुर्य गुण भी किन्हीं-किन्हीं पद्यों में परिलक्षित होता है - एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर रहा हूँ -

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