________________
188
इस प्रकार भव्यात्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्षमार्ग को प्राप्त करके संसार सागर से पार हो जाता है । इन तीनों के बिना मोक्ष असम्भव है । जड़चेतन का विविध परिणाम ही संसार है । चेतन द्रव्य अनादिकाल से कर्मबद्ध रहा है । उन्हीं कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप धारण करता है और सु:ख-दुःख का अनुभव करता है।
जिसके सभी कर्म नष्ट हो गये हैं वह ईश्वर है - "परिक्षीण सकलकर्मा परमात्मा। प्रत्येक जीव पुरुषार्थ से कर्मबन्धन का नाश करके विमुक्त होकर परमात्मा हो सकता है। जो कर्म करता है वहीं कर्म का फलभागी भी है । कर्म के अनुसार पुरुष की बुद्धि भी परिवर्तित होती हैं ।
ईश्वर और कर्म का स्वरूप समझाने के पश्चात् स्याद्वाद का विवेचन किया गया है। यह सिद्धांत वैज्ञानिक है । प्रत्येक पदार्थ के अनन्त धर्म होते हैं । वस्तु के विभिन्न गुणों का विभिन्न दृष्टिकोणों से पर्यवेक्षण करना चाहिये । पदार्थों में व्याप्त विविध धर्मों की सापेक्षता को स्वीकार करना ही स्याद्वाद है ।
__ इस प्रकार "मङ्गलायतनम्" में विविध दार्शनिक तथ्यों का समीचीन समाधान मिलता है । ग्रन्थ के अन्त में उपसंहार स्वरूप आदर्श सिद्धांतों की व्याख्या की गई है- अहिंसा की महिमा, द्रव्य का प्रभाव, धर्म की सत्ता, तप की श्रेष्ठता, सत्य का गौरव, आत्माकी शाश्वतता आदि का विवेचन महावीर के उपदेशों में समाविष्ट किया गया है।
__इस प्रकार इन्द्रभूति आदि शिष्यों सहित 30 वर्षों तक समग्र भू-मंडल पर उपदेशामृत बरसाते हुए भगवान् महावीर ने बिहार की पवित्र मध्यमा पावा की भूमि में आकर कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को प्रत्यूष काल में निर्वाण प्राप्त किया । उस समय रात्रि का कुछ अन्धेरा था । भगवान् का निर्वार्णोत्सव मनाया गया ।
“मंगलायतनम्" में एक श्रेष्ठ गद्य विधा में निबद्ध महाकाव्य की सम्पूर्ण सामग्री विद्यमान है । सरल प्रसादगुण पूर्ण कोमलकान्त पदावली संयुक्त भाषा-शैली में समगुफित यह गद्यकाव्य विविध वर्णनों से परिपूर्ण लेखक की सिद्धहस्तता का ही परिचायक है। उपसंहार :
इस शोध प्रबन्ध के तृतीय और चतुर्थ अध्याय में जैन साधु-साध्वियों और मनीषियों द्वारा प्रणीत संस्कृत काव्यों का अनुशीलन किया गया है । इन दोनों अध्यायों में समाविष्ट सामग्री से यह ध्वनित होता है कि जैन रचनाकार संस्कृत काव्य की महाकाव्य, खण्डकाव्य, गीतिकाव्य, सन्देशकाव्य,स्तोत्रकाव्य,शतककाव्य, चम्पूकाव्य, श्रावकाचार, नीतिविषयक काव्य, पूजाव्रतोद्यापन काव्य और गहन-गम्भीर दार्शनिक विषयों का अवलम्बन करके काव्य-साहित्य के सृजन में योगपूर्वक निरत हैं । .
इन अध्यायों में प्रणीत टीका ग्रन्थों और गद्य रचनाओं की एक झाँकी भी दिखाई है । जो इस तथ्य को उजागर करती है कि जैन रचनाकार मौलिक काव्य रचनाओं के साथ ही काव्य के विराट् स्वरूप को चरितार्थ करने में अहर्निश सन्नद्ध है ।
काव्य सृजन के लिये रचनाकार को जिन और जितनी मात्रा में अनिवार्यताओं का अनुकरण करना चाहिए, उन सभी पर जैन रचनाकार पूर्णतः ध्यान केन्द्रित किये हुए हैं ।