Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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ग्रन्थकार गम्भीर सूझ-बूझ के साथ आस्रव से भेदोपभेदों का विवेचन करता है। अधिकरण नामक आस्रव के जीवाधिकरण एवं अजीवाधिकरण ये दो भेद हैं- जीवाधिकरण 8 प्रकार का एवं अजीवाधिकरण 11 प्रकार का है लेखक अभिव्यंजित करता है, पाँच प्रकार का मिथ्यात्व (एकान्त, विपरीत, अज्ञान, संशय, वैनयिक) बारह प्रकार की अविरति ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन 6 काय के जीवों की हिंसा तथा 6 इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से विरत न होना) पन्द्रह प्रकार का प्रमाद ( चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह ) पन्द्रह प्रकार का योग (चार मनोयोग, चार वचनयोग, सात काययोग) पच्चीस कषाय (क्रोधादि 16 और हास्यादि 9 मिलकर 25 ) यही उस आस्रव तत्त्व का विस्तार है तथा योग और कषाय उसका संक्षेप है ।
ग्रन्थकार ने आस्रव को विभिन्न रूपों में परखा है। गुण स्थानों की दृष्टि में प्रथम गुणस्थान में उपरोक्त सभी भेद सम्मिलित हो जाते हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असद्वेद्य, सद्वेद्य के पृथक्-पृथक् आम्रव प्रतिपादित हुए हैं । दर्शन, मोह, अकषाय मोहनीय, हास्य- वेदनीय, रति नोकषाय, अरतिनोकषाय, शोकवेदनीय, भय नोकषाय, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, चरित्रमोह आदि के प्रभावशाली एवं व्यापक आस्रवों का विशेष वर्णन, इसी मयूख में हुआ है 1
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नरका में जीव को जो विभिन्न दुःख मिलते हैं, वे ही नरकायु के आस्रव हैं क्योंकि इन्हीं कारणों से नरकायु का बन्ध होता है । माया एवं मिथ्यात्व से मिश्रित तिर्यगायु के असंख्य आस्रव हैं। मनुष्यायु में सद्गुणों से परिपूर्ण एवं व्यावहारिक जीवन में, उपयोगी समस्त गुण आस्रवों के विषय हैं । सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम-निर्जरा, बालतप ये देवायु के कारणभूत आस्रव हैं । कर्मों के अनुसार शुभनाम कर्म एवं अशुभनामकर्म के आस्रव होते हैं । तीर्थङ्कर कोटि के सर्वश्रेष्ठ आस्रव आचार्यों ने प्रतिष्ठित किये हैं। ये सभी के लिए अनुकरणीय हैं। नीचगोत्र में प्रेरित करने वाले निन्दा, अनाचार आदि दुर्गुणों से परिपूर्ण नीचगोत्र कर्म के आस्रव है । किन्तु इसके विपरीत लोकोत्तर गुणों से सुशोभित, धर्मात्माओं के द्वारा आदृत उच्चगोत्रकर्म के आस्रव हैं। दूसरों को बाधित करने वाले, धर्म स्थलों के विनाशक और अन्यायपूर्ण अन्तराय कर्म के आस्रव कहे गये हैं। इस प्रकार विभिन्न आस्रवों का दिव्यदर्शन कराने के उपरान्त उनकी सार्थकता और हेयता की समीक्षा भी करते हैं किन्तु औचित्य बताते हुए कहते हैं कि संसार सागर के पार होने के इच्छुक शीघ्र ही दोनों प्रकार के आस्रवों को त्याग देंवे, क्योंकि आस्रव के रहते हुए हित का मार्ग (मोक्ष) प्राप्त नहीं होता ।
सप्तम मयूख
सप्तम मयूख में बन्ध तत्त्व का निर्देशन है आत्मा का कर्मों के साथ नीरक्षीरवत् एक क्षेत्रावगाह है, उसे आचार्यों ने बन्ध कहा है । अर्थात् जीव और पुद्गल की कोई अनादि अनन्त वैभाविकी शक्ति है, उस शक्ति के स्वभाव और विभाव नामक परिणमन प्रसिद्ध है। जीव और पुद्गल को उस वैभाविकी शक्ति का जो विभाव परिणमन् है, वही बन्ध का कारण है । बन्ध को जिनेन्द्र भगवान् ने चार भेदों में विभक्त किया है
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1. प्रकृति बन्ध, 2. स्थिति बन्ध, 3. अनुभाग बन्ध, 4. प्रदेश बन्ध ।
प्रकृतिबन्ध का लक्षण उसके मूलभेदों मूलकर्मों के उदाहरण, घाति- अघाति कर्मों का वर्णन तथा ज्ञानावरणादि कर्मों का सामान्य स्वरूप चित्रित हुआ है । ज्ञानवरण के 5 भेदों दर्शनावरण के 9 भेदों, वेदनीयकर्म के दो भेद, मोहनीय कर्म के भेदों का व्यापक वर्णन