Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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हिन्दी में निबद्ध काव्य कृतियाँ - मूक माटी (महाकाव्य) नर्मदा का नरम कङ्कर (कविता संग्रह), डूबोमत लगाओ डुबकी (कविता संग्रह) आदि ।
आचार्य श्री ने जैन संस्कृति, दर्शन और साहित्य के अनेक ग्रन्थों का हिन्दी पद्यानुवाद किया है - जिनमें प्रमुख कतिपय ग्रन्थ निम्नलिखित हैं - (1) योगसार (2) इष्टोपदेश
(3) समाधितन्त्र (4) एकीभावस्तोत्र (5) कल्याणमन्दिर स्तोत्र (6) जैन गीता (7) निजामृत पान (8) कुन्द कुन्द का कुन्दन (9) रयण-मञ्जूषा (10) द्रव्य संग्रह (11) समन्तभद्र की भद्रता (12) गुणोदय आदि
बीसवीं शताब्दी के मूर्धन्य मनीषियों में अग्रगण्य चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यासागर जी अपनी असाधारण काव्य साधना के माध्यम से नित्यप्रति वाग्देवी की आराधना करते
आचार्य प्रवर विद्यासागर जी महाराज की शिष्य परम्पराः प्रमुख साधुसाध्वियाँ
पूज्य मुनि सर्व श्री समय सागर, योग सागर, क्षमासागर, सुधासागर गुप्तिसागर, प्रमाण सागर, चिन्मय सागर. नियम सागर चरित्र सागर, स्वभाव सागर. समाधिसागर, आर्जव सागर. मार्दव सागर, पवित्रसागर, पावनसागर, उत्तम सागर, सुखसागर एवं दर्शनसागर जी आदि।
पूज्य ऐलक सर्व श्री दयासागर, निश्चयसागर, अभयसागर, उदारसागर, वात्सल्य सागर, एवं निर्भयसागर जी आदि ।
पूज्य क्षुल्लक सर्व श्री ध्यानसागर, नयसागर, प्रसन्नसागर, गम्भीरसागर, धैर्यसागर, एवं विसर्ग सागर जी आदि ।
इसी प्रकार आपके द्वारा दीक्षित परमविदुषी आर्यिका माताओं के नामों की सुदीर्घ श्रृंखला सम्यक्रत्नत्रय की निरन्तराय साधना में निरत हैं । आचार्य श्री के चातुर्मास वर्षायोग :
आचार्य श्री के चातुर्मास वर्षायोग निम्नलिखित स्थानों पर हुए हैं -
अजमेर (राजस्थान), मदनगंज-किशनगढ, नसीराबाद (उ.प्र.) ब्यावर (राजस्थान), फिरोजाबाद (उ.प्र.) कुण्डलपुर (दमोह), रेशंदीगिरी/नैनागिरि (छतरपुर) मढ़िया जी (जबलपुर) मुक्तागिरी (बैतूल) थूबोन (गुना)
भारतीय संस्कृति के उन्नायक, युगपुरुष तपस्वी आचार्य श्री के साहित्य पर शोधार्थियों ने पी.एच.डी. उपाधियाँ भी प्राप्त की हैं । निरञ्जन शतकम्
आचार्य प्रवर विद्यासागर जी द्वारा विरचित निरञ्जन शतकम् “सौ पद्यों में निबद्ध शतक काव्य हैं। "अञ्जन" शब्द में “निर्' उपसर्ग के संयोग से “निरञ्जन" शब्द की निष्पत्ति होती है । जिसका अर्थ है - सभी प्रकार के अञ्जन (विकारों) से पूर्णत: मुक्त आत्मा । चेतना की विशुद्धावस्था ही निरञ्जनतत्त्व है । मिथ्यात्व से रहित, निष्कलङ्क चिद्रूप परमात्म