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निजनिधे निलयैन सताऽतनो, मतिमता वमता ममता तनोः । कनकता फलतो युदिता तनौ, यदसि मोहतमः सविताऽतनो ॥258
भाव यह निकलता है कि हे अतनो ! (अशरीरा परमात्मन्) तुमने शरीर से भिन्न आत्मनिधि की विलीनता से देह की ममता का वमन कर दिया है इसी कारण आपके शरीर में स्वर्ण की आभा प्रकट हुई । आप मोहाधन्कार के लिए सूर्य हो । इस प्रकार यहाँ भगवान देह के लिए की गई स्वर्ण जैसी आभा की उत्प्रेक्षा सहेतुक है ।
निरञ्जन शतकम् में अपह्नति अलङ्कार की झलक भी मिलती है - अपह्नति का लक्षण आचार्य मम्मट अपने काव्य प्रकाश में निबद्ध किया है । प्रकृतं यन्निषिध्यान्यत्साध्यते सा त्वपह्नतिः 259 आशय यह है कि जहाँ प्रकृत का निषेध करके अप्रकृत (उपमान) की सिद्धि वर्णित की जाती है वहाँ अपह्नति अलङ्कार विद्यमान रहता है ।
नीचे प्रस्तुत पद्य में आचार्य श्री का अभिप्राय है - कि जिनदेव के शिर पर बने काले केश नहीं बल्कि ध्यानाग्नि में स्वयं को जलाने पर उत्पन्न राग ही बना धुआँ बनकर निकल आया है।
असित कोटिमिता अमिताः तके, न हि कचा अलिमास्तव तात ।
वर तपोऽनलतो बहिरागता, सघन धूम्रमिषेण हि रामता ॥ हिन्दी अनुवाद भी दर्शनीय है -
काले घने भ्रमर से शिर से तुम्हारे ये केश हैं नहि विभो ! निज जिनदेव प्यारे । ध्यानाग्नि से स्वयम् को तुमने जलाया
लो ! सान्द्र द्रुम मिष बाहर राग आया60 यहाँ प्रकृत उपमेय केशों का निषेध करके अप्रकृत जपमानराग की प्रतिष्ठा की गई है । विरोधाभास अलङ्कार का लक्षण जो काव्य प्रकाश में विद्यमान है - विरोधः सोऽविरोधे विरुद्धत्वेन यद्वच?62 जहाँ दो वस्तुओं का उनमें किसी प्रकार का विरोध न रहने पर भी ऐसा वर्णन किया जाय कि विरोध भी प्रतीति उत्पन्न दो वहाँ विरोधाभास अलङ्कार होता है। प्रस्तुत लक्षण निरञ्जनशतकम् के कतिपय पद्यों में सार्थक होता है। प्रस्तुत पद्य में यमक के साथ-साथ विरोधाभास की स्थिति भी निहित है -
गुणवतामिति चासि मतोऽक्षरः, किलस्तथा पिनचितबतोऽवसरः । न हि जिनाप्यसि सैन विनासितः स्तुतिरियं च कृतात्र विना शितः ॥ हिन्दी में अनुवाद है - . हो मृत्यु से रहित अक्ष हो बहाते हो शुद्ध जीव जड़ अक्षर हो न तातें । तो भी तुम्हें न बिन अक्षर जान पाया स्वामी ! अतः स्तवन अक्षर से रचाया 162
आशय है कि हे भगवान तुम्हें लोग अक्षर (अविनाशी) कहते हैं तथापि तुम अक्षर नहीं (शब्दरूप) नहीं हो । यहाँ अर्थ करने पर विरोध का परिहार हो जाता है तथापि आपका ज्ञान करने और कराने के लिए जो अक्षर वाणीरूप जड़ भूत है उनका आश्रय मैंने भी लिया है ।