Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
के प्रभाव के कारण जो लोग मान पाने की आकांक्षा से धन और ज्ञान का दान करते हैं, धर्म से दूर हो जाते हैं
धनी तु मानाय धनं ददाति, धनाय मानाय धियं तु श्रीमान् । प्रायः प्रभावोस्तु कले: किलायं दूरोस्तु धर्मो नियमाच्च ताम्याम" ॥
82
गृहस्थ के लिए पूर्ण वैराग्य की साधना असम्भव है । तीवरागता का पूर्ण अनुभव जो तन से मुक्त हो जाते हैं, वे ही विभाव से पूर्णतः मुक्त होते हैं । और स्वभाव से मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं । आचार्य श्री का तर्क है कि श्रृंगार रस कवियों की कल्पना में श्रेष्ठ है पर आध्यात्मिक उन्नति के लिए शान्त रस की शरण लेना अनिवार्य है ।
जिस प्रकार पवन के तीव्र वेग की स्थिति में मयूर का पुच्छभार गमन में बाधक बनता है, उसी प्रकार मुनि मार्ग के अनुयायियों के लिए अणुमात्र का परिग्रह भी विध्नकारक है !
रचनाकार स्वतः अपने को अहंकार से पूर्णत: विरत रहने को संकल्पित हैं । पाप से पाप मिट नहीं सकता वह तो पुण्य से ही मिटता है मल युक्त वक्ष मल से नहीं जल से ही धुलता है
C
पापेन पापं न लयं प्रयाति पुनस्तु पुण्यं पुरुषं पुनातु ।
मलं मनालमलं त्ययं कृत बिना विलम्बेन जलेन याति ॥ 162
अतः मन को हमेशा पापादि से विरत रखना चाहिये ।
संसार में अभयदान की महत्ता सर्वोपरि है विनम्रता पूर्वक दिया गया दान श्रेष्ठ है, जिस गुरु के शिष्यों में आपसी वैरभाव हो, वह उसी प्रकार चिन्तित रहता है, जिस प्रकार दो-दो पत्नियों वाला गृहस्थ मन के प्रतिकूल विचारों वाली स्त्रियों से दुःखित होता है ।
सम्पूर्ण स्वर्ग, मणि, सम्पत्ति को त्यागने बाद भी उनमें मन लगाने वाले की स्थिति कांची त्यागने पर भी जहर धारण करने वाले सर्प के समान है ।
सभी सुखों में आत्मिक सुख उत्तम है । गतियों में पञ्चम गति उत्तम है । सभी ज्ञानों में ज्ञान - ज्योति ही सुखद है । आचार्य श्री का मन्तव्य है कि मति के अनुसार गति और गति के अनुसार मति का नियम शाश्वत है । श्वान अपने उपकार के प्रति कृतज्ञ होता है, वह अत्यल्प निद्रावान भी है परन्तु स्वजाति से विद्वेष रखता है - यह विधि की विडम्बना ही है।
सम्पूर्ण शास्त्र शब्दों के पात्र हैं और मानव गात्र मल का पात्र है इसलिए इसे शुचिता का पात्र बनाओ ।
इस प्रकार " सुनीतिशतक" सुनीतियों का सुन्दर संग्रह है ।
श्रमण शतकम्
श्रमण शतकम् " शतक काव्य" है ।
आकार
श्रमण शतकम् सौ पद्यों में निबद्ध है ।
雪季
इस कृति का नामकरण 'श्रमण शतकम् इसलिये किया गया है, क्योंकि
नामकरण
इसमें दिगम्बर जैन श्रमणों की चर्या का विवेचन हुआ है।