Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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सोलहवीं शती के प्रारम्भ में रानी तिरुमलाम्बा कृत वरदाम्बिका परिणय चम्पू अन्यतम रचना है । इसमें लेखिका ने वरदाम्बिका नाम से अपने ही परिणय का मनोरम वर्णन प्रौढ़ शैली में किया है । ये अच्युतराय की पत्नी थीं । "इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि डा. लक्ष्मण स्वरूप ओरियण्टल कालेज लाहौर के प्रधानाचार्य को, 1924 ई. में प्राप्त हुई । (तंजौर लायब्रेरी से) डा. लक्ष्मण स्वरूप एवं हरिदत्त शास्त्री के सम्पादकीय में 1932 ई. में वरदाम्बिका परिणय" चम्पू प्रकाशित हुआ । विविध कलाओं की मर्मज्ञ लेखिका ने इसमें कवित्व और पाण्डित्य का वैभव उपस्थित किया है । 13वीं शती में दिगम्बर जैन पं. आशाधर सूरि ने जैन तीर्थङ्कर आदिनाथ के पुत्र भरत का जीवन चरित "भरतेश्वराभ्युदय-चम्पू" में उद्घाटित किया है।
अर्हदास ने जैन तीर्थङ्कर आदिनाथ पर आधारित पुरुदेव चम्पू का प्रणयन किया। इस . ग्रन्थ की ललित, अलङ्कृत भाषा सहज ही पाठकों को आकृष्ट कर लेती है । दिवाकर ने वाल्मीकि रामायण की सार सामग्री लेकर "अमोघ-राघव चम्पू की रचना की हैं । 14वीं शती में अहोबल सूरि ने यतिराज-विजय" चम्पू के 16 उल्लासों में रामानुजाचार्य की जीवन लीला अङ्कित की हैं और अपने दूसरे चम्पूकाव्य “विरुपाक्ष वसन्तोत्सव" में वसन्तोत्सव की विपुलता प्रस्तुत की है । अहोबल सूरि की रचनाएँ ऐतिहासिक हैं उनमें आद्योपान्त कवित्व का निदर्शन है।
हरिवंश और भागवत पुराणों में वर्णित रुक्मिणी-विवाह के वृत्तान्त से प्रभावित होकर अमराचार्य (अम्मल) ने "रुक्मिणी परिणय चम्पू) का प्रणयन किया । तत्पश्चात् 15 वीं शताब्दी में कवितार्किक सिंह ने रामानुजीसन्त वेदान्तदेशिक के जीवन चरित पर आधारित "आचार्य विजय चम्पू" की रचना की । हमें उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में चम्पू काव्यों में विशिष्टता दिखाई पड़ती है । आन्ध्र एवं द्रविड़ कवियों ने विविध वर्णनों का आधार चम्पू शैली को बनाया ।
समरपुङ्गव दीक्षित ने "यात्रा प्रबन्ध चम्पू में दक्षिण भारत के तीर्थों में की गई अपनी यात्रा का रोचक वर्णन किया है विषय की नवीनता होते हुए भी प्राकृतिक प्राचीन परम्परा का अनुकरण इस ग्रन्थ में किया गया है । 16वीं शती में कवि कर्णपूर ने भागवत के दशम स्कन्ध के आधार पर 22 स्तबकों में "आनन्द वृन्दावन" चम्पू का प्रणयन किया । इसमें कृष्ण जन्म से लेकर यौवनावस्था तक की ललित लीलाओं का चित्रण मिलता है । वल्ली सहाय कवि द्वारा प्रणीत “आचार्य दिग्विजय चम्पू" शङ्कराचार्य के विराड् व्यक्तित्व का श्रेष्ठ निदर्शन है । यह प्रसाद गुणयुक्त शैली में शङ्कराचार्य की दिग्विजय का सम्यक् निरुपण करता है । "काकुस्थ विजय चम्पू" वल्लीसहाय की दूसरी चम्पू रचना है । चिदम्बर ने 16वीं शती में "भागवत चम्पू" और "पञ्चकल्याण चम्पू" इन दो चम्पू ग्रन्थों का सृजन किया। "भागवत चम्पू" में भागवत की प्रसिद्ध कथा ३ स्तबकों में निबद्ध है और "पञ्चकल्याण चम्पू" में श्लेष पद्धति पर आधारित राम, कृष्ण, विष्णु शिव, सुब्रह्मण्य के विवाह की कथा को एक साथ उपस्थित किया गया है । 16वीं शती के चम्पू काव्यों में शेषकृष्ण कृत 5 अध्यायों में सम्पन्न “पारिजात हरण' चम्पू अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है । इसमें सपत्नी द्वेष का अनोखा प्रसङ्ग वर्णित है । दैवज्ञ सूर्य कृत "नृसिंह चम्पू पाँच उच्छवासों में नरसिंहावतार की कथा का साकार स्वरूप प्रस्तुत करता है। कवि केशव भट्ट ने भी नृसिंह चम्पू 6 स्तबकों में सुगुम्फि किया और "नृसिंह चम्पू" (चार उल्लासों में) संघर्षण ने भी लिखा है । ये तीनों चम्पू ग्रन्थ प्रह्लाद चरित पर आधारित है जिससे हमें उसकी लोक प्रियता