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ही प्राप्त होता है -जिसने ध्यान से मोह को भङ्ग कर लिया है और चार घातिया कर्मों को नष्ट किया है, वही केवल ज्ञान पा सकता है । सिद्धों का स्वभाव उर्ध्वगमन का होता है। अग्नि की ज्वालाओं के समान मुक्त जीव भी स्वभावत: उर्ध्वगामी होता है । क्षेत्र, काल, गति, तीर्थ, चारित्र, बुद्ध-बोधित, ज्ञान, अवगाहना, लिङ्ग, संख्या, अल्पबहुत्व और अन्तर ये 12 अनुयोग कहे गये हैं । इनके माध्यम से प्रश्नोत्तर शैली में सिद्धों का विस्तृत अवकलन प्रस्तुत रचना में समाविष्ट हैं । अर्हन्तदेव एवं आचार्यों को प्रणाम करते हुए मङ्गल-कामना के साथ ग्रन्थ का समापन किया है । सज्ज्ञान-चन्द्रिका३२ .
सज्ज्ञान-चन्द्रिका दक्ष प्रकाशों के 797 पद्यों में निबद्ध दार्शनिक रचना है । मुक्ति के साधक रत्नत्रय हैं-इस कृति में सम्यग्ज्ञान का साङ्गोपाङ्ग विवेचन होने के कारण इसका नामकरण "सज्ज्ञान चन्द्रिका" सर्वथा उचित है ।
रचनाकार ने मुक्ति के साधक सम्यग्ज्ञान सेजन-जन को अवगत कराने और विश्वकल्याण करने के लिए लक्ष्य को लेकर इस कृति का सृजन किया है । "अनुशीलन"
सज्ज्ञान-चन्द्रिका के प्रथम प्रकाश में मङ्गलाचरण स्वरूप पञ्च-परमेष्ठियों का स्तवन, सम्यग्ज्ञान की दुर्लभता, सम्यग्ज्ञान सामान्य, आत्मज्ञान, चार अनुयोगों तथा सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का निरूपण है । द्वितीय प्रकाश में मतिज्ञान, उसके चार मूलभेद 336 उत्तर भेद वर्णित हैं । इनके सूक्ष्म निरूपण हेतु लेख ने विशेषतः आचार्य वीर सेन रचित धवला टीका के उद्धरणों का अवलम्बन लिया है ।।
तृतीय प्रकाश में श्रुतज्ञान और उसके प्रभेद अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्गबाह्यों को समाविष्ट किया है । तदनुसार अङ्ग प्रविष्ट के बारह भेद और अङ्ग बाह्य के अनेक भेद हैं । श्रुतज्ञान के विस्तार को देखकर पूर्वाचार्यों ने उसे केवलज्ञान तुल्य कहा है । इसमें मात्र परोक्ष और प्रत्यक्ष का अन्तर है । यह पूर्व में मुनियों के तपोबलपूर्वक सुरक्षित रहा है परन्तु पञ्चमकाल में स्मरण शक्ति की न्यूनता से इसका क्रमशः ह्रास होता जा रहा है ।।
चतुर्थ प्रकाश में - आचार्य उमास्वामी रचित तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर श्रुतज्ञान के भेदरूप नयों का निरूपण किया गया है । पञ्चम प्रकाश में आचार्य नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक देव विरचित गोमटसार जीव काण्ड, अकलंकभट्ट रचित राजवार्तिक एवं धवला टीका के आधार पर अवधि ज्ञान के भेद-प्रभेदों का सूक्ष्म विवेचन हैं । षष्ठ प्रकाश में मनः पर्यय ज्ञान उसके भेद-ऋजुमति और विपुल मति मनः पर्यय ज्ञान का विस्तृत वर्णन किया गया है । सप्तम प्रकाश में-गुणस्थानों के क्रम से केवलज्ञान की प्राप्ति, उसका स्वरूप और सर्वज्ञ सिद्धि पर आगमोक्त प्रकाश डाला गया है । अष्टम प्रकाश में -धवला टीका के आधार पर चौंसठ ऋद्धियों की विस्तृत चर्चा है । नवम प्रकाश में-मोक्ष प्राप्ति में परम्परा से सहायक धर्मयज्ञ ध्यान के साङ्गोपाङ्ग विश्लेषण के साथ-साथ शुक्लध्यान के भेद प्रभेदों का वर्णन समाविष्ट है-जिसमें विशेषतः आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव एवं स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका का प्रश्रय लिया गया है।
अन्तिम दशम प्रकाश में-शुक्लध्यान के भेदों का सम्यक् रीत्या विवेचन सन्निविष्ट है । ग्रन्थ के उपान्त्य में लेखक ने ग्रन्थ के प्रति मंगलकामना के साथ अपना जीवन परिचय