Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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दूर हो गया और स्त्री कुटिलता पर विचार किया तत्पश्चात् वह सर्प जयकुमार के पास जाकर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हुए उनका भक्त बन गया ।
तृतीय सर्ग - एक दिन काशी नरेश अकम्पन का दूत जयकुमार के पास आता है और उन्हें काशी नरेश का पत्र देता है, जिसमें अकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के स्वयंवर में जयकुमार को आमन्त्रित किया था । वह दूत सुलोचना के रूप सौन्दर्य एवं गुणों का भावपूर्ण बखान करता है । तत्पश्चात् स्वयंवर मण्डप के भव्य और आकर्षक प्रसंग को उपस्थित करता है और अपने वक्तव्य के अन्त में निवेदन करता है कि सुलोचना आपके प्रताप, गुण एवं सौन्दर्य से प्रभावित हैं क्योंकि मेरे यहाँ (हस्तिनापुर) प्रस्थान करते समय वह आशान्वित हो उठी थी, इसलिए मेरा अनुमान है वह आपको ही वरण करेगी । इस प्रकार सन्देशवाहक द्वारा उत्कण्ठित जयकुमार पुलकित हो गया और ससैन्य काशी को प्रस्थित हुआ ! वहाँ पहुँचने पर अकम्पन ने जयकुमार का भव्य (गर्मजोशी से) स्वागत किया ।
चतुर्थ सर्ग - सुलोचना के स्वयंवर का समाचार अयोध्या के अधिपति भरत को ज्ञात हुआ । उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अर्ककीर्ति को इस समाचार से अवगत कराया, जिससे सुलोचनास्वयंवर में पहुंचने का निश्चय भी किया किन्तु सुमति मन्त्री बिना निमन्त्रण वहाँ पहुँचना उचित नहीं समझता इसके विपरीत दुर्मति मंत्री स्वयंवर में सम्मिलित होने के पक्ष में तर्क देता है। तत्पश्चात् अर्ककीर्ति अपने साथियों सहित काशी पहुँचे । वहाँ महाराज अकम्पन ने नम्रता पूर्वक स्वागत किया । कवि ने सर्ग के अन्तिम पद्यों में शरद ऋतु का भावपूर्ण वर्णन भी किया है।
पंचम सर्ग - सुलोचना स्वयंवर में अनेक राजाओं, राजकुमारों और दिक्पालों ने उपस्थित होकर समारोह को भव्य और आकर्षक बना दिया। वहाँ रूपसौन्दर्य, तेजस्विता एवं प्रतिभा के धनी जयकुमार के पहुंचने से आश्चर्यमिश्रित प्रतिक्रिया हुई । तत्पश्चात् कवि ने विद्यादेवी को उत्कृष्ट गुणों एवं नखशिख सौन्दर्य की प्रतिकृति निरूपित किया है । वह सुलोचना को विविध राजाओं के कुल, शील, वैभव आदि का परिचय कराने के लिए नियुक्त की गई। यहाँ सुलोचना को भी काम के नृत्य की रङ्गभूमि, चन्द्रमा की निर्मल कला, अमृतनदी आदि शब्दों से अलङ्कत किया गया है । कवि की कल्पनानुसार- विधाता ने तीन लोक का सार ग्रहण करके सुलोचना की सृष्टि की है । इस प्रकार उक्त संज्ञा प्राप्त वह कञ्चुकी द्वारा निर्दिष्ट पथ से अपनी सहेलियों के साथ जिनेन्द्र पूजन करके सभा मण्डल में उपस्थित हुई।
षष्ठ सर्ग - सुलोचना को विद्यादेवी द्वारा सर्वप्रथम विद्याधरों, नागकुमारों का परिचय दिया गया । इसके पश्चात् उसने अर्ककीर्ति, कलिंग, कामरूप, कांची, काविलराज, अंग, बंग, सिन्धु, काश्मीर, कुरुदेश, कर्णाटक, मालव, कैरव आदि देशों से आये हुए राजाओं का क्रमशः बल-विक्रम, वैभव, लावण्य, प्रभाव और प्रतिष्ठा आदि का सविस्तार बखान किया । तदुपरान्त जब सुलोचना जयकुमार के समीप पहुँची और तभी विद्यादेवी (उसका चित्त अनुकूल देखकर जयकुमार को वरण करने के लिए) उसके रूप सौन्दर्य, पराक्रम वंश, यश, प्रभाव आदि का बहुविध विश्लेषण करने लगी । इस प्रकार विद्यादेवी द्वारा प्रेरित की गई तथा जयकुमार में पहले से ही अनुरक्त सुलोचना उसे वरण कर लेती है । जिससे वहाँ उन दोनों की जय-जयकार हुई और हर्ष व्याप्त हो गया ।
सप्तम सर्ग - अर्ककीर्ति के सेवक दुर्मषण ने स्वयंवर समारोह को पक्षपातपूर्ण निरूपित करते हुए स्वयंवर के विरूद्ध उसे उत्तेजित किया जिससे अर्ककीर्ति क्रोधित होकर काशी