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"संतप" से शुद्धात्म की प्राप्ति होती है मात्रामों का पालन करनी कालो, आलापासदि तप से शरीर को दग्ध करनो वाले योगी आत्माज्जायी अहिंसाक होते हैं । लप्पा, तृष्ण्या का मायाक। है । इससे सम्यक्त्व बोध होता है ।
साधु की समाधि करने का मुख्य लक्ष्या सॉस्मार स्पो म्युबला होन्सा है ॥ स्मामी चीत्सन्म म्मुकिला | के अभिलाषी होते हैं । ज्ञान और वैराग्या की दिव्या ज्योति जाग्रस्त करने वाला मुन्ति ही सामाधिस्थय । होता है । हम कह सकते हैं कि साधुओं का रत्नाक्रव्य में आवारियाल होन्ना ह्ली "स्माथ्यु स्साम्माधि सुधा साधन है "
परोपकार में दत्तचित्ता होना और स्मायुओं की सोच्या शुश्रुष्क्षा करना “याकृल्याहै ॥ __ वर्तमान, भूत, भविष्य संबंधी जो गातापाता भमाका है बो शुद्धात्म्मा के साणा झानियों को निरत हैं । जितेन्द्रिय, निरंजना, जिातकाम्मा, निसर्मोही और ध्यात्तिच्या कार्गों को नष्ट करने बालो अर्हन्त में श्रद्धा रखना, अनुरक्ता होन्ना" आर्हन्तामात्तिक"" है ॥ आता: आदिनाथ्य की स्तुति कारमा ही श्रेयस्कर है।
आचार्य सबको समान रूप से अमृतपान कराता है ॥ बह आझामान्धाकार को दिल्यास के अञ्जन से नेत्रों को प्रकाशित करता है ॥
"आचार्यस्य सदा भाकित भक्कत्ल्या हिय्य कसोम्मि माम् ॥
आचार्यस्य मुदाशक्तिा युक्त्या व्याय्ो गुणोऽम्मित्ताम्म् आचार्य प्रवर का मन्तव्य है - कि आत्म्मज्ञाना कसानो व्याली गोपीर, वौयिान, सार्वीझा,, मावापीमा | नाशक, कल्याणपथ पारगामी, शिक्षागुरु की संस्तुत्या है ॥
ज्ञान प्राप्ति और चेतना जागृति के ल्लिएए जिन्नाम्गाम्म रूपी सध्या का पान्म स्सादैया कारमा च्याहिएगा। शुद्धात्मवान साधु आगम को सम्मझझकर, कल्याणापाथा पार प्राशास्त्ता होना है और केवाता झास प्राप्त । करता है । इस प्रकार श्रद्धापूर्वक आगाम्मा का ज्ञाता सांसारिक सामाग्या को ल्याया देना है ॥
हृदय की दुर्वेदना "विम्मलावश्यक से दूर होती है - सॉोदना ज्वाध्यात्म हो जाती है, अत: प्रतिक्रमण को धारण करना चाहिए सांसारिक विषादयों में प्रावृत्ति नम करतो झुए मिजामुम्माका । जागृति की प्रेरणा सद्धर्म प्रभावना है। योगी दुःखी, निर्धना, आस्पाहाय्य के प्रति स्मशासम्भूति रखी से उनके कष्टों का निवारमा करने से साभाकमा प्रास्फुरित होती है- समार स्मामार को पार करने के लिये धर्म के सहारे सो ही मोक्षा रूपी दास्था समाफलाला स्पोम्पाचा है -
संसारागाध पीठान कराज्जिातादेहिमाम् ॥
दासानगारपालानां सामाजिः साहिमाम् ॥" हृदय में वात्सल्य भाव के आते ही क्रूर प्रमाकान्ताएँ नष्ट हो जाती है यात्माल्या की विमलाला एवं प्रभा से सम्पूर्ण लोक दैदीप्यमान होते हैं-वैल्नोत्कटा पूच्या जिनादेवा में मात्सलायमान की प्रध्यामला | थी इसीलिए उनके प्रवचनों में विश्वबन्धुत्व और मैशी काा उपादेशा स्मपाहिला होला था ।
इस प्रकार भावनाशतक में उक्त स्मोल्लह मायामामों का ससाकीम स्पारणमा काव्यात्म्मका विश्लोषणा ।
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मूकमाटी महाकाव्य
दिगम्बर जैन संत आचार्यप्रवर विद्यासागार जी द्वारा "मूकम्मासी"" महावयाळ्य'' कमा स्यूजाम !