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क्षेत्र काल, भव और भाव के भेद से 5 प्रकार से संसार में भ्रमण कर रहे हैं, वे कर्मों को धारण करते हैं तथा जन्म-मरण के वशीभूत है, उन्हें ऋषियों ने संसारी जीव कहा है ।
जीवतत्त्व का गुणस्थानादि 20 प्ररूपणाओं के द्वारा साङ्गोपाङ्ग विशद् विवेचन करते हुए पण्डित प्रवर अपनी प्रसाद गुण पूर्ण मनोज्ञ शैली में कवित्व का सौन्दर्य सर्वत्र ही उपस्थित करते हैं । ग्रन्थकार के अनुसार मोह और योग के संयोग (निमित्त) से जीव के जो भाव होते हैं, उन्हें गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थानों की संख्या 14 है -मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, असंयत, सम्यग्दृष्टि, देशव्रती, प्रमत्तविरत,अप्रमत्तविरत,अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण,सूक्ष्मलोभ,शान्तमोह, क्षीणमोह, संयोगकेवलिजिन और अयोगकेवलिजिन; ये गुणस्थानों के नाम हैं । इन गुणस्थानों का संक्षिप्त स्वरूप भी सम्यक्त्वचिन्तामणि ग्रन्थ के द्वितीय मयूख में प्रतिष्ठित है ।
जीवसमास प्ररूपण के द्वारा जीवतत्त्व का रोचक निरूपण किया गया है-जीवों में पाये जाने वाले मादृश्य के आधार पर उनके द्वारा इस प्रकार भेद करना कि जिसमें सबका समावेश हो जावे, जीवसमास कहलाता है । जीव समास के 14 और 98 भेद भी विख्यात हैं । पर्याप्ति प्ररूपणा के द्वारा जीव तत्त्व का निरूपण करते हुए समझाते हैं कि पर्याप्ति का अर्थ पूर्णता है । घट पट आदि पदार्थों के समान जीवों के शरीर भी पूर्ण और अपूर्ण होते हैं । इसी आधार पर जीवों के आहार-शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ कही गई हैं।
. प्राण प्ररूपणा के संबंध में अपना मनोवैज्ञानिक चिन्तन प्रकट करते हुए ग्रन्थकार इस तथ्य पर पहुँचता है । जिनका संयोग पाकर जीव जीवित होते और वियोग पाकर मरते हैं, उन्हें प्राण जानना चाहिये ।" श्वासोच्छवास, तीन बल (मनोबल, कायबल, वचनबल) पांच इन्द्रिय (स्पर्शन, घ्राण, रसन, चक्षु, कर्ण) और आयु के दश बाह्य प्राण सर्वज्ञ ईश्वर के द्वारा परिलक्षित किये गये हैं । किन्तु ज्ञान-दर्शन रूप जो भाव प्राण है। उनका वियोग जीव से कभी नहीं होता है।
संज्ञा प्ररूपणा का परिचय देते हुए कहते हैं कि जिनके द्वारा जीव बाधित होकर इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति करके लोक-परलोक में निरन्तर दुःख पाते हैं, उन्हें आचार्यों ने संज्ञायें कहा है-आहार, भय मैथुन, परिग्रह के कुल 4 संज्ञाएं हैं । इन संज्ञाओं की बाधा से रहित, आत्मीय आनन्द का रसास्वादन करने वाले भाग्यशाली जीव ही पृथ्वी तल पर वंदनीय हैं। तृतीय मयूख
प्रस्तुत मयूख में गति-मार्गणा के द्वारा जीव तत्त्व का विशद विवेचन है-संसारी जीवों की परिचायक या अन्वेषण वस्तु मार्गणा कहलाती है । गति आदि निम्नलिखित चौदह मार्गणाएँ बहुश्रुत हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक । इन्हीं मार्गणाओं में संसारी जीव निवास करते हैं । गति मार्गणा
गतिकर्म के द्वारा उद्भूत जीव की अवस्था ही गति कहलाती है । जीव की 4 गतियाँ विख्यात (विश्रुत) हैं।
__ नरक गति - नरक नाम को सार्थक करने वाली जीव की अत्यन्त क्लेशदायक एवं दुःखपूर्ण स्थिति नरक गति है । इसी परिप्रेक्ष्य में नारकियों के गुणस्थान, उनकी 7 भूतियां आयु, वेदना, लेश्याओं आदि का सर्वाङ्गपूर्ण विवेचन हुआ है।