Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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का विवेचन किया गया है। पूर्व जन्म के सभी आख्यान नायकों के जीवन में कलात्मक शैली में गुम्फित हुए हैं । दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन से यत्र-तत्र काव्य रस में न्यूनता आ गई है । पर कवियों ने आख्यानों को सरस बनाकर इस न्यूनता को सम्भाल भी लिया है ।
9. संस्कृत के जैन कवियों की रचनाएँ श्रमण संस्कृति के प्रमुख आदर्श स्याद्वाद विचार समन्वय और अहिंसा के पाथेय को अपना सम्बल बनाते हैं । इन काव्यों का अन्तिम लक्ष्य प्रायः मोक्ष प्राप्ति है । इसलिए आत्मा के उत्थान और चरित्र विकास की विभिन्न कार्य भूमिकाएँ स्पष्ट होती हैं ।
10. व्यक्तियों की पूर्णसमानता का आदर्श निरूपित करने और मनुष्य- मनुष्य के बीच जातिगत भेद को दूर करने के लिए काव्य के रस - भावमिश्रित परिप्रेक्ष्य में कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद एवं कर्तृत्ववाद का निरसन किया गया है। वैभव के मद में निमग्न अशान्त संसार को वास्तविक शान्ति प्राप्त करने का उपचार परिग्रह त्याग एवं इच्छा नियन्त्रण निरूपित करके मनोहर काव्य शैली में प्रतिपादन किया है ।
11. मानव सन्मार्ग से भटक न जाये इसलिये मिथ्यात्व का विश्लेषण करके सदाचार परक तत्त्वों का वर्णन करना भी संस्कृत जैन कविया का अभीष्ट है । यह सब उन्होंने काव्य की मधुर शैली में ही प्रस्तुत किया है ।
12. जैन संस्कृत कवियों की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वे किसी भी नगर का वर्णन करते समय उसके द्वीप क्षेत्र एवं देश आदि का निर्देश अवश्य करेंगे।
13. कलापक्ष और भावपक्ष में जैन काव्य और अन्य संस्कृत काव्यों के रचनातंत्र में कोई विशेष अन्तर नहीं है पर कुछ ऐसी बातें भी है जिनके कारण अन्तर माना जा सकता है । काव्य का लक्ष्य केवल मनोरञ्जन कराना ही नहीं है प्रत्युत किसी आदर्श को प्राप्त कराना है । जीवन का यह आदर्श ही काव्य का अंतिम लक्ष्य होता है । इस अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति काव्य में जिस प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है । वह प्रक्रिया ही काव्य की टेक्नीक है ।
कालिदास, भारवि, माघ आदि संस्कृत कवियों की रचनाओं में चारों और से घटना, चरित्र और सम्वेदन संगठित होते हैं तथा यह संगठन वृत्ताकार पुष्प की तरह पूर्ण विकसित हो प्रस्फुटित होता है और सम्प्रेषणीयता केन्द्रीय प्रभाव को विकीर्ण कर देती है । इस प्रकार अनुभूति द्वारा रस का सञ्चार होने से काव्यनन्द प्राप्त होता है और अन्तिम साध्य रूप जीवन आदर्श तक पाठक पहुँचने का प्रयास करता है । इसलिए कालिदास आदि का रचनातन्त्र वृत्ताकार है । पर जैन संस्कृत कवियों का रचनातन्त्र हाथी दाँत के नुकीले शङ्कु के समान मसृण और ठोस होता है । चरित्र, संवेदन और घटनाएँ वृत्त के रूप में सङ्गठित होकर भी सूची रूप को धारण कर लेती हैं तथा रसानुभूति कराती हुई तीर की तरह पाठक को अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचा देती हैं ।
14. जैन काव्यों में इन्द्रियों के विषयों की सत्ता रहने पर भी आध्यात्मिक अनुभव की संभावनाएँ अधिकाधिक रूप में वर्तमान रहती हैं । इन्द्रियों के माध्यम से सांसारिक रूपों की अभिज्ञता के साथ काव्य प्रक्रिया द्वारा मोक्ष तत्त्व अनुभूति भी विश्लेषित की जाती है। भौतिक ऐश्वर्य, सौन्दर्य परक अभिरुचियाँ, शिष्ट एवं परिष्कृत संस्कृति के विश्लेषण के साथ आत्मोत्थान की भूमिकाएँ भी वर्णित रहती हैं ।