Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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हिन्दी पद्य - तपन ताप से तप्त हुआ तन स्वेद कणों से रंजित है रज कण आकर चिपके फलतः स्नान बिना मल संचित है मल परीषह तब साधु सह वहा सुधापान सह सतत करें नीरस तक सम तन है जिसका हम सबका सब दुरित हरें
आचार्य जी स्पष्ट करते हैं कि इस मल से प्यार करना व्यर्थ है, जो इसमें लगाव रखते हैं - वे रागी और भोगी कहलाते हैं । साधुजन तन को नीरस वृक्ष के समान समझकर मल परित्याग करते हैं इसीलिए विकार रहित और व्रती होते हैं । परिभव परीषह .जय का प्रतिपादन और उसकी व्यापकता का मनोवैज्ञानिक विश्वलेषण भी हुआ है । ब्रह्मचर्ययुक्त जो ऋषिजन अपने आशंसकों और निन्दकों के प्रति समान भाव रखते हैं । आत्मस्तुति सुनकर भी जिनका मन मान-मद से कलुषित नहीं होता तथा वन्दित न होने पर मन में कोई हीन भावना नहीं लाते-वे ही बुधजन परिभव परीषह जय करते हैं । उनका मन्तव्य है छोटे-बड़े जीवों के प्रति समानता और मान-अपमान से उदासीन रहना । इस प्रकार अपने मन को कलुषित नहीं होने देते सदैव पवित्र बनाये रहते हैं । प्रस्तुत पद्य में इसी तथ्य का समावेश हुआ है -
जगति सत्वदलः सकलश्चलः परिमलो विकल: सकलोचलः ।
समगुणैर्भरितो मत आर्यक गुरुरयं सलघु व॑वधार्यते ॥ हिन्दी पद्य - अमल समल है सकल जीव ये, ऊपर भीतर से प्यारे, अगणित गुणगण से पूरित सब “समान" शीतल शुचि सारे मैं गुरु तूं लघु फिर क्या बचता परिभव-परिषह बुध सहे, आर्य देव अनिवार्य यही तव मत गहते सुख से रहते 151 परिभव परीषह को सत्कार पुरस्कार परीषहजय भी कहा गया है ।
ऐसे मुनिवर श्रुत के मर्मज्ञ होते हैं सरस्वती उनके मुख में निवास करती है । शास्त्र रूपी सागर का मन्थन करने वाले वे तो व्याकरण तथा न्याय आदि शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं और तप करने में समर्थ हैं । उन्हें कदापि अहङ्कार उत्पन्न ही नहीं होता बल्कि वे विनम्र बने रहते हैं । इस प्रकार मानरहित, स्वार्थहीन होकर अपनी रसमयी वाणी का सांसारिक प्राणियों को आस्वादन कराने वाले वे प्रज्ञा (ज्ञान) परीषह जय करते हैं । ये महापुरुष जिनश्रुत के अनुवादक (करने वाले) और स्याद्वाद के व्याख्याकार होते हैं तथापि पूर्ण ज्ञानप्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं विनम्रभाव धारण करते हुए ज्ञान परीषह सहन कर रहे साधुओं के प्रति आचार्य प्रवर की सहानुभूति द्रष्टव्य है -
स्वसमयस्य सतोप्यनुवादक : समयमुक्तितयाजितवादकः। __ परिवेदन्न मुनिर्मनसाक्षर मसिनिरक्षर एष तु साक्षरः ॥ हिन्दी पद्य - अवलोकन-अवलोड़न करते जिनश्रुत के अनुवादक हैं वादीजन को स्याद्वाद से जीते पथ प्रतिपादक हैं । ज्ञानपरीषह सहते सुख से कभी न कहते हम ज्ञानी ज्ञान कहाँ है तुम में इतना महा अधम हो अज्ञानी ॥