________________
142
महावीर के गर्भ में आने पर त्रिशला माता की देवियों द्वारा की गयी सेवा का कवि ने मर्मस्पर्शी चित्रण किया है । तीर्थङ्कर पुण्य-प्रकृति के प्रभाव से महावीर की माता त्रिशला देवियों की सेवा से सुख पाती है और देवियाँ भी सेवा धर्म कठिन होने पर भी उनकी सानन्द सेवा करती हैं। वह जन्म यथार्थ में धन्य है जो देव सेव्य होता है -
सेवाधर्मः परमगहनः सत्यमेतत्तथापि, देव्यश्चक्रुर्मुदित मनसा तीर्थकृत्पुण्य योगात् । मातुः सेवामतिसुखकरी वृत्तिरिक्तां स्वयोग्याम्,
धन्यस्तेषां भवति स भवो देवसेव्यो भवेद् यः ॥2-32॥ भगवान् महावीर के जन्म हो जाने पर उनके जन्म के प्रभाव से दिशाएँ निर्मल हो गयी थी, आकाश भी निर्मल हो गया था। उस समय तारे दिखाई नहीं पड़ते थे। मंद सुगन्धित और शीतल वायु बहने लगी थी । मार्ग सम और पङ्क विहीन हो गये थे -
दिशः प्रसन्नाश्च नभो बभूव विनिर्मलं तारकितं तदानीम् ।
वाता बभूवुश्च सुगंध शीताः मार्गाः समा पङ्कविहीनरूपाः ॥3-9॥
राजा सिद्धार्थ द्वारा विवाह का प्रस्ताव रखे जाने पर महावीर के द्वारा पिता के निरुत्तर किये जाने में कवि की दार्शनिक सूझ-बूझ की झलक दिखाई देती है । विवाह के विरोध में महावीर का यह कहना युक्ति सङ्गत प्रतीत होता है कि हे तात ! द्रव्यात्मक दृष्टि से विचार करें तो कोई किसी का नहीं है । संबन्ध मनुष्यों द्वारा निर्मित है । जीवों के पुत्रपिता के सम्बन्ध पर्याय दृष्टि से ही इस संसार में है -
द्रव्यात्मना नास्ति च कोऽपि कस्य सम्बन्धबन्धेन जनो निबद्धः । पर्यायद्रष्ट्यैव च तात-पुत्राः सम्बन्धिनोऽमीह भ्रमन्ति जीवाः ॥4-9॥
संसार की असारता, क्षण भङ्गरता और इष्टानिष्ट पदार्थों के संयोग और वियोग का कवि शास्त्री जी ने वर्द्धमान के मुख से अच्छा दिग्दर्शन कराया है। वे अपनी माता त्रिशला से तपोवन जाने की आज्ञा मांगते हुए कहते हैं - हे माता ! यहाँ कौन किसका है । संयोग से प्राप्त पदार्थों का नियम से वियोग होना है । अतः मोहजाल को शिथिल करके हे माता। मुझे तपोवन जाने की आज्ञा दीजिए -
मातस्त्वमेव परिचिन्तय कस्य कोऽत्र, संयोगिनां नियमतोऽस्ति वियोग इत्थम् । चित्ते विचिन्त्य शिथिलीकुरु मोहजालं,
मह्यं ह्यनुज्ञा जननि प्रदेहि ॥5-35॥ कवि ने दैगम्बरी दीक्षा का महत्त्व भी वर्द्धमान के मुख से ही प्रतिपादित कराया है। कुमार वर्द्धमान विचारते हैं कि दिगम्बर दीक्षा के बिना आत्मशुद्धि नहीं होती । और कर्मों का नाश इसके बिना नहीं होता तथा कर्मों का नाश हुए बिना मुक्ति नहीं । ऐसा विचार कर वर्द्धमान ने दिगम्बरी दीक्षा धारण की -
दिगम्बरी बिना दीक्षामात्मशुद्धि न जायते । तच्छुद्धिमन्तरा नैव कर्मनाशो भवेत्क्वचित् ॥5-44॥ मुक्तिलाभो विना नाशात् कर्मणां नैव संभवेत् । इत्थं विचिन्त्य वीरेण दीक्षा दैगम्बरी धृता ॥5-45॥