Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 254
________________ "सुषीतात्मसुधारसः संयमी सुधीर्यश्च सदाऽरसः । ऋषे ! विषयस्य सरसः किल किं वार्वाञ्च्छति नरः सः ।।303 इसमें सुधा रस, अरस और सरस की पद योजना विशेष रूप से माधुर्य की अभिव्यक्ति । में सहायक है। श्रमणशतकम् के अनेक पद्यों में प्रसाद गुण समन्वित है, उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है "तथा जितेन्द्रियोगतो, निस्पृहोऽभवं योगी च योगतः । पक्वपूर्णचयोऽगतो, यथा पतन मा चल योगन:"104 अर्थात् - ब्रह्मविद् योगी ब्रह्ममय हो जाता है, देह से वह न्यी प्रकार निस्पृह हो जाता है जिस प्रकार पक्वपूर्ण वृक्ष से । बाणभट्ट की रीति के अनुरूप श्रमण शतकम् में आचार्य श्री ने पाञ्चाली रीति का आश्रय लिया है । शतक परम्परा की प्रथम कृति होने के कारण इसमें विकट वर्णों, समास बहुत क्लिष्ट पदों के प्रयोग प्राय: नहीं मिलते हैं । अल्पसमासा-मृदुपदा शैली का उपयोग अधोलिखित पद्य में परिलक्षित हो रहा है - सुकृतैनोभ्यां मौनमिति व्रज मत्वाहं देहमौ न ! धुवौ धर्मावमौन राग द्वेषौ च ममेमौ नः ॥ कवि ने छन्द और अर्थ के समन्वय पर समान रूप से ध्यान केन्द्रित किया है। संस्कृत की सरस और सरल पदावली के माध्यम से भावों को अभिव्यक्ति प्रदान की है । श्रमणशतकम् में भाषा की सजीवता, सुस्पष्टता पदे-पदे दृष्टिगोचर होती है । भाषा में दुरुहता का अभाव है । शैली में नवीनता आकर्षण और रोचकता आ गयी है । श्रमण शतकम् के पदों में गेयता, सङ्गीतात्मकता पाई जाती है । यह कृति रचनाकार की प्रतिभा वैदुष्य और रचना कौशल की परिचायक है। ४. सुनीतिशतकम् "सुनीतिशतकम्" में सरल संस्कृत पदावली प्रयुक्त है - सुनीति शतकम् का माधुर्य भी चित्त को द्रवीभूत करते हुए परमाल्हाद में निमग्न कर देता है - एक पद्य में यथामति तथागति-यथागति तथामति का भाव सौन्दर्य हृदय को मधुरस से सिंचित कर रहा है - यथा मतिः स्याच्च तथा गतिः सा यथा गतिः स्याच्च तथा मति सा। मतेरभावातु गतेरभावो, द्वयोरभावात् स्थितिराश शैवे ।।306 उक्त पद्य की पद योजना सराहनीय है । प्रसाद गुण युक्त सुनीतियों के सङ्ग्रह इस | ग्रन्थ में रोचकता आ गई है। . अविवाहित रहकर व्यभिचारी का जीवन यापन करना निन्दनीय और घृणित है- इससे | शुभाचारी गृहस्थं होना श्रेयस्कर है - विवाहित- संश्च वरो गृही सोऽ, विवाहिताद्वा व्यभिचारिणोऽदि । पापस्य हानिश्च वृषे मतिः स्यात् तथैतरस्यात् श्रुणु पापमेव ।।३07

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