Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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नगर के अतिवेग राजा की रानी प्रियकारिणी ने भी ( श्रीधरा के जीव को) “. 'रत्नमाला कन्या को जन्म दिया। युवती होने पर इस बालिका का विवाह वज्रायुध के साथ किया गया । यशोधरा के जीव ने भी वज्रायुध और रत्नमाला के पुत्र "रत्नायुध" के रूप में जन्म लिया ।
इस प्रकार चक्रायुध के सुखद समय में ही एक दिन उद्यान में पिहिताश्रव मुनि पधारे। राजा अपराजित ने वहाँ आकर प्रणाम करके मुनि से जब अपने पूर्व वृत्तान्त सुने तो मन में वैराग्य भाव जाग उठा और वे दिगम्बर मुनि बन गये । यहाँ राज्यपद पर उनके पुत्र चक्रायुध को प्रतिष्ठित किया गया । वह सत्यवादी न्यायप्रिय, पराक्रमी और प्रजावत्सल एवं धार्मिक गुणों से संयुक्त था ।
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सप्तम सर्ग एक दिन दर्पण में मुँह देखते हुए राजा चक्रायुध ने अपने माथे पर सफेद केश पाया । उसे वृद्धावस्था के आगमन की सूचना मानकर सोने लगा यह सौन्दर्य, शरीर, भोगविलास । अस्थिर और नश्वर है शरीर और आत्मा पृथक्-पृथक् हैं । मनुष्य इन्हें एक मानकर मोहग्रस्थ है किन्तु शरीर का सुख नश्वर है । और आत्मा शाश्वत है । इसलिए आत्मसुख की प्राप्ति का उपाय करना चाहिये और भगवान् "अर्हन्त" में मन लगाना चाहिये। | इन्हीं वैराग्यवर्धक विचारों से प्रेरित होकर उसने राज्य पुत्र वज्रायुध को सौंप दिया और स्वयं वन में अपराजित मुनि की शरण में आकर धर्मोपदेश और मुक्ति के उपाय पूँछने लगा ।
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अष्टम सर्ग - अपराजित मुनिराज द्वारा राजा चक्रायुध को धर्माचरण के उपदेश दिये गये। जिनमें जीव- अजीव उसके भेद, योनि, कर्म, उनके भेदों, राग-द्वेष आत्मा उसकी अवस्था, | योग, गति, ध्यान अहङ्कार त्याग आदि की व्यापक व्याख्या और समीक्षा की गई है । उक्त विषयों पर मुनि के पाण्डित्यपूर्ण उपदेश से प्रभावित होकर राजा चक्रायुध ने सर्वस्व त्याग कर मुनिवेष धारण कर लिया ।
नवम सर्ग - मुनि के रूप में उसने समस्त सांसारिक वस्तुओं एवं मयूरपिच्छी तथा कमण्डलु के प्रति भी उदासीन वृत्ति अपना ली । सत्य, अहिंसा, क्षमा, ब्रह्मचर्य को धारण करके आत्मध्यान में रम गया नश्वर शरीर की चिन्ता न करते हुए गहन साधना की । वह परिग्रहरहित, एकान्तवासी और स्वाध्यायी हो गया और उसने कैवल्य ज्ञान भी प्राप्त कर लिया ।
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इस प्रकार एक सरल चित्त व्यक्ति भद्रमित्र आत्मा से परमात्मा बन गया । सम्यक्त्वसारशतकम् - "
आकार
यह एक शतक काव्य होने के कारण सौ पंद्यों में निबद्ध रचना है।
नामकरण 24 - इसमें जिनशासन की आधारशिला " सम्यक्त्व' 25 का विशद् विवेचन आद्योपान्त हुआ है तथा आत्मा की अवस्था के रूप में चित्रित एवं प्रत्येक जैन धर्मानुयायी के लिए अनिवार्य सम्यक्तव ही प्रस्तुत रचना का केन्द्र होने के कारण " सम्यक्तव सारशतकम्" नाम सर्वथा सार्थक है ।
प्रयोजन - मानवमात्र के हितार्थ उन्हें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के रहस्य से अवगत कराके - " भव्यजीव प्रबोधनाय बोधाय च निजात्मनः " ( सभी भव्य जीवों के कल्याण एवं (अपने हित के लिए भी) प्रस्तुत शतक काव्य की रचना की गई है । कवि ने ग्रन्थ के अन्त