Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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- 23 (ब) बीसवीं शताब्दी की साहित्यिक पृष्ठ भूमि ।
इस अध्याय के "अ" खण्ड पूर्वपृष्ठों में संस्कृत साहित्य का आविभवि तथा विकास संक्षिप्त इतिवृत्त विश्लेषित हैं । उक्त विवेचन में युग-युगीन साहित्यकारों की सम सामायिक रचना-प्रवणता और लोक-रुचि वैभिन्नय का साङ्गोपाङ्ग निदर्शन हुआ है। इससे यह प्रतिबिम्बित हुआ है कि संस्कृत साहित्य का प्रारंभिक काल आर्ष परम्परा के उन्नायकों और मनीषियों के उदात्त चिन्तन तथा अभिव्यक्ति का प्राबल्य प्रकट करने वाला समय था । इस परम्परा में वैदिक, जैन और बौद्ध मनीषियों ने समान भाव से प्रशस्त योगदान किया । यह ऋजुता पौराणिक साहित्य, रामायण, महाभारत और कालिदास, अश्वघोष समन्तभद्र आदि की रचनाओं में यथेष्ट मात्रा में निदर्शित है। किन्तु किरातार्जुनीय का रचनाकार संस्कृत साहित्य में वाममार्ग को प्रविष्ट कराने का आधार बना, जिसने कथ्य कम और पाण्डित्य प्रदर्शन की वृत्ति अधिक का श्री गणेश किया । इस वृत्ति को शिशुपालवध के रचनाकार ने तरुणाई प्रदान की और नैषध में यह सब सिर चढ़कर बोलती दिखाई पड़ती है।
हमें यह निष्कर्ष अभिव्यक्त करते हुए प्रसन्नता होती है कि बीसवीं शती में साहित्य रचना का मूलाधार या भावभूमि अत्यन्त विशाल और उदात्त है । इस शताब्दी का साहित्यकार पाण्डित्य प्रदर्शन को प्रायः प्रसन्द नहीं करता ।
2. बीसवीं शताब्दी में स्थूल शृङ्गारिकता की प्रायः उपेक्षा हुई है ।
3. बीसवीं शताब्दी में नये सन्दर्भो और नये आयामों को दृष्टिपथ में रखकर राष्ट्रीयता का उन्मेष हुआ है । इस शताब्दी में इस प्रकार की अनेक रचनाएँ हुई हैं । जिनमें राष्ट्र राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय चरित्रों को पर्याप्त महत्त्व देकर सजाया, संवारा और उभारा गया है । इस दृष्टि से आचार्य ज्ञानसागर विरचित जयोदय महाकाव्य की रचना सर्वोपरि उल्लेखनीय
4. इस शताब्दी में आध्यात्मिक, - दार्शनिक वातावरण का शङ्खनाद हुआ है । जिसके प्रतिनिधि रचनाकार आचार्य ज्ञानसागर, आचार्य, विद्यासागर, साहित्याचार्य डॉ. पन्नालालजी, मुनि नथमल, आचार्य, घासीलाल, आचार्य कुन्थसागर आर्यिका सुपार्श्वमती, आर्यिका विशुद्धमती प्रभृति मनीषिगण हैं ।
5. इस शताब्दी में धार्मिकता का अभिनव सन्निवेष हुआ है । इस दृष्टि से डॉ. रामजी उपाध्याय, आचार्य विद्यासागरजी, साहित्याचार्य डॉ. पन्नालालजी प्रभृति मनीषियों की रचनाएँ नितराम् भव्य और स्पृहणीय हैं ।
बीसवीं शताब्दी की साहित्यिक पृष्ठ भूमि में संस्कृत की आर्य परम्परा प्राकृत और अपभ्रंश की जनमन मोहनी अभिरामता और देशी-विदेशी रचना शैली की ओजस्विता का सुस्पष्ट निदर्शन होता है । समीक्षाओं और समीक्षात्मक अध्ययनों की सुचिंतित प्रस्तुतियों ने इस शताब्दी के साहित्यकार को विराट भावभूमि से सम्पृक्त किया । यह कार्य सम्पन्न करने में अग्रण्य मनीषी हैं - सर्वश्री डॉ. एम. विन्टरनिट्ज डॉ. आर. जी. भाण्डारकर, सन्त गणेश प्रसाद वर्णी डॉ. हीरालाल जैन, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. नाथूराम प्रेमी, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्री अगरचन्द्र नाहटा, पं. परमेष्ठी दास न्यायतीर्थ, पं. अमृतलाल दर्शनाचार्य, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. रामजी उपाध्याय, डॉ. नेमीचन्द्र ज्योतिषाचार्य, पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, पं. बंशीधर जी व्याकरणाचार्य, डॉ.