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श्रम + युच् - श्रमण । श्रम = तपस्या,
'श्रमेण युक्तः श्रमणः
अर्थात् तपस्या से युक्त अथवा समताभाव से परिपूर्ण (हृदय) श्रमण होता है । अतः प्रस्तुत शतक का नामकरण सर्वथा उपयुक्त है । शतककार ने श्रमणों के हितार्थ यह कृति उन्हीं को समर्पित की है और शुद्धात्म की कामना भी की है ।
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श्रमण स्वभाव
विषय वस्तु - श्रमणों की जीवन चर्या पर प्रकाश डाला गया है - से ही मान-अपमान से परे अपने चित्सरोवर में अवगाहन करके आनन्दानुभूति करता है । वह पाप-पुण्य के प्रति उदासीन शुभाशुभ कर्मों से विरत होकर विशुद्ध परिणति के लिए प्रयत्नशील रहता है । वह वस्त्रादि अलङ्करणों से दूर तपश्चरणपूर्वक निजानुभव से दीप्त होता है । क्षुधादि परीषहों को जीतकर वीतरागोन्मुखी होता है । सच्चा योगी बाह्य परिग्रहादि से दूर रहता है और आत्म द्रष्टा होता है । अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्वत करने वाला ही सच्चा यती है
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"यो हीन्द्रियाणि जयति विश्वयत्नेन स ज्ञायते यतिः मुनिरयं तं कलयति शुद्धात्मानं च ततोऽयति 4 यति रागादिभावों से परे रहकर ज्ञानीमुनीश्वर से सम्पर्क रखता है ।
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मुमुक्षुसाधक संसार में रहकर उससे विरत रहता है । वह चेतन मन को तन से भिन्न समझता है और तन में कोई आसक्ति नहीं रखता तथा तन के मद से सर्वथा दूर रहकर मोक्ष पक्ष पर अपने मन को अग्रसर करता है । संसार में यदि कोई सार है तो वह समयसार ही है और यही मुक्ति का साधन है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक धर्म है । महाश्रमण दशधर्मों का पालन करते हैं। सच्चे साधक यश कीर्ति के आकाँक्षी नहीं होते वे सोचते हैं - निजामृत पान में जो आनन्द है, वह बाह्य पदार्थों में कैसे प्राप्त हो सकता है । इसीलिए मुमुक्षु साधक भावश्रुत का ही आश्रय लेकर निजानुभूति का रसास्वादन करता है । सच्चा साधक अनन्तबल, अनन्तसुख की कामना करते हैं - केवल बाह्य दिगम्बरत्व मोक्ष का हेतु नहीं होता, इसके लिए मुनि को मन, वचन, काय से पवित्र रहकर समता रूपी सुधा का सेवन करना है यह भव्य की प्रथम पहचान भी है । सप्त तत्त्वों के चिन्तन से ही आत्मानुभूति का निर्झर प्रवाहित होता है । अतः साधक को निरन्तर चिन्तनरत होना चाहिये ।
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उपर्युक्त विवेचन से युक्त श्रमणशतकम् श्रमणों के जीवनादर्शों से परिपूर्ण रचना है और उन्हीं के हितार्थ समर्पित की गई है ।
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न मनोऽन्यत् सदा नयदृशा सह तत्त्वसप्तकं सदानय । यदि न त्रासदाऽनयः पन्थास्ते स्वरसदा नय: 165
भावनाशतकमू६
जिनवाणी माता के भण्डार का अमूल्य रत्न आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित 'भावनाशतकम् " है । यह सौ पद्यों में निबद्ध आध्यात्मिक काव्य है। जैन साहित्य में विख्यात, तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध की कारणभूत सोलह भावनाओं का विवेचन होने के कारण इस शतक का नाम 'भावना शतकम् " है ।
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करता है 17
"भावना" शब्द का अर्थ है "ऐसा चिन्तन जो तीर्थंकरत्व की भूमिका का निर्माण