________________
102
मेरा चिन्तवन २३
__इसमें परिणामों के लिए और अशुभ से बचने के लिए कल्याण सम्बन्धी प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया गया है । ग्रन्थ के अन्तिम भाग ' 'जिनवर पच्चीसी" हिन्दी के छप्पय छन्दों में प्रस्तुत है और इन्दुमती जी की वन्दना १, की है । यह रचना मानवीय दृष्टिकोण को निर्मल बनाने में सहायक सिद्ध होगी । षट्प्राभृतम्२४
___ यह श्रीमत् कुन्द कुन्दाचार्य देव प्रणीत प्राकृत रचना है । इसका संस्कृत अनुवाद श्री श्रुतसागराचार्य ने किया और हिन्दी टीका आर्यिका सुपारमती माता जी ने की है। वरांग चरित्र २५
इसमें वराङ्ग नामक राजकुमार के संयमपूर्वक जिनमुद्राधारण करने और परिग्रह त्याग कर केवलज्ञान प्राप्ति तथा शिवनारी का वरण करने का वृत्तान्त वर्णित है । मानवता की - शिक्षाओं से ओत-प्रोत वरांग का जीवन चरित्र आदर्श बन पड़ा है । रत्नत्रय की अमरबेल २६
___ इस कृति में तीन लेख हैं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन लेखों के माध्यम से जैनागम का सार, मोक्षमार्ग का साक्षात्कार कराने और युवावर्ग को धर्म का मर्म समझाने का पूर्ण प्रयास किया गया है । मानव जीवन में दर्शन, ज्ञान, चारित्र के प्रति आस्था उत्पन्न की गई है। श्री जिनगुण सम्पत्ति व्रत विधान २७
जैन शास्त्रों में शुभापयोग के कारण भूत व्रतविधानों में "जिनगुण सम्पत्ति भी एक महान् व्रत है । जिनगुण सम्पत्ति से अभिप्रायः है - जिनेन्द्र भगवान् की गुणरूपी सम्पत्ति की प्राप्ति वे गुण हैं - आठ प्रातिहार्य, पञ्चकल्याणक और चौतीस अतिशय इनकी कारणभूत है - सोलह कारण भावनाओं को भी "जिनगुण सम्पत्ति कह देते हैं । व्रतों के उद्यापन में 63 पूजाओं का उल्लेख है, जो संस्कृत में है और अप्राप्त है । आर्यिका श्री ने इसी भाषा पूजा की रचना की है जिसमें जिनगुण सम्पत्ति पूजा का विधान समुच्चय पूजा जयमाला, सोलहकारण पूजा, पञ्चकल्याणक पूजा, अथाष्टक पञ्चकल्याणक अर्घ्य, अष्टप्रातिहार्य पूजा, अष्टप्रातिहार्य अर्घ्य, जन्मातिशय पूजा, केवलज्ञानातिशयपूजा, देवकृतातिशय पूजा, समुच्चय जयमाला आदि का विशेष विवेचन इस कृति में है ।
"जिनगुणसम्पत्तिव्रतोद्यापनम् - संस्कृत पद्यों में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा प्रणीत सम्पूर्ण व्रत विधान विषय का ग्रन्थ है। सागार धर्मामृत २८
यह ग्रन्थ महापण्डित आशाधर द्वारा संस्कृत में रचित धर्मशास्त्र है। इसका अनुवाद श्री 105 सुपार्श्वमति माता जी ने किया है । इसका सम्पादन एवं संशोधन पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री जी ने किया है । यह रचना श्री आदिचन्द्रप्रभ आचार्य श्री महावीर कीर्ति सरस्वती प्रकाशनमाला का चतुर्थ पुष्प है ।