Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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बालक विद्याधर जी में विरक्ति के बीज बचपन से ही अंकुरित होने लगे थे, चरित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के उपदेशामृत से विरक्ति भाव के पौधे का सिञ्चन हुआ फलत: अध्यात्म पथ पर अग्रसर होने का सङ्कल्प लेकर आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से खानिया (जयपुर) में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। उत्कट ज्ञान पिपासा आपको अजमेर स्थित आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के समीप खींच लाई । विद्याधर के रूप सुयोग्य शिष्य पाकर आचार्य ज्ञानसागर जी अभिभूत हो उठे। आपकी अप्रतिम योग्यता का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने आपको आषाढ़ सुदी 5 संवत् 2025 (30 जून रविवार सन् 1968 ई.) को अजमेर में ही दैगम्बरी दीक्षा प्रदान की। आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर आचार्य ज्ञानसागर ने मगशिर कृष्ण 2 संवत् 2029 (21 नवम्बर, बुधवार सन् 1972 ई.) को नसीराबाद (राजस्थान) में आत्मरत्नत्रय निधि रक्षार्थ "आचार्य" पद से अलङ्कत किया और आचार्य विद्यासागर जी के निर्देशन में सल्लेखना ग्रहण की । आचार्य विद्यासागर जी ने अपने गुरु की सेवा जिस तन्मयता और तत्परता से की, वह दृश्य नयनाभिराम है ? इस प्रकार बालक विद्याधर से आचार्य विद्यासागा बनने की ये कथा अत्यन्त रोचक है।
आपके गृहत्याग के पश्चात् आपके माता-पिता, भाइयों और बहिनों ने भी योग मार्ग स्वीकार किया और दीक्षाएं ग्रहण की । आचार्य श्री के अतिरिक्त तीन भाईयों में से एक श्री महावीर अष्टगे विरक्त अवस्था में "सदगला" में ही रहते हैं और दोनों अनुज मुनि समय सागर जी एवं मुनि योगसागर जी के नाम से दीक्षित होकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त हैं। दोनों बहिनों ने भी किशोरवय में ही योग मार्ग स्वीकार किया - ये आर्यिका प्रवचनमति
और आर्यिका नियममति के रूप में प्रसिद्ध हैं । धन्य है यह परिवार जो पूर्ण विरागी और जिनपथगामी है । इस प्रकार महामुनि विद्यासागर जी सपरिवार जैन दर्शन के अध्ययन-मनन जिनवाणी के प्रचार-प्रसार और साधना में संलग्न हैं। .
आचार्य प्रवर की मातृभाषा कन्नड़ है । यद्यपि आपकी शालेय शिक्षा अपर्याप्त ही है किन्तु वस्तुतः स्वतः ज्ञान का सागर आपके पास आ गया, प्रतीत होता हैं । आपने जहाँ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में प्रौढ़-पाण्डित्य प्राप्त किया है वहीं दर्शन इतिहास, संस्कृति, साहित्य, न्याय, व्याकरण, मनोविज्ञान और योग विद्याओं में अनुपम वैदुष्य हासिल किया है।
पूर्वभव के संस्कार वश अल्पवय में ही सांसारिक सुखों और भोगों से विरक्त होकर दैगम्बरी मुद्रा धारण करने वाले आचार्य श्री के प्रवचनों में ज्ञान गङ्गा की धारा अबाध गति से प्रवाहित होती है - आपकी प्रवचन शैली प्रभावशाली है । स्वसाधना में लीन, ज्ञानाभ्यास में प्रवृत्त महनीय मुनि विद्यासागर की कृतियों में उनके व्यक्तित्व की दिव्यता दृष्टिगोचर होती है।
आप संस्कृत, हिन्दी और प्राकृत आदि भाषाओं में ग्रन्थ रचना करके भगवती भारती की आराधना में संलग्न हैं - आपके द्वारा रचित संस्कृत भाषा में निबद्ध ग्रन्थ-रत्न निम्नलिखित है - श्रमण शतकम्, निरञ्जन शतकम्, सुनीति शतकम्, भावनाशतकम्, परीषहजयशतकम् शारदास्तुतिरियम् ।
प्राकृत रचना - विजाणुवेक्खा