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ध्यानी विवेकी, परतपस्वी ज्ञानी, व्रती प्राणिहितोपदेशी । यः काम जेता शिवसौख्यकारी, वन्दे मुनीश शिवसागरं तं ॥362
मुनि श्री शिवसागर की शान्ताकृति मुद्रा पर श्रद्धालु की नमोऽस्तु क्रियाएँ निर्वेद भाव जाग्रत करती है अतः शान्तरस प्ररूपित है ।
छन्द विधान
आर्यिका सुपार्श्वमती जी ने वसन्ततिलका, उपजाति, अनुष्टुप् आदि प्रसिद्ध वृत्तों में अपने काव्य का सृजन किया है । आचार्य अजितसागर जी पर लिखित पूजा और जयमाला वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध है
आचार्य श्री धर्मसागर स्तुति एवं आचार्य शिवसागर स्तुति भी वसंततिलका एवं उपजाति छन्दों से आबद्ध रचनाएँ हैं।
अलङ्कार
आर्यिका श्री की कृतियों में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षादि अलङ्कारों का बाहुल्य है । - उपमा और रूपक का एक प्रयोग दृष्टव्य है -
संसार तापवननाशन वैनतेयं तं धर्म सागरमहं प्रणमामि भक्त्या । आचार्यवर अजितसागर की पूजा एवं जयमाला के पद्यों में उक्त अलङ्कार पदे पदे विद्यमान है ।
भाषा शैली
आर्यिका सुपार्श्वमती का रचना संसार काव्यात्मक साहित्यिक कसौटी पर खरा सिद्ध हुआ है । संस्कृत तत्सम पदावली में एकरूपता बोधगम्यता और सरसता है । उनकी भाषा सरस, भावानुकूल और प्रसादगुणपूर्ण है । शब्द चयन प्रशंसनीय है
जीर्ण जन्म मृत्यु रोग शोक यजे सदाजिताब्धि सूरि मुद्रा
ताप नाशकं । सुखप्रदम् ॥ ३०३
छन्दों में गेयता एवं सङ्गीतात्मकता आ गई है। शैली में नवीनता और गवेष्णात्मकता । प्रसादगुण पूर्ण वैदर्भी रीति के कारण शैली प्रवाहशील, सम्प्रेषणीय है । उनकी कृतियों में समाज शैली के दर्शन भी होते हैं
यथा
कल्याणवल्लि जलदं जितकाम चरणात्मक योग
श्रद्धाबोध
कल्लम । शुद्धम् ॥364
इस प्रकार आर्यिका श्री का साहित्य बीसवीं शती का प्रतिनिधि साहित्य है । आर्यिका ज्ञानमती माता जी की रचनाओं का साहित्यिक एवं शैलीगत अध्ययन
रस
आर्यिका श्री की रचनाएँ शान्तरस प्रधान हैं। इनमें महनीय जैनाचार्यों के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित किये गये हैं, अतः रचनाओं में केवल शान्तरस के ही दर्शन होते हैं ।
छन्द
आर्यिका श्री की रचनाओं में अनुष्टुप् वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित, उपजाति वृत्तों प्रयोग हुआ है । उनकी छन्दयोजना सशक्त और प्रभावशाली है - इनकी रचनाओं में