Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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| 236 वै विषयमीयविद्यां विहाय ज्ञानसागरजा विद्या ।
सुधा मैम्यत्मविद्यां नैच्छामि सुकृजां भुविधाम ॥15 यहाँ मुख्यार्थ के अतिरिक्त भी एक गूढ अर्थ अभिव्यञ्जित हो रहा है कि विषम अविधा रूपी होली का त्याग कर अपने गुरू ज्ञान सागर से प्राप्त समानता रूपी विद्या सुधा का सेवन करूँ, जिससे कल्याण प्राप्त हो सके । अत: यहाँ व्यंग्यार्थ भी समाविष्ट हो गया है ।
परीषह जय शतक के विभिन्न पद्यों में काव्य रीतियों के उदाहरण उपलब्ध होते हैं। गुणों के वर्गीकरण में प्रयुक्त उदाहरण भी रीतियों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर परिषहजय शतककार की भाषा शैली की समीक्षा और भावाभिव्यक्ति का समीचीन निदर्शन किया गया है।
इनके अतिरिक्त आचार्य विद्यासागर जी द्वारा प्रणीत अन्य रचनाओं में भी साहित्यिक, शैलीगत उपर्युक्त सभी सामग्री विद्यमान है । आचार्य श्री निरन्तर काव्य साधना करते हुए बीसवीं शताब्दी में संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं - ___ आचार्य कुन्थुसागर की रचनाओं का साहित्यिक
एवं शैलीगत अध्ययन ____ मुनिवर कुन्थुसागर की रचनाओं में अध्यात्म, नीति, दर्शन, संस्कृति और आचार शिक्षा की प्रतिष्ठापना है । आचार्य श्री की प्रमुख कृतियों का साहित्यक एवं शैलीगत विवेचन विचारणीय
शान्ति सुधा सिन्धु
रसानुभूति "शान्तिसुधा सिन्धु" अध्यात्म, ज्ञान, वैराग्य और शाति पर आधारित रचना होने के कारण इसमें शान्त रस की प्रधानता है ।
मुनिमार्ग की महनीयता के निदर्शन में शान्तरस की अनुभूति अधोलिखित पद्य में प्रेक्षणीय
स्वानन्द तृप्ताय मुनीश्वराय देवेन्द्रलक्ष्मी धरणेन्द्रसम्पत्, नरेन्द्र राज्यं वरकामधेनु चिन्तामणिः कल्पतरोवनादि । सुभोग भूमि स्तृणवद्विभाति तथा मनोवाञ्छितभोजनादिः,
कथैव साधारण वस्तुनः का लोके मुनीनां महिमाह्यचिन्त्या ॥16 इस ग्रन्थ में शान्तरस का आद्योपान्त विवेचन है ।।
सुरापान करने से मनुष्य बुद्धिभ्रम वश बहिन, माता तथा अन्य किसी भी स्त्री को अपनी पत्नी समझ लेता है - इस आशय की अभिव्यक्ति में अद्भुत रस का परिणाम सजीव बन पड़ा है -
सुरादिपानेन हतात्म बुद्धि-नरो यथा को भगिनीमपीह ।
सुमन्यते मातरमेव मूढो, भार्यावरां मन्यत एव देवीम् ।। यहाँ मनुष्य के नैतिक पतन पर सहृदय आश्चर्यान्वित हो उठता है। मानव शरीर को मांस, रुधिर, मूत्र और विष्टा का पात्र (भण्डार) कहकर उसके प्रति उपेक्षा भाव रखने की प्रेरणा बीभत्सरस की सिद्धि करती है