Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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और सनातन जैन धर्म इसके साथ ही वि. सं. 2021 (1955 ई.) में क्षुल्लक दीक्षा मनसुरपुर (रेनवाल) में तथा 2016 वि. सं. (1959 ई.) में (जयपुर में) दिगम्बर मुनि दीक्षा ग्रहण की, इसी समय "ज्ञानसागर" नाम रखा गया । जैन धर्म एवं साहित्य की उन्नति के लिए भारतवर्ष के अनेक स्थलों का परिभ्रमण किया तथा अपने प्रवचनों से जैनधर्म के अनुयायियों को निरन्तर प्रभावित किया, अनेक स्थानों पर चातुर्मास योग किये और इस प्रकार उनके अनेक शिष्य बन गये - जिनमें कुछ प्रतिष्ठित शिष्य निम्नाङ्कित हैं- मुनि श्री विद्यासागर, क्षुल्लक स्वरूपानन्द, मुनि श्री विवेकसागर, मुनि श्री विजय सागर, ऐलक श्री 105 सन्मतिसागर, क्षुल्लक सुखसागर एवं क्षुल्लक संभवसागर जी।
आपको आचार्य पद की प्राप्ति 7 फरवरी 1969 ई. में हुई । जैन समाज ने 1972 में चरित्र चक्रवर्ती पद से सुशोभित किया । किन्तु शारीरिक दुर्बलता के कारण आपने अपने परमशिष्य मुनि श्री 108 विद्यासागर जी को 21 जवम्बर 1972 ई. को "आचार्य पद" सौप दिया । आपने 7 जून 1973 को 10 बजकर 50 मिनट (दिन में) नसीराबाद में समाधि मरण द्वारा अपना शरीर त्याग दिया ।
इस प्रकार आचार्य श्री का जीवन वृत्त तपस्या और त्याग के लिए समर्पित रहा। उनकी लोकोत्तर प्रतिभा, चिन्तन, काव्य साधना का परिशीलन उनकी कृतियों में सन्निविष्ट है ।
आचार्य ज्ञानसागर कृत - संस्कृत काव्यों का अनुशीलन - वीरोदय' - यह एक महाकाव्य है। आकार - यह ग्रन्थ 22 सर्गों में निबद्ध है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में 989 पद्य हैं ।
नामकरण - इसमें जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर नायक के रूप में चित्रित हैं, इसीलिए नायक के म पर "वीरोदय इस रचना का नाम सर्वथा उपयुक्त है । सम्पूर्ण कथाक्रम महावीर पर केन्द्रित किया गया है ।
उद्देश्य - वीरोदयकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में एवं अन्त में अपने उद्देश्य को स्पष्ट किया है । कवि ने संसार के कल्याण, जैन धर्म के प्रचार-प्रसार, सामाजिक बुराईयों के पलायन और मानवता की स्थापना से प्रेरित होकर ही यह कृति रचित की है ।
विषय वस्तु - इस कृति के प्रारम्भ में विस्तृत प्रस्तावना तथा आमुख के माध्यम से सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार और समीक्षा प्रस्तुत की गई है । विवेच्य ग्रन्थ की विषयवस्तु निम्नांकित
प्रथम सर्ग - महावीर के जन्म से पूर्व पृथ्वी पर हिंसा, पाप, स्वार्थलिप्सा, अहंकार, द्वेष कुटिलता आदि के चरमोत्कर्ष पर रहने का वर्णन है ।
द्वितीय सर्ग - इसमें जम्बूद्वीप का काव्यमय चित्रण किया है जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं, जिनमें से एक धनधान्य सम्पन्न देश भारत दक्षिण दिशा की ओर है इसमें स्वर्गोपम कुण्डनपुर नगर अत्यन्त रमणीय है । जिसकी आलङ्कारिक विवेचन इस सर्ग में विश्लेषित है ।
तृतीय सर्ग - कुण्डनपुर नामक नगर में धीर-वीर-गम्भीर, प्रतापी, उदार, धर्मप्रिय राजा सिद्धार्थ का शासन था । उसने अपने प्रताप, शक्ति एवं गुणों से अनेक राजाओं एवं शत्रुओं को अपने अधीनस्थ कर लिया था । राजा की प्रियकारिणी रानी, सूर्य की छाया विधि की माया के समान अपने पति का अनुगमन करने वाली, आदर्श चरित्र से मण्डित थी । वह