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ओमद्राज चन्द्र जैनशास्त्रमाला --७
RD
श्रीमद्भुत चन्द्राचार्यविरचित
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
फ्र
प्रकाशक
श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल
8
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम
अगास
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श्रीमद्राजचन्द्र जैन शास्त्रमालायाम्-७
श्रीपरमात्मने नमः
श्रीमदमृत चन्द्राचार्यविरचित
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
सरल हिन्दी भाषाटीका सहित
श्रीपरम
प्रकाशक
प्रभावक मंडल
Stude
श्रीमद राजचन्द्र प्राथम
कापास
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प्रकाशकभी रावजीभाई छ. देसाई, प्रॉनरेरी अवस्थापक श्री परमश्रुतप्रभावक-मंडल (श्रीमद्राजचंद्रजनशास्त्रमाला ) श्रीमदाबचंद्र प्रापम, स्टे.-प्रगास, पो.-बोरिमा
बाबा: पाणंद ( मुजरात)
वीर नि. सं. २५.३]
वि० सं० २०३४
[सन १९७७
षष्ठ संस्करण-१५००
मुद्रक:-- भंवरलाल न्यायतीर्थ
श्री वीर प्रेस, मनिहारों का रास्ता जयपुर-३ [राज.
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प्रकाशकीय निवेदन
श्रीमदमृताचार्यविरचित पुरुषार्थसिद्धय पाय श्रीमद् राजचंद्र जैन शास्त्रमालाका सातवां थ-पुष्प है। इस मंथ के अन्तर्गत मूल संस्कृत श्लोक, पं० टोडरमलजी कृत, तथा पं० दौलतरामनी कृत टीका के आधार पर पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित नवीन हिन्दी टीका है। श्रावक मुनि धर्म का हृदयस्पर्शी अद्भुत वर्णन है।
- इस संस्था की भोर से परमात्म प्रकाश और योगसार, गोम्मटसार जीव-कांड-कर्म कांड, लब्धिसार पौर स्याद्वादमंजरी आदि का पुनर्मुद्रण हो रहा है। निरंतर मांग एवम् आवश्यकता समझ कर यह षष्ठ संस्करण जिज्ञासुमों के कर-कमममें प्रस्तुत करते हुए हृदय प्रानंद विभोर हो उठता है।
बौद्धिक क्षयोपशम की न्यूनता के कारण अशुद्धियां-त्रुटियां रह जाना संभव है। विज्ञ पाठक शुद्ध करके पढ़ें और क्षमा करें। प्रार्थना है कि पाठक गण यथावश्यक सूचनायें भेजने की कृपा करेंगे।
निवेदक: रावजी भाई छ. देसाई
श्रीमद् राजचंद्र पाश्रम प्रगास, दि० १०/५/७७
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इस युगके महान तत्त्ववेत्ता श्रीमद राजचन्द्र
इस युगके महान् पुरुषों में श्रीमद् राजचन्द्रजीका नाम बड़े गौरवके साथ लिया जाता है। वे विश्वकी महान विभूति थे । अद्भुत प्रभावशाली, अपनी नामवरीसे दूर रहने वाले गुप्त महात्मा थे। भारतभूमि ऐसे ही नर-रत्नोंसे बसुन्धरा मानी जाती है।
जिस समय मनुष्यसमाज प्रात्मधर्मको भूल कर अन्य वस्तुप्रोंमें धर्मकी कल्पना या मान्यता करने लगता है, उस समय उसे किसी सत्य मार्गदर्शककी आवश्यकता पड़ती है। प्रकृति ऐसे पुरुषो को उत्पन्न कर अपनेको धन्य मानती है । श्रीमद्जी उनमें से एक थे। श्रीमद् राजचन्द्र जी का नाम तो प्रायः बहुतोंने सुन रक्खा है, और उसका कारण भी यह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने अपने साहित्यमें इनका जहां तहां सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है। वे स्वयं इनको धर्मके सम्बन्ध में अपना मार्गदर्शक मानते थे। महात्माजी लिखते हैं कि - "मेरे ऊपर तीन पुरुषोंने गहरी छाप डाली हैटाल्सटाय, रस्किन पौर राजचद्रभाई। टाल्सटायने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े पत्रव्यवहारसे; रस्किनने अपनी पुस्तक 'अन्टु धिस लास्ट' से, जिसका गूजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रक्खा है, और राजचन्द्रभाईने अपने गाढ़ परिचयसे। जब मुझे हिन्दू धर्म में शङ्का उत्पन्न हुई उस समय उसके निवारण करनेमें राजचन्द्रभाईने मुझे बड़ी सहायता पहुंचाई थी। ई० सन् १८६३ में दक्षिण अफ्रीकामें मैं कुछ क्रिश्चियन सज्जनोंके विशेष परिचयमें प्राया था। अन्य धर्मियोंको निश्चियन बनाना ही उनका प्रधान व्यवसाय था। उस समय मुझे हिन्दू धर्म में कुछ अश्रद्धा हो गई थी. फिर भी मैं मध्यस्थ रहा था। हिन्दुस्तानमें जिनके ऊपर मुझे श्रद्धा थी उनसे पत्रव्यवहार किया। उनमें राजचन्द्रभाई मुख्य थे। उनके साथ मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था। उनके प्रति मुझे मान था। इसलिए उनसे जो कुछ मुझे मिल सके उसको प्राप्त करने का विचार था। मेरी उनसे भेंट हुई। उनसे मिलकर मुझे अत्यन्त शान्ति मिली। अपने धर्ममें दृढ़ श्रद्धा हुई। मेरी इस स्थितिके जवाबदार राजचन्द्रभाई हैं। इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिये, इसका पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।"
महात्माजी आगे और भी लिखते हैं कि-राजचन्द्र भाईके साथ मेरी भेट जौलाई १८६१ में उस दिन हुई थी जब मैं विलायतसे बम्बई आया था। उस समय मैं रंगूनके प्रख्यात जौहरी प्राण जीवनदास मेहताके घर उतरा था। राजचन्द्रभाई उनके बड़े भाईके जमाई होते थे। प्राणजीवनदास ने राजचन्द्रभाईका परिचय कराया। वे राजचन्द्रभाईको कविराज कहकर पुकारा करते थे। विशेष परिचय देते हुए उन्होंने कहा-ये एक अच्छे कवि हैं और हमारे साथ व्यापार में लगे हुए हैं। इनमें बड़ा ज्ञान है, शतावधानी हैं।
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श्रीमद राजचंद्र
जन्म : ववाणिया वि. स. १९२४ कार्तिक पूर्णिमा
देहविलय : राजकोट वि. स. १९५७ चैत्र वदी ५
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श्रीमद्जीका जन्म वि० सं० १९२४ कार्तिक शुक्ला पूर्णिमाको सौराष्ट्र मोरची राज्यान्तर्गत ववाणिया गांव में वणिक जातिके दशाश्रीमाली कुल में हुआ था। इनके पिताका नाम रवजीभाई पंचाणभाई महेता और माताका नाम देवाबाई था। इनके एक छोटा भाई और ४ बहिन थीं। घरमें इनके जन्मसे बड़ा उत्सव मनाया गया। श्रीमद्जीने प्रपने सम्बन्धमें जो बातें लिखी हैं वे बड़ी रोचक और समझने योग्य हैं । वे लिखते हैं
"छट पनकी छोटो समझ में, कौन जाने कहाँसे ये बड़ी बड़ी कल्पनाए पाया करती थीं। सुख की अभिलाषा भी कुछ कम न थी; प्रौर सुख में भी महल, बाग, बगोचे, स्त्रो प्रादिके मनोरथ किये थे, किन्तु मन में पाया करता था कि यह सब क्या है ? इस प्रकारके विचारोंका यह फल निकला कि न पुनर्जन्म है, और न पाप है, और न पूण्य है; सुखसे रहना और संसारका सेवन करना। बस, इसी में कृतकृत्यता है। इससे दूसरी झंझटोंमें न पड़कर धर्मकी वासना भी निकाल डाली। किसी भी धर्मके लिये थोड़ा बहुत भी मान अथवा श्रद्धाभाव न रहा। किन्तु थोड़ा समय बीतने के बाद इसमें से कुछ और ही होगया। आत्मामें बड़ा भारी परिवर्तन हुआ. कुछ दूसरा ही अनुभव हुप्रा; और यह अनभव ऐसा था. जो प्रायः शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता और न जडवादियोंकी कल्पनामें भी आसकता। वह अनुभव क्रमसे बढ़ा और बढ़कर एक 'तू ही तू ही' का जाप करता है।" एक दूसरे पत्रमें अपने जीवन को विस्तारपूर्वक लिखते हैं कि-"बाईस वर्ष की अल्पवय में मैंने प्रात्मा सम्बन्धी, मन सम्बन्धी, वचन सम्बन्धी, तन सम्बन्धी पौर धन सम्बन्धी अनेक रंग देखे हैं। नाना प्रकार की सृष्टिरचना, नाना प्रकार की सांसारिक लहरें और अनन्त दुःख के मूल कारणों का अनेक प्रकार से मुझे अनुभव हुअा है। तत्त्वज्ञानियों ने और समर्थ नास्तिकों ने जैसे जैसे विचार किए हैं उसी तरह के अनेक मैंने इसी अल्पवय में किए हैं। महान् चक्रवर्ती द्वारा किए गए तृष्णापूर्ण विचार और एक निस्पृही प्रात्मा द्वारा किये गए निस्पृहापूर्ण विचार भी मैंने किए हैं । अमरत्व की सिद्धि और क्षणिकत्व की सिद्धि पर मैंने खूब मनन किया है। अल्पवय में ही मैंने महान् विचार कर डाले हैं, और महान विचित्रता की प्राप्ति हुई है। यहां तो अपनी समुच्चय वयचर्या लिखता हूं:
जन्मसे सात वर्षकी बालवय नितान्त खेल कूदमें ही व्यतीत हुई थी। उस समय मेरी प्रात्मामें अनेक प्रकारकी विचित्र कल्पनाए' उत्पन्न हुमा करती थीं। खेल कूदमें भी विजयी होने और राजराजेश्वर जैसी ऊंची पदवी प्राप्त करनेकी मेरी परम अभिलाषा रहा करती थी। ..........
-स्मृति इतनी अधिक प्रबल थी कि वैसी स्मृति इस काल में, इस क्षेत्रमें बहुत ही थोड़ मनुष्यों की होगी। मैं पढ़ने में प्रमादी था, बात बनाने में होशियार खिलाड़ी और बहुत प्रानन्दी जीव था। जिस समय शिक्षक पाठ पढ़ाता था उसी समय पढ़कर मैं उसका भावार्थ सुना दिया करता था। बस, इतनेसे मुझे छट्टी मिल जाती थी। मुझमें प्रीति और वात्सल्य बहुत था। मैं सबसे मित्रता चाहता था, सबमें भ्रातृभाव हो तो सुख है, यह विश्वास मेरे मन में
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स्वाभाविक स्व से रहता था। मनुष्यों में किसी भी प्रकार जुदाई का अंकुर देखते ही मेरा अन्तःकरण
रो पड़ता था। पाठवें वर्ष में मैंने कविता लिखी थी, जो पीछे से जांच करने पर छन्दशास्त्र के नियमानुकूल थी।
उस समय मैंने कई काव्यग्रन्थ लिखे थे, अनेक प्रकार के और भी बहुत से ग्रन्थ देख डाले थे। मैं मनुष्य जातिका अधिक विश्वासु था।
मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति किया करते थे। उस वयमें मैंने उनके कृष्ण-कीर्तन तथा भिन्न भिन्न अवतार सम्बन्धी चमत्कार सुने थे। जिससे मुझे उन पवतारों में भक्ति के साथ प्रीति भी उत्पन्न होगई थी, और रामदासजी नामके साधु से मैंने बाल-लीला में कंठी भी बंधवाई थी। मैं नित्य ही कृष्ण के दर्शन करने जाता था, अनेक कथाए सुनता था, जिससे अवतारों के चमत्कारों पर बर बार मुग्ध हो जाया करता था, और उन्हें परमात्मा मानता था। xxx गुजराती भाषा की पाठशालाकी पुस्तकोंमें कितनी ही जगह जगत्कर्ताके सम्बन्धमें उपदेश हैं, वह मुझे दृढ़ हो गया था। इस कारण जैन लोगोंसे घृणा रहा करती थी। कोई पदार्थ बिना बनाए नहीं बन सकता, इसलिये जैन मुर्ख हैं, उन्हें कुछ भी खबर नहीं। उस समय प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालु लोगोंकी क्रिया मुझे वैसे ही दिखाई देती थी, इसलिये उन क्रियाओंकी मलिनताके कारण मैं उनसे बहुत डरता था, अर्थात् वे क्रियायें मुझे पसन्द नहीं थीं। - मेरी जन्म भूमिमें जितने वणिक लोग रहते थे, उन सबकी कुल-श्रद्धा यद्यपि भिन्न भिन्न थी फिर भी वह थोड़ी बहुत प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालुओंके समान थी।
लोग मुके प्रथमसे ही शक्तिशाली प्रौर गांवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इससे मैं कभी कभी जनमंडल में बैठकर अपनी चपल शक्ति बतानेका प्रयत्न किया करता था।
वे लोग कंठी बांधने के कारण बार बार मेरी हास्यपूर्वक टीका करते, तो भी मैं उनसे बादविवाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता था।
धीरे-धीरे मुझे जैनोंके प्रतिक्रमण सूत्र इत्यादि ग्रंथ पढ़नेको मिले।' उनमें बहुत विनयपूर्वक जगत के समस्त जीवोंसे मैत्रीभाव प्रकट किया है। इससे मेरी उस अोर प्रीति हुई और प्रथममें रही। परिचय बढ़ता गया। स्वच्छ रहने का और दूसरे प्राचार विचार मुझे वैष्णवोंके ही प्रिय थे, जगत्कर्ता की भी श्रद्धा थी। इतने में कंठी टूट गई, और उसे दुबारा मैंने नहीं बांधी। उस समय बांधने न बांधने का कोई कारण मैंने नहीं ढूढा था । यह मेरी तेरह वर्ष की वयचर्या है। इसके बाद अपने पिताकी दुकानपर बैठने लगा था। अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके महलमें लिखनेके लिए जब जब बुलाया जाता था तब वहां जाता था। दुकान पर रहते हुए मैंने अनेक प्रकारका प्रानन्द किया है, अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं राम आदिके चरित्रों पर कविताए रची हैं, सांसारिक तृष्णाएं की हैं, तो भी किसीको मैंने कम-अधिक भाव नहीं कहा, अथवा किसीको कम-ज्यादा तोलकर नहीं दिया, यह मझे बराबर याद है।"
इस पर से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे एक अति संस्कारी प्रात्मा थे। बड़े बड़े विद्वान् भी जिस
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प्रात्माकी अोर लक्ष्य नहीं देते उसी आत्माकी अोर श्रीमद्जीका बाल्यकालसे लक्ष्य तीव्र था । प्रात्माके अमरत्व तथा क्षणिकत्वके विच र भी कुछ कम नहीं किये थे। कुलश्रद्धासे जैन धर्मको अंगीकार नहीं किया था, लेकिन अपने अनुभवके बलपर उसे सत्य सिद्ध करके अपनाया था। जैन धर्मके सत्य सिद्धान्तोंको श्रीमद्जीने अपने जीवन में उतारा था और मुमुक्षमोंको भी तदनुरूप बननेका बोध देते थे । वर्तमान युगमें ऐसे महात्माका आविर्भाव समाजके लिये सौभाग्यकी बात है। ये मनमतान्तर में मध्यस्थ थे।
आपको जातिस्मरण ज्ञान था अर्थात् पूर्वभव जानते थे। इस सम्बन्ध में मुमुक्षुभाई पदमशी भाईने एक बार उनसे पूछा था और उसका स्पष्टीकरण स्वयं उन्होंने अपने मुख से किया था। पाठकों की जानकारी के लिये उसे यहां दे देना योग्य समझता हूं।
पदमशीभाईने पूछा-"प्रापको जातिस्मरण-ज्ञान कब और कैसे हुया ?"
श्रीमद्जीने उत्तर दिया-"जब मेरी उम्र सात वर्षकी थी, उस समय यवाणिया में अमीनन्द नामके एक सद्गृहस्थ रहते थे। वे पूरे लम्बे-चौड़े, सुन्दर और गुणवान थे। उनका मेरे ऊपर खूब प्रेम था। एक दिन सर्पके काट खानेसे उनका तुरन्त देहान्त हो गया। प्रासपासके मनुष्योंके मुखसे इस बातको सुनकर मैं अपने दादाके पास दौड़ा पाया। मरण क्या चीज है ? इस बातका मैं नहीं जानता था, इसलिये मैंने दादा से कहा-दादा ! अमीचन्द मर गए क्या ? मेरे दादाने उस समय विचारा कि यह बामक है. मरणकी बात करनेसे डर जायगा, इसलिए उन्होंने-जा भोजन करले, यों कहकर मेरी बातको टालनेका प्रयत्न किया। 'मरण' शब्द उस छोटे जीवन में मैंने प्रथम बार ही सुना था। मरण क्या वस्तु है, यह जानने की मुझे तीव्र आकांक्षा थी। बारम्बार मैं पूर्वोक्त प्रश्न करता रहा । अन्त में वे बोले-तेरा कहना सत्य है अर्थात् अमीचन्द मर गए हैं। मैंने अाश्चर्यपूर्वक पूछा-मरण क्या चीज है ! दादाने कहा-शरीरमें से जीव निकल गया है और अब वह हलन-चलन
आदि कुछ भी क्रिया नहीं कर सकता, खाना-पीना भी नहीं कर सकता। इसलिए अब इसको तालाबके समीपके श्मशानमें जला पायेंगे।
____ मैं थोड़ी देर इधर-उधर छिपा रहा। बादमें तालाब पर जा पहुंचा। तट पर दो शाखावाला एक बबूलका पेड़ था, उसपर चढ़कर मैं सामनेका सब दृश्य देखने लगा। विता जोरोंसे जल रही थी, बहुतसे आदमी उसको घेरकर बैठे हुए थे। यह सब देखकर मुझे विचार प्राया-मनुष्यको जलाने में कितनी करता ! यह सब क्या ? इत्यादि विचारोंसे प्रात्म-पट दूर हो गया।"
___ एक विद्वानने श्रीमद्जीको, पूर्व जन्मके सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करने के लिए लिखा था। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ लिखा था, वह निम्न प्रकार है
"कितने ही निर्णयोंसे मैं यह मानता हूं कि, इस कालमें भी कोई काई महात्मा पहले भवको जातिस्मरण ज्ञानसे जान सकते हैं, और यह जानना कल्पित नहीं; परन्तु सम्यक् ( यथार्थ ) होता
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है। उत्कृष्ट संवेग, ज्ञान-योग और सत्संगसे यह ज्ञान प्राप्त होता है, अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवमें प्रा जाता है। - जब तक पूर्वभव गम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकाल के लिए शंकितभावसे धर्म-प्रयत्न किया करती है, और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता।" पुनर्जन्मकी सिद्धिके लिए श्रीमद्जी ने एक विस्तृत पत्र लिखा है जो 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें प्रकाशित है । पुनर्जन्म सम्बन्धी इनके विचार बड़े गम्भीर और विशेष प्रकारसे मनन करने योग्य हैं ।
१६ वर्ष की अवस्थामें श्रीमद्जीने एक बड़ी सभामें सौ प्रवधान किए थे, जिसे देखकर उपस्थित जनता दांतों तले उंगली दबाने लगी थी।
__ अंग्रेजीके प्रसिद्ध पत्र 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने अपने ता• २४ जनवरी १८५७ के कमें श्रीमद्जीके सम्बन्ध में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था 'स्मरण शक्ति तथा मानसिक शक्तिके
अद्भ त प्रयोग ।'
.. "राजचन्द्र रवजीभाई नामके एक १६ वर्षके युवा हिन्दूकी स्मरणशक्ति तथा मानसिक शक्ति के प्रयोग देखने के लिये गत शनिवार को संध्या समय फरामजी कावसजी इन्स्टीटयू टमें देशी सज्जनों का एक भव्य सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलनके सभापति डाक्टर पिटर्सन नियुक्त हुए थे। भिन्न भिन्न जातियोंके दर्शकोंमें से दस सज्जनोंकी एक समिति संगठित की गई। इन सज्जनोंने दस भाषाओं के छ छ शब्दोंके दस वाक्य बनाकर लिख लिए और अक्रमसे बारी बारीसे सुना दिए। थोड़े ही समय बाद इस हिन्द यवकने दर्शकोंके देखते देखते स्मृतिके बलसे उन सब वाक्योंको क्रमपूर्वक सूना दिया । यवककी इस शक्तिको देखकर उपस्थित मंडली बहुत ही प्रसन्न हुई।
. इस युवाकी स्पर्शन इन्द्रिय और मन इन्द्रिय अलौकिक थी। इस परीक्षाके लिये अन्य अन्य प्रकारकी कोई बारह जिल्दं बतलाई गई और उन सबके नाम सुना दिए गए। इसके अांखों पर पट्टी बांधकर इसके हाथों पर जो जो पुस्तकें रखी गई, उन्हें हाथोंसे टटोलकर इस युवकने सब पुस्तकोंके नाम बता दिए। डा० पिटर्सनने इस युवककी इस प्रकार आश्चर्यपूर्ण स्मरणशक्ति और मानसिक शक्तिका विकास देखकर बहुत बहुत धन्यवाद दिया और समाजकी अोरसे सुवर्ण-पदक और साक्षात् सरस्वतीको पदवी प्रदान की गई।
उस समय चार्ल्स सारजंट बम्बई हाईकोर्टके चीफ जस्टिस थे। वे श्रीमद्जीकी इस शक्तिसे बहुत ही प्रभावित हुए। सुना जाता है कि सारजंट महोदयने श्रीमद्जीसे इग्लेंड चलनेका प्राग्रह किया था, परन्तु वे कीर्तिसे दूर रहने के कारण चार्ल्स महाशयकी इच्छाके अनुकूल न हुए अर्थात् इग्लेंड न गए॥"
इसके अतिरिक्त बम्बई समाचार प्रादि अखबारों में भी इनके शतावधानके समाचार प्रकाशित हए थे । बाद में शतावधान के प्रयोगोंको आत्मचिन्तनमें अन्तरायरूप मानकर उनका करना बन्द कर दिया था। इससे सहजमें ही अनुमान किया जा सकता है कि वे कीर्ति मादिसे कितने निरपेक्ष
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( 2 )
थे। उनके जीवन में पद पद पर सच्ची धार्मिकता प्रत्यक्ष दिखाई देती थी । वे २१ वर्ष की उम्र में व्यापारार्थ ववाणिया से बम्बई आए। वहां सेठ रेवाशंकर जगजीवनदासकी दुकान में भागीदार रहकर जवाहरातका धन्धा करते रहे । वे व्यापारमें अत्यन्त कुशल थे । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । व्यापार करते हुये भी श्रीमद्जीका लक्ष्य श्रात्माकी और अधिक था । इनके ही कारण उस समय मोतियोंके बाजार में श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवनदासकी पेढ़ी नामी पोढ़ियों में एक गिनी जाती थी । स्वयं श्रीमद्जीके भागीदार श्रीयुत माणिकलाल घेलाभाईको इनकी व्यवहारकुशलता के लिये अपूर्व बहुमान था । उन्होंने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि "श्रीमद् राजचन्द्रके साथ लगभग १५ वर्ष तक परिचय रहा, और उसमें सात-आठ वर्ष तो मेरा उनके साथ प्रत्यन्त परिचय रहा था । लोगों में प्रति परिचयसे परस्परका महत्त्व कम हो जाता है, परन्तु मैं कहता हूं कि उनकी दशा ऐसी आत्ममय थी कि उनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया । व्यापार में अनेक प्रकारकी कठिनाइयां प्राती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वत के समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुग्रोंकी चिन्तासे चिन्तातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे । किसी विषय में मतभेद होने पर भी हृदय में वैमनस्य नहीं था । सदैव पूर्वसा व्यवहार करते थे ।"
श्रीमद्जी व्यापार में जैसे निष्णात थे उससे प्रत्यन्त अधिक प्रात्मतत्त्व में निष्णात थे । उनकी प्रन्तरात्मा में भौतिक पदार्थोंकी महत्ता नहीं थी । वे जानते थे - धन पार्थिव शरीरका साधन है, परलोक अनुयायी तथा आत्माको शाश्वत शान्ति प्रदान करनेवाला नहीं है व्यापार करते हुए भी उनकी अन्तरात्मामें वैराग्य-गंगाका प्रखण्ड प्रवाह निरन्तर बहता रहता था । मनुष्य-भव के एक एक समयको वे अमूल्य समझते थे । व्यापारसे अवकाश मिलते ही वे कोई अपूर्व आत्मविचारणा में लीन हो जाते थे । निवृत्तिकी पूर्ण भावना होने पर भी पूर्वोदय कुछ ऐसा विचित्र था जिससे उनको बाह्य उपाधि में रहना पड़ा ।
श्रीमद्जी जवाहरात के साथ साथ मोतियोंका भी व्यापार करते थे । व्यापारी समाज में वे अत्यन्त विश्वासपात्र समझे जाते थे । उस समय एक प्रारब अपने भाई के साथ रहकर बम्बई में मोतियोंकी श्राइतका धन्धा करता था। छोटे भाईके मन में आया कि आज मैं भी बड़ े भाईके समान कुछ व्यापार करू । परदेशसे आया हुआ माल साथमें लेकर आरब बेचने निकल पड़ा । दलालने श्रीमद्जीका परिचय कराया। श्रीमद्जीने प्रारबसे कहा - भाई ! सोच समझकर भाव कहना । प्रारब बोला - जो मैं कह रहा हूं, वही बाजार भाव है, प्राप माल खरीद करें ।
श्रीमद्जीने माल ले लिया, तथा उसको एक तरफ रख दिया। वे जानते थे कि इसको नुकसान है और हमें फायदा । परन्तु वे किसीकी भूलका लाभ नहीं लेना चाहते थे । प्रारब घर पहुंचा, बड़े भाई सौदा की बात की। वह घबरा कर बोला- तूने यह क्या किया ? इसमें तो प्रपने को बहुत नुकसान है। अब क्या था, प्रारब श्रीमद्जी के पास प्राया और सौदा रद्द करने को कहा । व्यापारिक
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नियमानुसार सौदा तय हो चुका था, प्रारब वापस लेने का अधिकारी नहीं था, फिर भी श्रीमद्जीने सौदा रद्द करके मोती उसे वापिस दे दिए। श्रीमद्जीको इस सौदे से हजारों का फायदा था, तो भी उन्होंने उसकी अन्तरात्माको दुःखित करना अनुचित समझा और मोती लौटा दिए। कितनी निस्पृहता-लोभवृत्तिका अभाव ! आज के व्यापारियों में यदि सत्यता पाजाय तो सरकार को नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य-समाज सुखपूर्वक जीवन यापन कर सके।
श्रीमद्जी की दृष्टि बड़ी विशाल थी। आज भी भिन्न भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनों का रुचि सहित आदरपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं। उन्हें बाडाबन्दी पसन्द नहीं थी। वे कहा करते थे कि कुगुरुमों ने लोगोंकी मनुष्यता लूट ली है, विपरीत मार्ग में रुचि उत्पन्न करदी है, सत्य समझाने की अपेक्षा कुगुरु अपनी मान्यता को ही समझाने का विशेष प्रयत्न करते हैं। . श्रीमद्जीने धर्मको स्वभावकी सिद्धि करनेवाला कहा है। धर्मों में जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी भिन्नता बतलाया है। इसी बातको वे स्वयं दोहे में प्रकट करते हैं:
भित्र भिन्न मत देखिए, भेद दृष्टिनो एह एक तत्त्वना मूलमां, व्याप्या मानो तेह ।। तेह तत्त्वरुप वृक्षनु, आत्मधर्म छे मूल । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूल ।।
अर्थात्-भिन्न भिन्न जो मत देखे जाते हैं, वह सब दृष्टि का भेद है। सब ही मत एक तत्त्व के मूल में व्याप्त हो रहे हैं । उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल है आत्मधर्म, जो कि स्वभावकी सिद्धि करता है, और वही धर्म प्राणियों के अनुकूल है।
श्रीमद्जीने इस युगको एक अलौकिक दृष्टि प्रदान की है। वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे। उन्होंने पाडम्बरोंमें धर्म नहीं माना था। वे मत-मतान्तर तथा कदाग्रहादिसे बहुत ही दूर रहते थे। वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था।
पेढ़ी से अवकाश लेकर वे अमुक समय तक खंभात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसी और ईडरके पर्वत में एकान्तवास किया करते थे। मुमुक्षुत्रोंको प्रात्मकल्याणका सच्चा मार्ग बताते थे। इनके एक एक पत्र में कोई अपूर्व रस भरा हुआ है। उन पत्रोंका मर्म समझनेके लिए सन्त-समागम की विशेष आवश्यकता अपेक्षित है। ज्यों ज्यों इनके लेखोंका शान्त और एकाग्र चित्त से मनन किया जाता है, त्यों त्यों आत्मा क्षणभरके लिए एक अपूर्व प्रानन्दका अनुभव करता है। 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थके पत्रोंमें उनका पारमार्थिक जीवन नहां तहां दृष्टिगोचर होता है।
श्रीमद्जीकी भारत में अच्छी प्रसिद्धि हुई। मुमुक्षोंने उन्हें अपना मार्ग-दर्शक माना। बम्बई रहकर भी वे पत्रों द्वारा मुमुक्षुत्रोंकी शंकामोंका समाधान करते रहते थे। प्रातः स्मरणीय श्री लघराज स्वामी इनके शिष्यों में मुख्य थे। श्रीमद्जी द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान का संसार में प्रचार
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( ११ ) हो तथा प्रनादिसे परिभ्रमण करनेवाले जीवोंको गाक्षमार्ग मिले, इस उद्देश्यसे स्वामीजीके उपदेश से श्रीमद्जीके उपासकों ने गुजरात में प्रगास स्टेशन के पास 'श्रीमद् राजचन्द्र श्राश्रम' की स्थापना की थी, जो आज भी उन्होंकी भावनानुसार चलता है। इसके सिवाय खंभात, वडवा, नरोडा, धामण, आहोर, वाणिया, काविठा, भादरण, ईडर, उत्तरसंडा, नार आदि स्थलों में इनके नाम से श्राश्रम तथा मन्दिर स्थापित हुए हैं । श्रीमद् राजचन्द्र ग्राश्रम अगास के अनुसार ही उनमें प्रवृत्ति चल रही है - अर्थात् श्रीमद्जीके तत्त्वज्ञान की प्रधानता है ।
श्रीमद् एक उच्चकोटि के असाधारण लेखक और वक्ता थे । उन्होंने १६ वर्ष और ५ मास की उम्र में ३ दिन में १०८ पाठवाली 'मोक्षमाला' बनाई थी । श्राज तो इतनी आयु में शुद्ध लिखना भी नहीं प्राता, जब कि श्रीमद्जीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्व भव का अभ्यास ही इसमें कारण था । इससे पहले पुष्पमाला, भावना बोध आदि पुस्तकं लिखी थीं । श्रीमद्जी मोक्षमाला के सम्बन्ध में लिखते हैं कि - " इस ( मोक्षमाला ) में मैंने जैन धर्मके समझानेका प्रयत्न किया है; जिनोक्त मार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक नहीं लिखा है । वीतराग मार्ग में प्राबाल-वृद्ध की रुचि हां, उसके स्वरूप को समझें तथा उसका बीज हृदयमें स्थिर हो, इस कारण इसकी बालावबोधरूप रचना की है ।"
इनकी दूसरी कृति आत्म-सिद्धि है, जिसको श्रीमद्जीने १ || घंटे में नडियाद में बनाया था । १४२ दोहोंमें सम्यग्दर्शन के कारणभूत छह पदों का बहुत ही सुन्दर पक्षपात रहित वर्णन किया है । यह कृति नित्यं स्वाध्याय की वस्तु है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य के पंचास्तिकायकी मूल गाथाओं का भी इन्होंने अक्षरश: गुजराती में अनुवाद किया है, जो 'श्रीमद्राजचन्द्र' ग्रन्थ में छप चुका है ।
और उसमें,
प्रथमादि दो स्तवनों का अर्थ भी किया था; पर तथा प्राकृत भाषापर प्रापका पूरा अधिकार था। निपुण थे ।
श्रीमद्जी ने प्रानन्दघन चौबीसीका अर्थ लिखना प्रारम्भ किया था रह गया है । संस्कृत समझाने में श्राप बड़े
न जाने सूत्रोंका
क्यों अपूर्ण यथार्थ अर्थ
प्रात्मानुभव - प्रिय होनेसे श्रीमद्जीने शरीर की कोई चाह नहीं रखी। इससे पौद्गलिक शरीर अस्वस्थ हुप्रा । दिन-प्रतिदिन उसमें कृशता आने लगी । ऐसे ही अवसर पर श्रापसे किसीने पूछा- 'आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?' श्रीमद्जीने उत्तर दिया 'हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और श्रात्मा | हमारा पानी श्रात्मा रूपीं बगीचे में जाता है, इससे शरीर रूपी बगीचा सूख रहा है।' देहके अनेक प्रकारके उपचार किए गए। वे बढ़वाण, धर्मपुर प्रादि स्थानों में रहे, किन्तु सब उपचार निष्फल गए । कालने महापुरुषके जीवनको रखना उचित न समझा । अनित्य वस्तु का सम्बन्ध भी कहां तक रह सकता है ? जहां सम्बन्ध वहां वियोग भी अवश्य है । देहत्याग के पहले दिन शामको श्रीमद्जीने श्री रेवाशंकर श्रादि मुमुक्षुत्रों से कहा - ' तुम लोग निश्चिन्त रहना । यह भ्रात्मा शाश्वत है । अवश्य विशेष उत्तम गति को प्राप्त होगा । तुम शान्त और समाधिपूर्वक
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रहना । मैं कुछ कहना चाहता था, परन्तु प्रब समय नहीं है। तुम पुरुषार्थ करते रहना' प्रभातमें श्रीमद्जीने अपने लघु भ्राता मनसुखभाई से कहा-'भाई का समाधिमरण है । मैं अपने प्रात्मस्वरूप में लीन होता हूं।' फिर वे न बोले। इस प्रकार श्रीमद्जीने वि० सं० १६५७ मिती चैत्र वदी ५ ( गुजराती ) मंगलबारको दोपहरके २ बजे राजकोट में इस नश्वर शरीरका त्याग किया।
इनके देहान्तके समाचारसे मुमुक्षुत्रों में अत्यन्त शोकके बादल छा गये। अनेक समाचार पत्रोंने भी इनके लिये शोक प्रदर्शित किया था।
श्रीमद्जीका पार्थिव शरीर आज हमारी प्रांखों के सामने नहीं है, किन्तु उनका सद्उपदेश, जब तक लोकमें सूर्य-चन्द्र हैं तब तक स्थिर रहेगा तथा मुमुक्षुत्रोंको प्रात्म-ज्ञानमें एक महान सहायक रूप होगा।
.श्रीमद्जीने परम सत् श्रुत के प्रचारार्थ एक सुन्दर योजना तैयार की थी। जिससे मनुष्यसमाजमें परमार्थ मार्ग प्रकाशित हो। इनकी विद्यमानतामें वह योजना सफल हुई और तद्नुसार - परमश्र व प्रभावक मंडलकी स्थापना हुई। इस मंडलकी प्रोरसे दोनों सम्प्रदायोंके अनेक सद्ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। इन ग्रन्थोंके मनन अध्ययनसे समाजमें अच्छी जागृति पाई। गुजरात, सौराष्ट्र पौर कच्छमें भाज घर घर सद्-ग्रन्थोंका जो अभ्यास चालू है वह इसी संस्थाका ही प्रताप है। 'रायचंद्र अने ग्रन्थमाला' मंडल की अधीनता में काम करती थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और भाई रेवाशकर जगजीवनदासजी मुख्य कार्यकर्ता थे। भाई रेवाशंकरजी के देहोत्सर्ग के बाद संस्था में कुछ शिथिलता प्रागई; परन्तु अब उस संस्था का काम श्रीमद् राजचन्द्र माधम अगासके ट्रस्टियोंने संभाल लिया है और सुचारु रूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहे हैं।
इस पाश्रमकी प्रोरसे श्रीमद्जी का सभी साहित्य सुपाठ्य रूपसे प्रकाशित हुआ है। 'श्रीमद् राजचन्द्र' एक विशाल ग्रन्थ है, जिसमें उनके प्राध्यामिक पत्र तथा लेखोंका अच्छ।
पग्रह है।
श्रीमदजीके विषय में विशेष जानने की इच्छा वालोंको, इस प्राश्रम से प्रकाशित 'श्रीमद राजचन्द्र जीवनकला' अवलोकनीय है।
-गुरगभद्र जैन.
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आचार्य अमृतचन्द्र
प्राध्यात्मिक विद्वानों में भगवत्कुन्दकुन्दके बाद यदि किसीका नाम लिया जा सकता है तो चे प्राचार्य अमृतचन्द्र हैं । दुःख की बात है कि इतने महान् प्राचार्य के विषय में इसके सिवाय हम कुछ भी नहीं जानते कि उनके बनाये हुए अमुक अमुक ग्रन्थ हैं। उनकी गुरु-शिष्यपरम्परासे और समयादि से हम सर्वथा अनभिज्ञ हैं । अपने दो ग्रन्थों के अन्त में वे कहते हैं कि तरह तरह के वर्षों से पद बन गये, पदों से बाक्य बन गये और वाक्यों से यह पवित्र शास्त्र बन गया। मैंने कुछ भी नहीं किया' । अन्य ग्रन्थों में भी उन्होंने अपना यही निर्लिप्त भाव प्रकट किया है। इससे अधिक परिचय देने की उन्होंने प्रावश्यकता हो नहीं समझी।
उनके बनाये हुए पांच ग्रन्थ उपलब्ध हैं और वे पांचों ही संस्कृतमें हैं-१ पुरुषार्थसिद्धय पाय, २ तत्त्वार्थसार, ३ समयसार-टीका, ४ प्रवचनसार-टीका और ५ पंचास्तिकाब-टीका। पहला श्रावकाचार है जो उपलब्ध तमाम श्रावकाचारों से निराला और अपने ढंग का अद्वितीय हैं। दूसरा उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्र का अतिशय स्पष्ट, सुसम्बद्ध और कुछ पल्लवित पद्यानुवाद है। शेष तीन भगवत्कुन्दकुन्दके प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थों की संस्कृत टोकायें हैं, जिनकी रचनासली बहुत ही प्रौढ़ और मर्मस्पर्शिनी है।
पं० प्राशाधरने अपने मनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिकाटीका में अमृतचन्द्रको दो स्थानों में 'ठक्कुर' नामसे अभिहित किया है
१ एतदनुसारेणैव ठक्कुरोपीदमपाठीत-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे ।पृ. १६० २ एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारटीकायां दृष्टव्यम् ।-पृ० ५८८
ठक्कुर और ठाकुर एकार्थवाची हैं । अक्सर राजघरानेके लोग इस पदका व्यवहार करते थे। सो यह उनकी गृहस्थावस्थाके कुलका उपपद जान पड़ता है।
मनगारधर्मामृत-टीका वि० सं० १३०० में समाप्त हुई थी। प्रतएव उक्त समयसे पहले तो वे निश्चयसे हैं और प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका टीकामें 'जावदिया वयणवहा' और 'परसमयाणं वयणं' प्रादि की गाथायें गोम्मटसार । कर्मकाण्ड ८६४-६५, से उद्धत की गई जान पड़ती हैं। चकि गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र सि.च० का समय विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वार्ध है इसलिए अमृतचंद्र उनसे बादके हैं । अर्थात् वे वि० १३०० से पहले और ग्यारहवीं सदीके पूर्वार्धके बाद किसी समय
१. वर्णः कृतानि चित्र: पदानि तु पदै:कृतानि वाक्यामि।
बाक्यः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्भामिः ॥-पु.सि.
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प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव ( पृ० १७७ ) में अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धय पायका 'मिथ्यात्ववेदरामा' प्रादि पद्य 'उक्त च' रूपसे उद्धत किया है, इसलिए अमृतचन्द्र शुभचन्द्र से भी पहलेके हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने अभचन्द्र के ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्ध त किया है, इसलिए शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पहलेके हैं।
लेखान्तरमें हमने पद्मप्रभका समय विक्रमकी बारहवीं सदीका अन्त और तेरहवीं सदीका प्रारंभ बतलाया है, इसलिए अमृतचन्द्रका समय विक्रमकी बारहवीं सदीके बाद नहीं माना जासकता।
_ डा. ए. एन. उपाध्येने प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें तात्पर्यवृत्तिके कर्ता जयसेनका समय ईसाकी बारहवीं सदीका उत्तरार्ध, अर्थात् विक्रमकी तेरहवीं सदीका प्रारंभ अनुमान किया है, और जयसेन अमृतचन्द्रकी तत्त्वदीपिकासे यथेष्ट परिचित जान पड़ते हैं। इससे भी अमृतचन्द्रका समय उनसे पहले, विक्रमकी बारहवीं सदो ठीक जान पड़ता है।
क्या अमृतचन्द्रका कोई प्राकृत ग्रन्थ है ? प्रवचनसारकी तात्पर्य कृत्तिमें जयसेनाचार्यने नीचे लिखी दो माथानोंकी टीका की है, परन्तु अमृतचन्द्रसूरिने अपनी वृत्तिमें नहीं की। इससे मालूम होता है कि वे इन्हें मूलग्रन्थकी नहीं मानते थे।
पक्केसु अामेसु अविपच्चमाणासु मांसपेसीसु । संततियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं । जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्म खादि फासदि वा।
सो किल णिहणदि पिडं जीवाणमणेगकोडीणं ॥ राजवातिकमें सूत्र २२ की टीका (पृ. २८४ में नीचे लिखी गाथा 'उक्त च' रूपमें दी गई है
रागादीणमणुप्पा अहिंसत्तति देसिदं समये ।
तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणे हि णिहिट्ठा। इसी तरह अनगारधर्मामृत टीका (पृ० ५४२) में नीचे लिखी गाथा 'उक्त च' रूपमें दी हुई है
अप्पा कुणदि सहावं तत्थ गदा पुग्गला सहावेहिं ।
गच्छंति कम्मभावं अण्णुण्णागाढमोगाढा ॥ __हम देखते हैं कि पुरुषार्थसिय पायमें इन चारों गाथाओंका प्रायः शब्दशः अनुवाद इस प्रकार मौजूद है
प्रामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु ।
सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ।। २. देखो नियमसारठीकाका पृ. ७२ और ज्ञानार्णवका पृ० ४३१
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यामां का पक्का वा खादति ः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । ....... स निहन्ति सततनिचित्तं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।। ६६ ।।.. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेत्ति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। ४४ ॥ जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। १२ ।।
इन अनुवादित पद्यों को देखकर पहले हमने यह अनुमान किया था कि अमृतचन्द्रका पुरुषार्थसिद्धय पाय जैसा ही कोई प्राकृत ग्रन्थ भी होमा और अपने ही ग्रन्थका उन्होंने संस्कृत अनुवाद कर लिया होगा । परन्तु अब ऐसा मालूम होता है कि उक्त प्राकृत पद्य किसी प्राचीन ग्रन्थके हैं और उनकी ही छाया पुरुषार्थसिद्धय पाबमें ले ली गई है। क्योंकि राजवार्तिकमें उद्धत पूर्वोक्त पद्यको अमृतचन्द्रका माननेसे वे अकलंकदेवके भी पूर्ववर्ती सिद्ध होंगे, और उनको इतना प्राचीन मानने के लिए और कोई प्रमाण नहीं हैं । तत्त्वार्थसारके 'मोक्षतत्त्व' अध्यायका 'दग्धे बीजे यथात्यन्तं' पादि सातवां श्लोक पौर २० से लेकर ५४ तकके श्लोक प्रकलंकदेवके राजवार्तिकसे लिये गये जान पड़ते हैं। इसके सिवाय ये सब श्लोक तत्त्वार्वाधिगमभाष्यमें भी दो चार शब्दोंके हेर-फेरके साथ मिलते हैं। अतएव कमसे कम ये स्वयं अमृतचन्दके तो नहीं जान पड़ते
श्वेताम्बराचार्य मेघविजयजीने अपने युक्तिप्रबोध में अमृतचन्द्र के नामसे कई पद्य उद्धत किये हैं। उनमें भी नीचे लिख दो पद्य प्राकृतके हैं । अतएव इनसे भी हमने अनुमान किया था कि अमृतचंद्र का कोई प्राकृत ग्रन्थ होगा--
१-“यदुवाच अमृतचन्द्र :
सव्वे भावा जम्हा पच्चक्खाई परित्ति नाऊण । तम्हा पच्चक्खाणं जाण णियमा मुणेयव्वं ॥" .:.
-सातवीं गाथाकी टोका २-"श्रावकाचारे अमृतचन्द्रोप्याह
संघो कोवि न तारइ कट्ठो मूलो तहेब निप्पिच्छो।
प्रप्पा तारह अप्पा तम्हा प्रप्पा दु झायव्वो ॥" इनमेंसे पिछली गाथा तो 'ढाढसी गाथा' नामक ग्रन्थकी है, अमृतचन्द्रकी नहीं। इसी तरह पहली गाथा भी अमृतचन्द्र के किसी ग्रन्थमें नहीं मिलती, यह भी किसी प्राचीन अन्धकी जान पड़ती है और इसे भी अमृतचन्द्रकी बतलाने में मेघविजयजीका कुछ प्रमाद हुआ है।
____ 'ढाढसी गाथा' ३८ गाथानोंका एक छोटा-सा प्रकरण है। बम्बईको रायले एशियाटिक सोसाइटीकी लाइब्रेरीमें जो हस्तलिखित प्रत्योंका संग्रह है, उसमें इसकी एक संस्कृतटीकासहित प्रति (नं० १६१० ) भी है। अभी हाल ही हमने बड़ी उत्सुकतासे इस प्रतिको देखा। सोचा कि टीकासे
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( १६ )
शायद इसके कर्ता प्रादिके विषय में कोई नई बात मालूम हो । परन्तु निराश होना पड़ा। उसमें न तो टीकाकर्त्ताने अपना नाम ही दिया है और न मूलके विषय में ही कुछ लिखा है । अन्तमें इतना ही लिखता है - " इति ढाढसीमुनीनां विरचिता गाथा सम्पूर्णा ।" मालूम नहीं, ये ढाढसी मुनि कौन और कब हुए हैं ? ढाढसी नाम भी बड़ा प्रद्भुत सा है ।
इस ग्रन्थ में काष्ठासंघ, मूलसंघ और नि: पिच्छिक ( माथुर ) संघों का उल्लेख है श्रोर इनमें से अन्तिम माथुर संघकी उत्पत्ति देवसेनसूरिके दर्शनसार में वि० सं० ६५३ के लगभग बतलाई गई है । यदि वह सही है तो यह ग्रन्थ विक्रमकी ग्यारहवीं सदीके पहले का नहीं हो सकता । परन्तु इससे मृतचन्द्र के समय निर्णयमें कोई सहायता नहीं मिल सकती। हां, यदि अमृतचन्द्रने अपने किसी ग्रंथ में उक्त 'संघो को वि' 'आदि गाथा उद्धत गाथाको हीं मेघविजयजीने उनकी समझ लिया हो, तो फिर इससे भी ढाढसी गाथा के बाद १० वीं शताब्दिका प्रमृतचन्द्रको मान सकते हैं ।
( जैन साहित्य और इतिहाससे उद्धत )
मृतचन्द्र के विषय में कुछ नया प्रकाश
अभी हालही रल्हनके पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कविका 'पज्जुष्णचरिउ ( प्रद्य ुम्नचरित ) नामका अपभ्रंश काव्य प्राप्त हुआ है जो कि बांभणवाड़ा ( सिरोही के पास ) निर्मित हुआ था ।" उस समय वहांका राजा मुहिलवंशी भुल्लण था जो मालवनरेश बल्लालका मांडलिक था और जिसका राज्यकाल विक्रम संवत् १२०० के आस-पास है। इस काव्य में लिखा है कि एक समय मलधारिदेव
१- इस काव्यका विस्तृत परिचय मेरे स्वर्गीय मित्र मोहनलाल दलोचन्द देसाई बी० ए०, एलएल. बी०, अपने 'कुमारपालना समय एक प्रपत्र श काव्य' शीर्षक गुजराती लेखमें दिया है जो 'श्री प्रात्मानन्दजन्मशताब्दि स्मारक ग्रन्थ' में प्रकाशित हुआ है ।
२- मालवे के परमार राजाग्रोंकी वंशावली में 'बल्लाल' का नाम नहीं मिलता। यह किस वंशका था, सो भी पता नहीं । परन्तु 'मालवराज' विशेषल इसके साथ लगा हुआ है । परमार राजा यशोवर्मा के बाद इसका मालवे पर अधिकार रहा है । यशोवर्माका अन्तिम दानपत्र वि० सं० १९९२ का लिखा हुआ मिला है । बल्लालको कुमारपाल सोलंकीने हराया था और कुमारपाल वि० सं० १२०० में गद्दीपर बैठे थे ।
B - ता मलधारिदेउ मुनिमु र पञ्चक्खु धम्मु उबसमु दमु । माहउचंदु प्रासि सुपसिद्धउ, जो लमदम जम- रियमसमिद्धउ ।। तासु सीसु तव तेय-दिवायरु वय-तव-रियम-सील रयणायरु । तक्क- लहरि कोलिय परमउ, वर- बाबरण-पवर पसरिय उ । जासु भुवण दूरंतरु वंकिवि ठिउ पच्छण्णु मयणु श्रासं किवि । श्रमियवंदु लामेरण भडारउ, सो बिहरंतु पत्त वुहसारउ, सरि-सर-णंदरण-वण संछण्णउ, मढ -विहार- जिण भण्वण खष्णउ । भणवाडउ णामें पट्टणु, अरिणरणाह-सेज - दिलवट्टरणु, जो भुजइ प्ररिणखयकालहो, रणधोरियहो सुयहो वल्लाल हो । जासु भिच्छ दुज्जा-मण सल्ल, सत्तिउ गुहिलउत्त, जहि भुल्लणु । तहि संपत्त, मुणी सरु जावहि भव्वुलोड श्राणंद ताहि ।
पत्ता-पर-बाइय-बाया हरु, छम्मू, सुयकेवलिजो पदरक्खुषम्मु । सों जयउ महामुणि श्रमियचंदु, जो मरिण वह कर वह चंदु | मल्लधारिदेव-पय-पोम मसलु, जंगम सरसइ सव्वत्य कुस लु ।
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( १७ )
माघवचन्द्रके शिष्य श्रमियचंदु (प्रमृतचन्द्र) विहार करते हुए वांभणवाड़े में आये, कविने उनकी अभ्यर्थनः की नौर उन्हींके कहनेसे प्रद्युम्नचरितकी रचना की । अमृत चन्द्रको कविने तपतेजदिवाकर, व्रत-तप-शीलरत्नाकर, तर्कलहरिशंकोलितपरमत वर-व्याकरण- प्रवरप्रसरितपद, जंगम सरस्वती प्रादि विशेषण दिये हैं ! इन विशेषणों में यद्यपि ऐसी कोई सूचना नहीं है जिससे हम निश्चयपूर्वक इन अमृतचन्द्रको प्रसिद्ध ग्रन्थकार अमृतचन्द्र कह सकें, अमृतचन्द्रने अपने गुरुका नाम भी कहीं नहीं दिया है, जिससे मलधारि माघवचन्द्रके शिष्य प्रमृतचन्द्रसे उनकी एकता सिद्ध की जा सके; फिर भी संभावना है कि दोनों एक ही हों और इसलिए यहां इस प्रसंगका उल्लेख कर देना उचित प्रतीत हुआ । ऊपर अमृतचन्द्र के समयका जो अनुमान किया गया है, उससे भी इसमें इतना अधिक अन्तर नहीं है कि उसका समाधान न हो सके । संभव है बांभणवाड़ में आनेके समय वे वृद्ध हों और प्रपने ग्रन्थोंकी रचना वे इससे बहुत पहले कर चुके हों ।
जनवरी १९३७
- नाथूराम प्रेपी
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चौथी आवृत्ति की भूमिका
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इस ग्रन्थकी टीका सन् १९०४ में अबसे लगभग ४६ वर्ष पहले लिखी गई थी। उस समय मैं, इस क्षेत्रमें बिलकुल नया था और अपने परिश्रमके सिवाय मेरे पास ज्ञानकी कोई विशेष प्रजी नहीं थी। फिर भी इसे लोगोंने पसन्द किया और अब इसकी यह चौथी प्रावृत्ति प्रकाशित हो रही है।
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मैंने चाहा कई बार कि इसको एक बार अच्छी तरह पढ़ जाऊ और इसमें जो त्रुठिय़ां हैं, उनकी पूर्ति कर दू । परन्तु हर बार प्रकाशक उसे ज्योंका त्यों ही प्रकाशित कराले गये। अब ४३ वर्ष बाद जब इसकी चौथी प्रावृत्तिको प्रेस में दे दिया गया, तब भाई कुन्दनलाल ने इसकी सूचना मुझे दी। परन्तु दुर्भाग्यसे इसी समय मैं बीमार पड़ गया और इसलिए सिर्फ इतना ही कर सका कि प्रत्येक , फार्मका प्रफ एक बार देख गया और साधारण-से संशोधन कर सका। पं. बंशीधरजी शास्त्री (शोलापुर) से भी पूरे ग्रन्थके प्रफ दिखा लिये गये हैं, इस स्त्रयालसे कि कहीं कोई व्याकरण और सिद्धान्तसम्बन्धी अशुद्धि न रह जावे ।
जैसा कि पहले संस्करणकी प्रस्तावनामें लिखा गया है मैंने यह टीका मुख्यतः दो टीकाओंके आधारसे लिखी है
१ पंडित प्रवर टोडरमल की टीका जो कि अपूर्ण है और जिसे पं० दौलतरामजीने वि० सं० १८२७ में पूरा किया था।
२ शाहगंज (आगरा) के पं० भूधर मिश्रकृत टीका जो वि० सं० १८७१ में समाप्त की गई है।
स्व० बाबू सूरजभानजी वकील द्वारा प्रकाशित उनकी संक्षिप्त हिन्दी टीका भी उस समय मेरे सामने थी।
इधर पं० टोडरमलजीके जीवन के सम्बन्धमें जयपुरके पं० चैनसुखदासजीने 'वीरवाणी' में ( ३ फरवरी १९४८ ) जो बातें प्रकट की हैं उनका सारांश यह है
पं० टोडरमलजी विक्रमकी १६ वीं शताब्दिके असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् थे। अपनी २८ वर्षकी अल्पायुमें उन्होंने जैन-साहित्यकी अतुलनीय सेवा की थी। मोक्षमार्गप्रकाश उनकी मौलिक अमर कृति है, यह यद्यपि उनकी असमायिक मृत्युके कारण अधूरा ही रह गया है, फिर भी जितना है उतना ही अपूर्व है। वे विद्वान, धार्मिक क्रान्तिकर्ता, साहित्यसर्जक और असाधारण व्याख्याता थे। उनका जन्म वि० सं० १७६७ के लगभग हुआ था। ११-१२ वर्षकी अवस्थातक विद्याभ्यास करते रहे। १३-१४ वर्षके होते होते स्वमत-परमतके अनेक ग्रन्थोंका अभ्यास कर लिया। संभवतः उसी समय वे जयपुरसे सिंघाणा चले गये और तीन-साढ़े तीन वर्षमें चार विशाल ग्रन्थोंकी भाषाटीकायें लिखीं,
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१८१५ में जयपुर आ गये । पिताजीकी मृत्यु हो गई और तब गृहस्थीका भार उनपर आ पड़ा। सम्बत् १८१६ में उनके हरिश्चन्द्र और १८१८ में गुमानीराम नामक पुत्रोंका जन्म हुमा। १८१८ में गोम्मटसार आदिकी सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकाका संशोधन कार्य पूर्ण हुा । मोक्षमार्गप्रकाशका प्रारंभ १८१६ के लगभग हुअा होगा। उनकी गोम्मटसार, क्षपणासार-लब्धिसार, त्रिलोकसार और प्रात्मानुशासन इन चार ग्रन्थोंकी भाषाटीकायें प्रसिद्ध हैं। पुरुषार्थसिद्धय पायकी टीका अधूरी है। साम्प्रदायिकताके मदसे उन्मत्त षड्यंत्रकारियोंने इस महान् विद्वानकी हत्या कर डाली।
पं० भूधर मिश्र आगराके समीप शाहगंजके निवासी ब्राह्मण थे। मापके गुरुका नाम पं० रंगनाथ था। सं० १८७१ की भादों सुदी १० को अपने पुरुषार्थसिद्धय पाय-टीका पूर्ण की थी। आप बड़े विद्वान् थे, इस टीकामें यशस्तिलकचम्पू, रयणसार, धर्मोपदेशपीयूष श्रावकाचार, प्रबोधसार, योगीन्द्रदेवकृत श्रावकाचार, यत्याचार आदि अनेक प्रन्थोंके प्रमाण यथावसर दिये हैं। प्रापका लिखा हुआ 'चरचा-समाधान' नामक प्रन्थ भी प्रसिद्ध है।
मूलग्रन्थकर्ता प्राचार्य अमृतचन्द्रका परिचय मेरे लिखे हुए 'जैन साहित्य और इतिहास' से उद त कर दिया जाता है। हीराबाग, बम्बई, ता. १-३-५३
-नाथूराम प्रेमी
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विषय-सूची
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आचार्य अमृतचन्द्रसूरि
सप्त शालवत भाषाकार पं० टोडरमलजीका मंगलाचरण १ | गुणवत मूलग्रन्थकर्ता अमृतचन्द्रसूरिका ,
| दिग्वत उत्थानिका
देशवत निश्चयनय व्यवहारनयका स्वरूप
अनर्थदण्डवत
शिक्षाव्रत ग्रन्थ प्रारम्भ
सामायिकव्रत कर्मोंका कर्ता और भोक्ता प्रात्मा है
करनेकी विधिजीव परिणमन
प्रोषधोपवासव्रतपुरुषार्थसिद्धय पायका प्रर्थ
भोगोपभोगपरिमाण धर्मोपदेशकी रोलि, क्रम-भंग करनेवाला अतिथिसंविभागवत
दंडका पात्र १४
दाताकी नवधा भक्ति१--धावकधर्मव्याख्यान
दाताके सात गुणसम्यक्त्वका लक्षण
दानके पात्रसात तत्त्वोंका स्वरूप
४-सल्लेखनाधर्मव्याख्यानसम्यक्त्वके प्राउ अगोंका वर्णन
१८ | सल्लेखना-समाधिमरणकी विधि२-सम्यग्ज्ञानव्याख्यान
सम्यक्त्वके पांच प्रतीचारप्रमाण और नयोंका स्वरूप
अहिंसावतके ज्ञानके और उसके भेदोंका वर्णन- २५ | सत्याणुव्रतके , ३-सम्यक्चारित्रव्याख्यान २६ अचौर्यव्रत , के भेद और उनका स्वरूप- २७
ब्रह्मचर्यव्रत
दिग्व्रत हिंसाका स्वरूप
देशव्रत अहिंसावतका वर्णनसत्यव्रत और उनके भेदोंका वर्णन
अनर्थदण्डव्रत प्रचौर्यव्रत
सामायिकवत
उपवासव्रत ब्रह्मचर्य
भोगोपभोगपरिमाण, परिग्रहप्रमाण
अतिथिसंविभागवत , रात्रिभोजन त्याग
५६ सल्लेखनाव्रत
७३
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(
२२
)
USUS
५-सकलचारित्रव्याख्यानतपके दो मैद-बाह्य और प्राभ्यन्तरषट् प्रावश्यकतीन गुप्तिपांच समितिदशलशण धर्मबारह भावनायें-और उनके भेदोंका वर्णन बाईस परीषह " प्रात्माका रागसे बन्ध
८५ | चार प्रकारके बन्धका स्वरूप| सम्यक्त्व और चारित्र बन्धके कर्ता नहीं किन्तु
उदासीन कारण हैं- १०२ रत्नत्रय ही मोक्षका कारण है
१०२ जैनीनीति स्याद्वाद-अनेकान्तका स्वरूप- १०॥ ग्रन्थकारकी लघुता
१०४ | परिशिष्ट १-श्लोकानुक्रमणिका ॥ २-उद्ध तकी ,
१०१ ६५ | सूची
७.
७
१०४
२
E-08
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नमः सर्वज्ञाय । श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमाला श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचित
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
सरल भाषानुवाद सहित ।
मंगलाचरण' -- दोहा-परम पुरुष निज प्रर्षको, साध भये गुणवृन्द ।
प्रानन्दामृतचन्द्रको, बन्दत हूँ सुखकन्द ॥१॥ बानी बिन बैन न बने, बैन बिना बिन नैन । नैन बिना बानि न बने, नवों बानि बिन बैन ॥ २ ॥ गुरु उर भाव प्राप पर, तारक वारक पाप । सुरगुर गावं प्राप पर, हारक वाच कलाप ॥ ३ ॥ मैं नमो नगन जैन जिन, ज्ञान ध्यान धन लीन । मैनमान बिन दान धन, एनहीन तन छीन ॥ ४ ॥
कवित्त-( मनहरण ३१ वर्ण ) कोऊ नय-निश्चयसे प्रातमाको शुद्ध मान, भये हैं सुछन्द न पिछाने निज शुद्धता। कोऊ व्यवहार दान शील तप भावको ही, मातमको हित जान छांडत न मुद्धता ॥ कोऊ व्यवहारनय मिरचयके मारमको, भिन्न भिन्न पहिचान कर मिन उद्धता । जब जाने निश्चयके भेव व्यवहार सब, कारण है उपचार मानें तब बुद्धता ॥५॥ दोहा-श्रीगुरु परमदयाल हूं, दियो सत्य उपदेश ।
__ ज्ञानी माने जानके, ठाने मूढ़ कलेश ॥६॥
१-भाषाकार स्व. पं० टोडरमलजी रचित ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम्
[ मंगलाचरण सूत्रावतारः आर्याछन्दाः-तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः ।
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ १ ॥ अन्वयाथों-[ यत्र ] जिसमें [ दर्परखनल इव ] दर्पणके पृष्ठभागके समान [ सकला ] सम्पूर्ण [ पदार्थमालिका ] पदार्थोंका समूह [ समस्तैरनन्तपर्यायः समं [ अतीत, अनागत, वर्तमानकालकी समस्त अनन्त पर्यायोसहित [ प्रतिफलति ] प्रतिबिम्बित होता है, [ तत् ] वह [ परंज्योतिः ] सर्वोत्कृष्ट शुद्धचेतना स्वरूपी प्रकाश [ जयति ] जयवन्त होप्रो।
भावार्थ-शुद्ध चेतना प्रकाशकी कोई ऐसी ही महिमा है कि उसमें सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने आकारसे प्रतिभासित होते हैं, और फिर उन पदार्थोंके जितने भूत भविष्यत् वर्तमान पर्याय हैं, वे भी प्रतिबिम्बित होते हैं, जैसे पारसोके पृष्ठभागमें घट पटादिक पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं ।
__ पारसीके दृष्टान्तमें विशेषता है। पारसीके कुछ ऐसी अभिलाषा नहीं है कि मैं इन पदार्थोको प्रतिबिम्बित करूं, और पारसी उस लोहेकी सुईके समान जो कि चुम्बक पाषाणके समीप स्वयमेव जाती है, अपने स्वरूपको छोड़ उनके प्रतिबिम्बित करनेको पदार्थों के समीप नहीं जाती, तथा वे पदार्थ भी अपने स्वरूपको छोड़कर उस पारसीमें प्रवेश नहीं करते, तथा वे पदार्थ प्रापको प्रतिबिम्बित करने के लिये साभिप्रायी (गरजी) पुरुषके सदृश प्रार्थना भी नहीं करते। सहज ही ऐसा सम्बन्ध है कि जैसा उन पदार्थों का आकार है वैसे ही आकाररूप होकर पारसीमें प्रतिबिम्बित होते हैं। प्रतिबिम्बित होनेपर पारसी ऐसा नहीं मानती है कि “यह पदार्थ मुझको भला है, उपकारी है, राग करने योग्य है, अथवा बुरा है, अपकारी है, द्वेष करने योग्य है" किन्तु सर्व पदार्थों में साम्यभाव पाया जाता है। जैसे कितने एक घट पटादि पदार्थ पारसोमें प्रतिबिम्बित होते हैं, वैसे ही ज्ञानरूपी पारसी (दर्पण ) में समस्त जीवादिक पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं । ऐसा कोई द्रव्य व पर्याय नहीं जो ज्ञानमें न आया हो। अतः शुद्ध चैतन्य पदार्थकी सर्वोत्कृष्ट महिमा स्तुति करने योग्य है। यदि यहाँ पर कोई प्रश्न करे कि मंगलाचरणमें गुणीका स्तवन नहीं करके केवल गुणका स्तवन क्यों किया ? तो इसका उत्तर यह है कि उक्त मंगलमें प्राचार्य महाराजने अपनी परीक्षाप्रधानता व्यक्त की है। क्योंकि भक्त पुरुष प्राज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानी ऐसे दो भेदरूप होते हैं। इनमेंसे जो पुरुष परम्परा मार्गसे देव गुरुके उपदेशको ज्यों त्यों प्रमाण कर विनयादि क्रियारूप प्रवृत्ति करता है, उसे प्राज्ञाप्रधानी कहते हैं; और जो प्रथम अपने सम्यग्ज्ञानद्वारा स्तुति करने योग्य गुणोंका निश्चयकर पश्चात् बहुगुणी जानकर श्रद्धा करता है, उसे परीक्षाप्रधानी कहते हैं। क्योंकि ऐसा शास्त्रकारोंने कहा है "मुरणाः पूजास्थानं गुरिणषु न च लिङ्गन च वयः" अर्थात् कोई स्थान, वृद्धावस्था अथवा वेष पूज्य नहीं है, गुण ही पूज्य हैं । इस प्रकरणमें 'शुद्ध चैतन्यप्रकाशरूप गुण स्तुत्य है' ग्रन्थकर्ता प्राचार्यने यही प्रकट किया है। इस बातको सब ही स्वीकार करेंगे कि जिस पदार्थ विशेषमें उपयुक्त असाधारण गुण प्राप्त होवें वह सहज ही स्तुत्य होता है। क्योंकि गुण गुणी ( पदार्थ ) के ही आश्रित रह सकता है, पृथक् नहीं रह सकता; और किंचित् विचार करनेसे उक्त शुद्ध चैतन्य प्रकाश गुण अरहंत और सिद्धोंमें नियमसे निश्चित होता है।
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३
श्लोक १-२-३]
पुरुषार्थसिद्धचु पायः। इस प्रकार ग्रन्थकर्ता अमृतचन्द्रसूरि अपने इष्टदेवका स्तवन करनेके पश्चात् इष्टागमको नमस्कार करते हुए कहते हैं
परमागमस्य 'जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ।
सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ २॥
अन्वयाथों-[ निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ] जात्यन्ध पुरुषोंके हस्ति-विधानका निषेध करनेवाले [ सकलनयविलसितानां ] समस्त नयोंसे प्रकाशित वस्तु स्वभावोंके [ विरोधमथनं ] विरोधोंको दूर करनेवाले [ परमागमस्य ] उत्कृष्ट जैनसिद्धान्तके [ जीवं ] जीवनभूत [अनेकान्तम् ] एकपक्ष रहित स्याद्वादको ( अहम् ) मैं अमृतचन्द्रसूरि [ नमामि ] नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-जैसे जन्मके अंधे पुरुष हाथीके पृथक् पृथक् अवयवोंका स्पर्श करके उनसे हाथीका आकार निश्चय करने में वाद-विवाद करते हुए भी कुछ निश्चय नहीं कर सकते, और नेत्रवान पुरुष उनके सब कल्पनाकृत आकारविषयक वादको क्षणमात्रमें दूर कर देता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग वस्तु के अनेक अङ्ग अपनी बुद्धिसे भिन्न भिन्न रीतियोंसे निश्चय करते भी सम्यग्ज्ञान विना सर्वाङ्ग वस्तुको न जानकर परस्पर विवाद करते रहते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञानी स्याद्वाद-विद्याके प्रभावसे यथावत् वस्तुका निर्णय कर भिन्न भिन्न कल्पनाओंको दूर कर देता है, यथा-साङ ख्यमती वस्तुको केवल नित्य और बौद्ध क्षणिक मानता है. परन्तु स्याद्वादी कहता है कि जो सर्वथा नित्य है, तो अनेक अवस्थाअोंका पलटना किस प्रकार होता है ? और जो सर्वथा क्षणिक है तो “यह वही वस्तु है, जो पहिले देखी थी" इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान क्यों होता है ? अतएव पदार्थ द्रव्यकी अपेक्षा कथञ्चित् नित्य और पर्यायकी अपेक्षा क्षणिक है, तथा स्याद्वादसे सर्वाङ्ग वस्तुका निश्चय होनेसे एकान्त श्रद्धानका निषेध होता है।
___नयविवक्षासे वस्तुमें अस्ति नास्ति, एक अनेक, भेद प्रभेद, नित्य अनित्य, आदि अनेक स्वभाव पाये जाते हैं, और उन स्वभावों में परस्पर विरोध ज्ञात होता है, जैसे-'अस्ति' और 'नास्ति' में बिलकुल प्रतिपक्षीपन है, परन्तु उन्हीं स्वभावोंको स्याद्वादसे सिद्ध करने में समस्त विरोध दूर हो जाते हैं । क्योंकि-एक ही पदार्थ कथञ्चित् स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप 'कथञ्चित् परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप, कथञ्चित् समुदायकी अपेक्षा एकरूप, कथञ्चित् गुणपर्यायकी अपेक्षा अनेकरूप, कथञ्चित् संज्ञा संख्या लक्षणकी अपेक्षा गुणपर्यायादि अनेक भेदरूप, कथञ्चित् सत्त्वकी अपेक्षा अभेदरूप, कथञ्चित् द्रव्यकी अपेक्षा नित्य, और कथञ्चित् पर्यायकी अपेक्षा से अनित्य होता है। इस प्रकार स्याद्वादसे सर्व विरोध दूर हो जाते हैं; इसलिये उसे “सकलनयविलसितानां विरोधमथनं" यह विशेषण दिया है ।
लोकत्रयकनेत्रं निरूप्य परमागर्म प्रयत्नेन ।
अस्माभिरुपोध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धघु पायोऽयं ॥ ३ ॥
अन्वयाथों-[ लोकत्रयकनेत्रं ] तीन लोक सम्बन्धी पदार्थोंको प्रकाशित करने में अद्वितीय नेत्र [परमागमं ] उत्कृष्ट जैनागमको [ प्रयत्नेन ] अनेक प्रकारके उपायोंसे [ निरूप्य ] जानकर अर्थात्
१-बीजं पाठ भी है । २-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा । ३-स्याद्-कथञ्चित्नयअपेक्षासे+वादवस्तुका स्वभाव कथन ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ उत्थानिका परम्परा जैनसिद्धान्तोंके निरूपणपूर्वक [ अस्माभिः ] हमारेसे [ विदुषां ] विद्वानोंके अर्थ [ अयं ] यह [ पुरुषार्थसिद्धय पायः ] पुरुषार्थसिद्धय पाय ग्रन्थ [ उपोध्रिते ] उद्धार किया जाता है।
मुख्योपचारविवरण-निरस्तदुस्तरविनेयदुर्योधाः ।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ ४॥ अन्वयार्थी-[ मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः ] मुख्य और उपचार कथनके प्रकटपनेसे नष्ट किया है शिष्योंका दुर्निवार अज्ञानभाव जिन्होंने तथा [ व्यवहारनिश्चयज्ञाः ] व्यवहारनय और निश्चनयके जाननेवाले ऐसे प्राचार्य [ जगति ] जगत्में [ तीर्थम् ] धर्मतीर्थको [ प्रवर्तयन्ते ] प्रवाते हैं।
भावार्थ--उपदेशदाता प्राचार्य में जिन जिन गुणोंकी आवश्यकता है, उन सबमें मुख्य गुण व्यवहार और निश्चयनयका ज्ञान है । क्योंकि जीवोंका अनादि अज्ञानभाव मुख्यकथन और उपचरितकथनके ज्ञानसे ही दूर होता है, सो मुख्यकथन तो निश्चयनयके अधीन है, और उपचरितकथन व्यवहारनयके अधीन है।
निश्चयनय– स्वाश्रितो निश्चयः ' अर्थात् जो स्वाश्रित' ( अपने आश्रयसे ) होता है उसे निश्चयनय कहते हैं, और इसीके कथनको मुख्यकथन कहते हैं। इसके जानने से शरीरादिक अनादि परद्रव्यों के एकत्वश्रद्धानरूप अज्ञानभावका अभाव होता है, भेदविज्ञानकी प्राप्ति होती है तथा सर्व परद्रव्योंसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूपका अनुभव होता है, और तब जीव परमानन्ददशामें मग्न होकर केवलदशाकी प्राप्ति करता है। जो अज्ञानी पुरुष इसके जाने बिना धर्ममें लवलीन होते हैं, वे शरीरादिक क्रियाकाण्डको उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) जानकर संसारके कारणभूत शुभोपयोगको ही मुक्तिका कारण मानकर स्वरूपसे भ्रष्ट होकर संसारमें परिभ्रमण करते हैं। इसलिये मुख्य कथनका जानना निश्चयनयके अधीन है, निश्चयनयके जाने विना यथार्थ उपदेश भी नहीं हो सकता। जो आप ही अनभिज्ञ है, वह कैसे शिष्यजनोंको समझा सकता है ? किसी प्रकार भी नहीं।
व्यवहारनय-" पराश्रितो व्यवहारः" जो परद्रव्यके आश्रित होता है, उसे व्यवहार कहते हैं और पराश्रितरूप कथन उपचारकथन कहलाता है। उपचारकथनका ज्ञाता शरीरादिक सम्बन्धरूप संसारदशाको जानकर संसारके कारण पासव बंधोंका निर्णय कर मुक्ति होनेके उपायरूप संवर निर्जरा तत्त्वोंमें प्रवृत्त होता है । परन्तु जो अज्ञानी जीव इस ( व्यवहारनय ) को जाने विना शुद्धोपयोगी होनेका प्रयत्न करते हैं, वे पहिले ही व्यवहार साधनको छोड़ पापाचरणमें मग्न हो नरकादि दुःखोंमें जा पड़ते हैं । इसलिये व्यवहारनयका ( जिसके अधीन उपचारकथन है ) जानना परमावश्यक है। अभिप्राय यह कि उक्त दोनों नयोंके जाननेवाले उपदेशक ही सच्चे धर्मतीर्थके प्रवर्तक होते हैं।
१-जिस द्रव्यके अस्तित्वमें ( मौजूदगीमें ) जो भाव पाये जावें, उसी द्रव्यमें उसीका स्थापन कर किंचिन्मात्र भी अन्य कल्पना नहीं करनेको स्वाश्रित कहते हैं। २-किञ्चित् मात्र कारण पाकर किसी द्रव्यका भाव किसी द्रव्यमें स्थापन करनेको पराश्रित कहते हैं।
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श्लोक ४-५-६ ]
पुरुषार्थसिद्धघु पायः। निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।
भूतार्थबोधबिमुखः, प्रायः सर्वोऽपि संसारः ॥ ५ ॥ अन्वयार्थी-प्राचार्य इन दोनों नयोंमेंसे [इह ] इस ग्रन्थमें [ निश्चयं ] निश्चयनयको [ भूतार्थ ] भूतार्थ और [ व्यवहारं ] व्यवहारनयको [अभूतार्थं ] अभूतार्थ [ वर्णयन्ति ] वर्णन करते हैं। [ प्रायः ] बहुत करके [भूतार्थबोधविमुखः ] भूतार्थ अर्थात् निश्चयनयके ज्ञानसे विरुद्ध जो अभिप्राय हैं, वे [ सर्वोऽपि ] समस्त हो [ संसारः ] संसारस्वरूप हैं।
भावार्थ- भूतार्थ' ' शब्दका अर्थ सत्यार्थ है, और कल्पनासे कुछ भी न कहकर जैसाका तैसा कहनेको सत्यार्थ कहते हैं । यद्यपि जीव और पुद्गलका अनादिकालसे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है
और दोनों मिले हुए दीखते हैं; तथापि निश्चयनय शुद्ध प्रात्मद्रव्यको शरीरादिक परद्रव्योंसे भिन्न हो प्रकाश करता है, और यही भिन्नता मुक्तदशामें प्रकट होती है। अतएव निश्चयनय ही भूतार्थ है। यद्यपि जीव और पुद्गलका सत्व भिन्न है, रूप बदलनेपर स्वभाव भिन्न है, प्रदेश भिन्न है, तथापि व्यवहारनय एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धका छल पाकर आत्मद्रव्यको शरीरादिक परद्रव्यों से एकत्वरूप कहता है । मुक्तिदशामें प्रकट भिन्नता होनेपर व्यवहारनय स्वयं ही पृथक् प्रकाश करनेके लिये तत्पर हो जाता है, इसलिये व्यवहार अभूतार्थ है।
__ 'प्रायः भूतार्थबोधविमुखः सर्वोऽपि संसारः' इस वाक्यका विशेषार्थ-आत्माका परिणाम निश्चयनयके श्रद्धानसे विमुख होकर शरीरादिक परद्रव्योंसे एकत्वरूप प्रवर्तन करता है। इसको ही संसार कहते हैं, संसार कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। इसलिये जो जीव संसारसे मुक्त होना चाहे, उसको शद्ध ( निश्चय ) नयके सन्मुख रहना योग्य है।
एक पुरुष कर्दमके संयोगसे जिसका निर्मल भाव आच्छादित हो गया है, ऐसे जलको समल ही पीता है, और कोई दूसरा पुरुष थोड़ासा परिश्रम कर कतकफल (निर्मली) डालके जल और कर्दमको जुदा जुदा करके शुद्ध निर्मल जलका पास्वादन करता है । ठोक इस ही प्रकार अज्ञानी जीव कर्नसंयोगसे जिसका ज्ञानस्वभाव आच्छादित है, ऐसे अशुद्ध प्रात्माका अनुभव करते हैं, और दूसरे अपनी बुद्धिसे शुद्ध निश्चयनयके स्वरूपको जानकर कर्म और आत्माको पृथक् पृथक् करके निर्मल आत्माका स्वानुभवरूप प्रास्वादन करते हैं। इससे शुद्ध नय कतकफलके समान है। इसके श्रद्धानसे सर्वसिद्धि' होती है।
प्रबुधस्य बोधनार्थ" मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् ।।
व्यवहारमेव केवलमवति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥ १-भूत-पदार्थमें पाये जाने वाले भाव उनका अर्थ-ज्योंका न्यों प्रकाश करना इसे ही भूतार्थ कहते हैं । इस शब्दका पूर्णभाव सत्यार्थ शब्द है । कल्पनासे कुछ न कहकर ज्योंका त्यों कहना यही सत्यार्थ है । २-अभूतजो पदार्थ में न पाया जावे, ऐसा अर्थ-भाव, उसे अनेक कल्पनाकर प्रकाशित करे, उसे प्रभूतार्थ अर्थात् असत्यार्थ कहते हैं, जैसे मृषावादी पुरुष कल्पनाके बलसे अनेक कल्पना करके तादृश कर दिखाता है। ३-इस प्रकरणमें यह प्रश्न हो सकता है, कि यदि — व्यवहार ' असत्यार्थ है, और कार्यकारी नहीं है: तो व्यवहारनयका कथन आचार्योंने क्यों किया? परन्तु इसका उत्तर प्रागेके श्लोकमें दिया गया है। ४-देशनार्थमित्यपि पाठः ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ उत्थानिका अन्वयार्थी -[ मुनीश्वराः ] ग्रन्थ करनेवाले प्राचार्य [अबुधस्य ] अज्ञानी जीवोंके [बोधनार्थ ] ज्ञान उत्पन्न करनेके लिये [अभूतार्थ ] व्यवहारनयको [ देशयन्ति ] उपदेश करते हैं। और [ यः ] जो जीव [ केवलं ] केवल [ व्यवहारम् एव ] व्यवहारनयको ही साध्य [ अवैति ] जानता है, [ तस्य ] उस मिथ्यादृष्टिके लिये [ देशना ] उपदेश [ नास्ति ] नहीं है।
भावार्थ--अनादिकालके अज्ञानी जीव व्यवहारनयके उपदेश दिये बिना समझ नहीं सकते, इस कारण प्राचार्य उनको व्यवहारनयके मार्गसे ही समझाते हैं। जैसे--किसी मुसलमानको एक ब्राह्मणने प्राशीर्वाद दिया, परन्तु वह कुछ भी न समझ सका, और उस ब्राह्मणके मुहकी तरफ देखता रह गया। उसी समय वहाँ एक द्विभाषिया आ गया और उसने समझा दिया कि, 'आपका भला हो ' ऐसा ब्राह्मण महाशय कहते हैं । यह सुन मुसलमानने आनन्दित हो उसे अंगीकार किया, ठीक इसी प्रकार अज्ञानी जीवोंको 'आत्मा' ऐसा नाम लेकर उपदेश दिया गया, परन्तु जब अज्ञानी जीव उसको कुछ भी न समझे और प्राचार्य महाशयके मुहकी ओर देखने लगे, तब व्यवहार और निश्चयनयके जाननेवाले उन महात्मा आचार्योंने व्यवहारनय द्वारा भेद उत्पन्न कर समझा दिया कि यह जो देखनेवाला, जाननेवाला और आचरण करनेवाला पदार्थ है, वही आत्मा है ।
घृतसंयुक्त मिट्टीके घडेको व्यवहार में घृतका घड़ा कहते हैं, और कोई पुरुष जन्मसे ही उसे 'घृतका घड़ा ' जानता है, यहाँतक कि वह उसे बिना 'घृतका घड़ा' कहे समझ ही नहीं सकता, मिट्टीका घड़ा कहनेसे भी नहीं समझ सकता, तथा कोई दूसरा पुरुष उसे कोरे घडेके नामसे ही समझता है, परन्तु यथार्थमें विचार किया जावे तो वह घड़ा मिट्टीका ही है, केवल उसे समझानेके लिये ही 'घृतका घड़ा ' नाम कहा जाता है, ठीक इसी ही प्रकार चैतन्यस्वरूप प्रात्मा कर्मजनित पर्यायसंयुक्त है, उसे व्यवहार में देव मनुष्य इत्यादि नाम दिये जाते हैं; क्योंकि अज्ञानी जीव अनादिकालसे देव मनुष्यादि स्वरूप ही जानते हैं । यहाँतक कि वे आत्माको देव मनुष्यादि कहे विना समझ ही नहीं सकते, यदि कोई उन्हें चैतन्यस्वरूप प्रात्मा कहकर समझावे, तो वे अन्य कोई परब्रह्म परमेश्वर समझ लेवें, और निश्चयपूर्वक विचार किया जावे, तो प्रात्मा चैतन्यस्वरूप ही है, परन्तु अज्ञानियोंके समझानेके लिए प्राचार्य गति, जाति, भेदसे जीवका निरूपण करते हैं, सो यही व्यवहारनय है ।
मारणवक एब सिंहो यथा भवत्यनवयोतसिंहस्य । । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्वनिश्चयज्ञस्य ॥ ७॥
अन्वयार्थी-[ यथा ] जैसे [ अनवगीतसिंहस्य ] सिंहके सर्वथा नहीं जाननेवाले पुरुषको [ मारणवकः ] बिल्ली [ एव ] ही [ सिंहः ] सिंहरूप [ भवति ] होती है, [ हि ] निश्चय करके [ तथा ] उसी प्रकार [ अनिश्चयज्ञस्य ] निश्चयनयके स्वरूपसे अपरिचित पुरुषके लिये [ व्यवहारः ] व्यवहार [ एव ] हो [ निश्चयतां ] निश्चयनयके स्वरूपको [ याति ] प्राप्त होता है।
१-यह सद्भूतव्यवहारनयका उपदेश है। २-यह असद्भूतव्यवहारनयका उदाहरण है।
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श्लोक ६-७-८ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। ____भावार्थ-जैसे बालक जो सिंह और बिल्ली दोनोंसे अजान है, बिल्लीको ही सिंह मान लेता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव निश्चयनयको विनाजाने व्यवहारको ही निश्चयमान बैठता है, प्रात्माके श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणरूप मोक्षमार्गको नहीं पहिचानकर व्यवहाररूप दर्शन, ज्ञान, चारित्रका साधन कर आपको मोक्षमार्गी मानता है, अर्थात् अरहंतदेव, निर्ग्रन्थगुरु, दयामयी धर्मका साधनकर सम्यक्त्वो मानता और किञ्चित् जिनवाणीको जानकर सम्यग्ज्ञानी मानता है, महाव्रतादि क्रियाओंके साधनमात्रसे चारित्रवान् मानता है, इस भाँति अज्ञानी जीव शुभोपयोगमें सन्तुष्ट होकर शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग में प्रमादी हो जाते हैं और केवल व्यवहारनयके ही अवलम्बी हो जाते हैं । ऐसे जीवोंको उपदेश देना निष्फल है।
व्यवहारनिश्चयो यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः ।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८॥ अन्वयार्थी -[ यः ] जो जीव [व्यवहारनिश्चयौ] व्यवहारनय और निश्चयनयको [ तत्त्वेन ] वस्तुस्वरूपके द्वारा [प्रबुध्य ] यथार्थरूप जानकर [ मध्यस्थः ] मध्यस्थ [ भवति ] होता है. अर्थात् निश्चयनय व व्यवहारनयसे पक्षपात रहित होता है, [सः] वह [एव] ही [शिष्यः] शिष्य [देशनायाः] उपदेशके [ अविकलं ] सम्पूर्ण [ फलं ] फलको [ प्राप्नोति ] प्राप्त होता है ।
भावार्थ-श्रोतामें अनेक गुणोंकी आवश्यकता है, परन्तु उन सबमें व्यवहार निश्चयको जान करके हठग्राही न होना मुख्य गुण है
उक्तं च गाथाजइ जिएमयं पवंजह ता मा ववहारणिच्छए मुग्रह । एकेरण विणा छिजइ, तित्थं अणगेण पुरण तच्चं ॥
-पं० प्रवर आशाधरकृत अनंगारधर्मामृत प्र० प्र० पृष्ट १८. अर्थात् जो तू जिनमतमें प्रवर्तन करता है, तो व्यवहार निश्चयको मत छोड़ । जो निश्चयका पक्षपाती होकर व्यवहारको छोड देगा, तो रत्नत्रयस्वरूप धर्मतीर्थका अभाव हो जावेगा, और जो व्यवहारका पक्षपाती होकर निश्चयको छोड़ेगा, तो शुद्धतत्त्व स्वरूपका अनुभव होना दुस्तर है । इसलिये व्यवहार निश्चयको अच्छी तरह जानकर पश्चात् यथायोग्य अंगीकार करना, पक्षपाती न होना, यह उत्तम श्रोताका लक्षण है । यहाँ पर यदि कोई प्रश्न करे कि जो गुण निश्चय व्यवहारका जानना वक्ताका कहा था, वही श्रोताका क्यों कहा ? तो इसका उत्तर यही है कि वक्तामें गुण अधिकतासे रहते हैं और श्रोतामें वे ही गुण स्तोकरूपसे रहते हैं।
इति उत्थानिका
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ग्रंथ-प्रारंभः
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवणः ।
गुरणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यः ।।६।। अन्वयाथों--[ पुरुषः ] पुरुष अर्थात् प्रात्मा [ चिदात्मा ] चेतनास्वरूप [अस्ति] है, [स्पर्शगन्धरसवर्णैः ] स्पर्श, गंध, रस और वर्णसे [ विवर्जितः ] रहित है, [ गुणपर्ययसमवेतः ] गुण और पर्याय सहित है, तथा [ समुदयव्ययध्रौव्यैः ] उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य करके [ समाहितः ] युक्त है।
भावार्थ-पुर् उत्तम चैतन्यगुण, उनमें जो शेते स्वामी होकर प्रवृत्ति करे, उसकी पुरुष' संज्ञा है, अर्थात् दर्शन और ज्ञानरूप चेतनाके नाथको पुरुष कहते हैं । आत्माका यह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव इन तीनों दोषोंसे रहित असाधारण लक्षण है । पदार्थका जो लक्षण कहा जावे, वह किसी किसी लक्ष्यमें तो पाया जावे और किसी किसी लक्ष्यमें नहीं पाया जावे, वह लक्षण अव्याप्ति दूषणयुक्त कहा जाता है। इस अव्याप्तिसे रहित, चैतन्यगुणयुक्त आत्माका लक्षण होता है, क्योंकि ऐसा कोई प्रात्मा नहीं जिसमें चेतना न हो, परन्तु जब आत्माका लक्षण 'रागादि सहित' कहा जावेगा तो इसमें अव्याप्ति दूषणका प्रादुर्भाव होगा, क्योंकि रागादिक यद्यपि समस्त संसारी जीवोंके पाये जाते हैं, परन्तु सिद्ध जीवोंके नहीं हैं । और जो लक्षण लक्ष्यमें भी पाया जावे, उसे अतिव्याप्तियुक्त कहते हैं। प्रात्माका उक्त लक्षण इस अतिव्याप्ति दूषणसे भी रहित है, क्योंकि, 'चेतनालक्षरण' जीव पदार्थको छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थमें संघटित नहीं होता, परन्तु यदि प्रात्माका लक्षण अमूतोंक (मूर्ति रहित) कहा जावे, तो अतिव्याप्ति दूषण आ घेरता है, क्योंकि प्रात्माका अमूर्तीक गुण धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्योंमें भी पाया जाता है, और जो लक्षण प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणोंसे लक्ष्यमात्रमें पाया ही नहीं जाता है, उसे असंभवी कहते हैं । आत्माका 'चेतनालक्षण' इस दूषणसे भी रहित है, क्योंकि यह लक्षण जीवमें प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया हुआ है, परंतु आत्माका लक्षण यदि जड़ सहित कहा जावे, तो असंभव दोष का आगमन होता है, क्योंकि यह लक्षण प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है । इस प्रकार आत्माका चेतना लक्षण तीनों दोषोंसे रहित है। चेतना दो प्रकारकी है, एक ज्ञानचेतना और दूसरी दर्शनचेतना । जो चेतना पदार्थोंको विशेषतासे साकाररूप प्रदर्शित करे, अर्थात् जाने, उसे ज्ञानचेतना और जो सामान्यरूपसे निराकाररूप प्रदर्शित करे, उसे दर्शनचेतना कहते हैं । फिर यही चेतना परिणमनको अपेक्षा तीन प्रकार है-एक ज्ञानचेतना जो कि शुद्धज्ञान स्वभावरूप परिणमन करती है, दूसरी कर्मचेतना जो कि रागादि कार्यरूप परिणमन करती है, और तीसरी कर्मफलचेतना जो कि सुख दुःखादि भोगनेरूप परिणमन करती है। उक्त प्रकारसे चेतनाके अनेक स्वांग होते हैं, परन्तु चेतनाका प्रभाव कहीं भी नहीं होता। इसी चेतना लक्षणसे विराजमान जीव संज्ञक पदार्थका नाम पुरुष है ! 'स्पर्शरसगंधवणः विवजितः'
१-पुरि शेते इति पुरुषः ।
२-धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य भी अमूर्तीक है।
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श्लोक ६-१० ]
पुरुषार्थसिद्धघु पायः। आठ प्रकार स्पर्श', दो प्रकार गंधर, पाँच प्रकार रस 'पाँच प्रकारवर्ण", इत्यादि पौद्गलिक लक्षणोंसे रहित अमूर्तीक जीव है । उक्त विशेषणसे जीवकी पुद्गलसे पृथकता प्रकट की गई है, क्योंकि यह आत्मा अनादिसम्बद्धरूप पुद्गल द्रव्यमें अहंकार ममकाररूप प्रवृत्ति करता है। पुनः “गुरणपर्यायसमवेतः" पुरुष गुण पर्यायोंसे तदात्मक है, क्योंकि द्रव्य-गुण-
पर्यायमय है। प्रात्मा एक द्रव्य है, इसीलिये गुणपर्यायों सहित विराजमान है । गुणका लक्षण सहभूत" है अर्थात् जो द्रव्योंमें सदाकाल पाये जावें, उन्हें गुण कहते हैं । आत्मामें साधारण और असाधारण भेदसे दो प्रकारके गुण हैं, जिनमें ज्ञान दर्शनादिक तो असाधारण गुण हैं, क्योंकि इनकी प्राप्ति अन्य द्रव्योंमें नहीं है । और अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादिक साधारण गुण हैं, क्योंकि ये अन्य द्रव्योंमें भी पाये जाते हैं । पर्यायका लक्षण क्रमवर्ती है, द्रव्योंमें जो अनुक्रमसे उत्पन्न होवें उन्हें पर्याय कहते हैं । आत्माके यह पर्याय दो भेदरूप हैं । १ नर नारकादि प्राकृतिरूप व सिद्धाकृतिरूप व्यञ्जनपर्याय और रागादिक परिणमनरूप छह प्रकार हानि-वृद्धिरूप अर्थपर्याय । इन गुण पर्यायों से प्रात्माकी तदात्मक एकता है। इस विशेषणसे आत्मा का विशेष्य जाना जाता है। तथा-"समुदयव्ययध्रौव्यैः समाहितः" नवीन अर्थपर्याय व व्यञ्जनपर्यायकी उत्पत्तिको उत्पाद, पूर्व पर्यायके नाशको व्यय, और गुणकी अपेक्षा व पर्यायकी अपेक्षा शाश्वतपनेको ध्रौव्य कहते हैं। प्रात्मा इन तीनोंसे संयुक्त रहता है, जैसे-सुवर्णकी कुण्डल पर्यायमें उत्पत्ति ( उत्पाद ) कंकणसे विनाश ( व्यय ) और पीतत्वादिक व सुवर्णत्वकी अपेक्षा ध्रौव्य ( मौजूदगी ) रहता है। इस विशेषणसे आत्माका अस्तित्व व्यक्त होता है ।
परिणममानो नित्यं ज्ञानविवत्तरनादिसन्तत्या। परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥१०॥
अन्वयार्थी -[सः] वह चैतन्य आत्मा [अनादितन्तत्या] अनादि परिपाटीसे [नित्यं] निरन्तर [ज्ञानबिवतः] ज्ञानादिगुणोंके विकाररूप रागादि परिणामों से [ परिणममानः] पणिमता हुमा [स्वेषां] अपने [ परिणामानां ] रागादि परिणामोंका [ कर्ता च मोक्ता च] कर्ता और भोक्ता भी [ भवति ] होता है।
भावार्थ-यह आत्मा अनादिकालसे अशुद्ध हो रहा है। आज ही इसमें कुछ नवीन अशुद्धता नहीं हुई है, हमेशा कर्मरूप द्रव्यकर्मसे रागादिक होते हैं और फिर रागादिक परिणामोंसे द्रव्यकर्मका बंध होता है, आत्मा और अशुद्धताका "सुवर्णकीटिकावत्" (सुवर्ण और उसकी कीटके समान)अनादि सम्बन्ध है । आत्मा इस कर्मरूप अशुद्ध सम्बन्धसे अपने ज्ञान स्वभावको विस्मरण किये हुए उदयागत कर्मपायोंमें इष्ट अनिष्ट भावसे रागादिकरूप परिणमन करता है। यद्यपि इन परिणामों का कारण द्रव्यकर्म है, तथापि
१-शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कठोर, हलका, भारी । २-सुगन्ध-दुर्गन्ध। ३-तिक्त, कटुक, कपाय ना, खट्टा, मीठा । ४-लाल, पात, श्वेत, नील, कृष्ण । ५-सह-द्रव्यके साथ है भूत- सत्ता जिसकी।
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१०
श्रीमद् राजचनाननशास्त्रमालायाम्
[ ग्रन्थारम्भ इनका (परिणामों का) चैतन्यमय होनेसे व (प्रात्माके साथ) व्याप्य'-व्यापक सम्बन्ध होनेसे आत्मा ही कर्ता है,और भाव्यभावक भावसे प्रात्मा ही भोक्ता' है।
पर्वविवर्मोत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति ।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः ॥११॥ अन्वयार्थी-[यदा ] जिस समय [ सः ] उपर्युक्त अशुद्ध प्रात्मा [सर्वविवर्तोत्तोणं] सम्पूर्ण विभावोंसे उत्तीर्ण होकर [ प्रचलम् ] अपने निष्कम्प [ चैतन्यम् ] चैतन्य स्वरूपको [ प्राप्नोति ] प्राप्त होता है, [ तदा ] तब “यह आत्मा' वह [ सम्यक्पुरुषार्थसिद्धि ] भले प्रकार पुरुषार्थके प्रयोजनकी सिद्धिको [ प्रापन्नः 'सन्' ] प्राप्त होता हुआ [ कृतकृत्यः ] कृतकृत्य [ भवति ] होता है।
भावार्थ-जब आत्मा स्वपरभेदविज्ञानसे शरीरादिक परद्रव्योंको पृथक् जानने लगता है, तब उन द्रव्योंमें 'यह भला' और 'यह बुरा' ऐसी बुद्धिका परित्याग करता है; क्योंकि भला बुरा अपने परिणामोंसे होता है, परद्रव्योंके करनेसे नहीं होता, और जब समस्त परद्रव्योंमें राग-द्वेष भावोंका त्याग करने पर भी रागादिकोंकी उत्पत्ति होती है, तब उनके शमन करनेके लिए अनुभवके अभ्यासमें उद्यमवान् रहता है और ऐसा होनेसे जिस समय सर्व विभावोंका नाश कर अक्षोभ समुद्रवत् शुद्धात्मस्वरूप में लवणवत् लवलीन हो जाता है, तब ध्याता और ध्येयका विकल्प नहीं रहता, और ऐसा नहीं जानता है कि मैं शुद्धात्मस्वरूपका ध्यान करता हूं, किन्तु आप ही तादाम्यवृत्तिसे शुद्धात्मस्वरूप होकर निष्कम्प परिणमन करता है । उस समय प्रात्मा कृतकृत्य कहलाता है, क्योंकि उसे जो कुछ करना था सब कर चुका, कुछ भी अवशेष नहीं रहा। इस ही अवस्थाको पुरुर्षार्थसिद्धि कहते हैं, क्योंकि इसमें पुरुषके आत्माके अर्थ (कार्य)की सिद्धि हो जाती है।
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥ अन्वयाथों-[जीवकृतं] जीवके किये हुए [परिणाम] रागादिक परिणामोंको [निमित्तमात्र] निमित्तमात्र [प्रपद्य] पा करके [पुनः] फिर [अन्ये पुद्गलाः] जीवसे भिन्न अन्य पुद्गलस्कन्ध वे [अत्र] आत्मामें [स्वयमेव] स्वतः ही [कर्मभावेन] ज्ञानावरणादि कर्मरूप [परिणमन्ते] परिणमन करते हैं।
भावार्थ-जिस समय जीव, राग-द्वेष-मोहभावरूप परिणमन करता है, उस समय उन भावोंका
१-साहचर्यके नियमको व्याप्ति कहते हैं, जैसे, धूम और अग्निमें साहचर्या ( सहचारीपना ) पाया जाता है । जहाँ धूम हो वहाँ अग्नि अवश्य होती है, क्योंकि धूमकी उत्पत्ति अग्निसे ही है। ठीक इस ही प्रकार प्रात्मा और रागादिक परिणामोंमें साहचर्य पाया जाता है, क्योंकि जहाँ रागादिक होते हैं, वहाँ प्रात्मा अवश्य होता है, कारण आत्माके ही रागादिक होते हैं, प्रथच इस व्याप्तिकी क्रियामें कर्म व्याप्य और कर्ता व्यापक है। ये रागादिक भाव प्रात्माके करने से होते हैं, इसलिये वे व्याप्य और उनका कर्ता प्रात्मा है, इसलिये वह व्यापक हुमा । २-व्याप्य व्यापक सम्बन्ध जहाँ पाया जाता है वहां ही कार्य-कारण सम्बन्ध संभाव्य होता है । ३-अनुभवन करने योग्य भावको भाव्य और अनुभवन करनेवाले पदार्थको भावक कहते हैं । ४-यह भाव्य-भावक सम्बन्ध जहाँ घटित हो, वहाँ भोग्य-भोक्तासम्बन्ध घटित होता है, अन्यत्र नहीं। ५-कारणमात्र । ६-बहुत परमाणुगोसे बना हुआ अर्थात् कार्माणवर्गणा।
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११
श्लोक ११-१२-१३-१४ ]
पुरुषार्थसिवा पायः । निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य स्वतः ही कर्म अवस्थाको धारण करलेते हैं । विशेष इतना ही है कि जो मात्मा देव, गुरु, धर्मादिक प्रशस्त रागरूप परिणमन करता है, उसके शुभ कर्मका बंध होता है, और जो अन्य अप्रशस्त' राग द्वेष मोहरूप परिणमन करता है, उसे पापका बंध होता है। यहाँ यदि यह प्रश्न किया जावे कि जीवके महा सूक्ष्मरूप भावोंकी स्मृति जड़ पुद्गलको किस प्रकार होती है ? और यदि नहीं होती तो वे पुद्गलपरमाणु बिना ही कारण पुण्य-पापरूप परिणमन कैसे करते हैं ? तो उसका उत्तर यह है कि जैसे एक मंत्रसाधक पुरुष गुप्त स्थानमें बैठकर किसी मंत्रका जप करता है और उसके बिना ही किये केवल मंत्रकी शक्तिसे अन्य जनोंको पीड़ा उत्पन्न होती है अथवा सुख होता है । ठीक इस ही प्रकार अज्ञानी जीव अपने अन्तरंगमें उत्पन्न हुए विभावभावोंकी शक्तिसे उनके बिना ही कहे कोई पुद्गल पुण्यरूप और कोई पुद्गल पापरूप परिणमन करते हैं। सारांश इसके भावोंमें ऐसी कुछ विचित्र शक्ति है कि उसके निमित्तसे पुद्गल स्वयं ही अनेक अवस्थायें धारण करते हैं।
परिणममानस्य चितश्चियात्मकः स्वयमपि स्वर्भावः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।। १३ ।। अन्वयाथों-[ हि ] निश्चय करके [ स्वकः ] अपने [ चिदात्मकः ] चेतनास्वरूप [ भावः ] रागादिक परिणामोंसे [ स्वयम् अपि ] आप ही [ परिणममानस्य ] परिणमते हुए [ तस्य=चितः अपि ] पूर्वोक्त आत्माके भी [पौद्गलिकं] पुद्गलसम्बन्धी [ कर्म ] ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म [निमित्तमात्रं ] कारणमात्र [ मवति ] होते हैं ।
. भावार्थ-जीवके रागादिक विभावभाव स्वयं नहीं होते हैं; क्योंकि जो आप ही से उत्पन्न होवें तो ज्ञान दर्शनके समान ये भी स्वभावभाव होजावें। और स्वभाव भाव हो जानेसे अविनाशी हो जावें । अतएव ये भाव औपाधिक हैं, क्योंकि अन्य निमित्तसे उत्पन्न होते हैं, और यह निमित्त ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मका जानना चाहिये । जैसे जैसे द्रव्यकर्म उदय अवस्थाको प्राप्त होते हैं, वैसे वैसे आत्मा विभावभावोंसे परिणमन करता है। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुद्गल में ऐसी कौनसी शक्ति है जो चैतन्य के नाथको भी विभावभावोंमें परिणमन कराती है ? इसका समाधान इस प्रकार होता है कि जैसे किसी पुरुषपर मंत्रपूर्वक रज (धूलि । डाली जावे तो वह आपको भूलकर नाना प्रकारकी विपरीत चेष्टायें करने लगता है । क्योंकि मंत्रके प्रभावसे उस रजमें ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो चतुर पुरुषको भी पागल बना देती है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने प्रदेशोंमें रागादिकोंके निमित्तसे बंधरूप हुए पुद्गलों के कारण प्रापको भूलकर नाना प्रकार विपरीत भावों में परिणमन करता है, सारांश इसके विभाव भावोंसे पुद्गल में ऐसी शक्ति हो जाती है, जो चैतन्यपुरुषको विपरीत चलाती है ।
एवमयं कर्मकृतविरसमाहितोऽपि युक्त इव ।।
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ॥१४॥ अन्वयाथों-[एवम्] इस प्रकार [अयं] यह प्रात्मा [कर्मकृतः] कर्मोंके किये हुए [भावः] रागादि या शरीरादि भावोंसे [असमाहितोऽपि] संयुक्त न होनेपर भी [बालिशानां] अज्ञानी जीवों को १-निर । २-खबर ।
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१२ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् ।
[ जीव परिणमन [ युक्तः इव ] संयुक्त सरीखा [ प्रतिभाति ] प्रतिभासित होता है, और [सः प्रतिभासः] वह प्रतिभास ही [खलु] निश्चय करके भिवबीजम्] संसारका बीजभूत है।
भावार्थ-पहले कहा गया है कि रागादिक भाव पुद्गलकर्मको कारणभूत हैं और पुद्गलकर्म रागादिक भावोंको कारणभूत है। इससे यह आत्मा निज स्वभावोंकी अपेक्षा नाना प्रकारके कर्मजनित भावोंसे पृथक् ही चैतन्यमात्र वस्तु है। जैसे लाल रंगके निमित्तसे स्फटिकमणि लालरूप दिखलाई देती है, यथार्थमें लालस्वरूप नहीं है। रक्तत्व तो स्फटिकसे अलिप्त ऊपर ही ऊपर को झनकमात्र है। और स्फटिक स्वच्छ श्वेतवर्णपनेसे शोभायमान है। इस बातको परीक्षक जौहरी अच्छी तरहसे जानता है। परन्तु जो रत्न-परीक्षाकी कलासे अनभिज्ञ है, वह स्फटिकको रक्तमणि व रक्त स्वरूप ही देखता है। इसी प्रकार कर्मके निमित्तसे आत्मा रागादिकरूप परिणमन करता है, परन्तु यथार्थमें रागादिक आत्माके निज भाव नहीं हैं। प्रात्मा अपने स्वच्छतारूप चैतन्यगुणसहित विराजमान है। रागादिकपन तो स्वरूपसे विभिन्न ऊपर ही ऊपरकी झलकमात्र है। इस बातको स्वरूपके परीक्षक सच्चे ज्ञानी भलीभाँति जानते हैं, परन्तु अज्ञानी अपरीक्षकोंको प्रात्मा राबादिक रूप ही प्रतिभासित होता है। यहाँपर यदि कोई प्रश्न करे कि पहिले जो रागादिक भाव जीवकृत कहे गये थे, उन्हें अब कर्मकृत क्यों कहते हो? तो इसका समाधान यह है कि रागादिक भाव चेतनारूप हैं, इसलिये इनका कर्ता जीव ही है, परन्तु श्रद्धान करानेके लिए इस स्थलपर मूलभूत जीवके शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा रागादिकभाव कर्मके निमित्तसे होते हैं, अतएव कर्मकृत हैं। जैसे भूतगृहीत मनुष्य भूतके निमित्तसे नाना प्रकारकी जो विपरीत चेष्टायें करता है, उनका कर्ता यदि शोधा जावे तो वह मनुष्य ही निकलेगा, परन्तु वे विपरीत चेष्टायें उस मनुष्यके निजभाव नहीं हैं, भूतकृत हैं । इसी प्रकार यह जीव कर्मके निमित्तसे जो नाना प्रकार विपरीत भावरूप परिणमन करता है उन (भावों) का कर्ता यद्यपि जीव ही है परन्तु ये भाव जीवके निजस्वभाव न होने से कर्मकृत कहे जाते हैं, अथवा कर्मकृत नाना प्रकारकी पर्याय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, नोकर्म, देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यच, शरीर, संहनन, संस्थानादिक भेद व पुत्र मित्रादि धन धान्यादि भेदोंसे शुद्धात्मा प्रत्यक्ष ही भिन्न है । इसके अतिरिक्त और भी सुनिये
एक मनुष्य अज्ञानी गुरुके उपदेशसे छोटेसे भोहरेमें बैठकर भैसेका ध्यान करने लगा, और अपने को भैसा मानकर दीर्घ शरीरके चितवनमें आकाशपर्यंत सींगोंवाला मानने लगा, तब इस चिन्तामें पड़ा कि भोहरेमेंसे मेरा इतना बड़ा शरीर किस प्रकार निकल सकेगा ? ठीक यही दशा जीवकी मोहके निमित्तसे हो रही है, जो आपको वर्णादि स्वरूप मानके देवादिक पर्यायोंमें आपा मानता है। भैसा माननेवाला यदि अपनेको भैंसा न माने, तो आखिर मनुष्य बना ही है, इसीप्रकार देवादिक पर्यायोंको भी जीव यदि आपा न माने तो अमूर्तीक शुद्धात्मा आप बना ही है। सारांश प्रात्मा कर्मजनित रागादिक अथवा वर्णादिक भावोंसे सदाकाल भिन्न है, तदुक्तम्-"वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुसः"१
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् ।
यत्तस्मावविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धघ पायोऽयम् ॥१५॥ १--इस पुरुषके अर्थात् प्रात्माके वर्णादि रागादि अथवा मोहादि सर्व ही भाव (पात्मासे) भिन्न हैं।
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श्लोक १५-१६-१७-१८ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः। ___ अन्वयार्थों-[ विपरीताभिनिवेशं ] विपरीत श्रद्धानको [ निरस्य ] नष्टकर [ निजतत्त्वम् ] निज स्वरूपको [ सम्यक् ] यथावत् [ व्यवस्य ] जानकर [ यत् ] जो [ तस्मात् ] उस अपने स्वरूपसे [अविचलनं ] च्युत न होना [ स एव ] वह ही [ अयम् ] यह [ पुरुषार्थसिद्धय पाथः ] पुरुषार्थ की सिद्धिका उपाय है।
भावार्थ-पूर्वकथित कर्मजनित पर्यायों को प्रात्मा मान लेना, इसको ही विपरीत श्रद्धान कहते हैं ? इस विपरीत श्रद्धानके समूल नष्ट करनेको सम्यग्दर्शन, कर्मजनित पर्यायोंसे भिन्न भिन्न शुद्धचैतन्यस्वरूपके यथावत् जाननेको सम्यग्ज्ञान और कर्मजनित प-योंसे उदासीन हो निजस्वरूपमें स्थिरीभूत होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं । तथा इन तीनोंका अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका समुदाय ही कार्य सिद्ध होनेका उपाय है, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
अनुसरतां पदमेतत् करम्विताचारनित्यनिरभिमुखा।
एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ।। १६ ।। __ अन्वयाथों-[ एतत्पदम् अनुसरतां ] इस रत्नत्रयरूप पदवीको अनुसरण करनेवाले अर्थात् प्राप्त हुए [ मुनीनाम् ] महा मुनियोंकी [ वृत्तिः] 'वृत्ति [करम्विताचारनित्यनिरभिमुखा ] पापक्रिया सम्मिश्रित प्राचारोंसे सर्वदा पराङ मुख, तथा [ एकान्तविरतिरूपा ] परद्रव्योंसे सर्वदा उदासीनरूप और [ अलौकिकी ] लोकसे विलक्षण प्रकारकी [ भवति ] होती है। .
____भावार्थ--महामुनियोंकी प्रवृत्ति जगत्के लोगोंसे सर्वथा निराली होती है । गृहस्थीका आचरण पापक्रियासे मिला हुआ होता है, और ऐसे आचरणों से महामुनि सर्वथा दूर रहते हैं। वह केवल अपने आत्मोक चैतन्य स्वभावका ही अनुभव करते हैं। '
बहुशः समस्तविरति प्रशितां यो न जातु गृह्णाति ।
तस्यैकदेशविरतिः कथनीयामेन बोल।। १०. ... अन्वयार्थी-[ यः ] जो जीव [ बहुशः ] बारम्बार [ प्रदर्शिता ] दिखलाई हुई [ समस्तविरतिं ] सकल पापरहित मुनिवृत्तिको [ जातु ] कदाचित् [ न गृह्णाति ] ग्रहण न करे तो [ तस्य ] उसे [ एकदेशविरतिः ] एकदेश पापक्रियारहित गृहस्थाचारको [ मन बीजेन ] इस हेतुसे [ कथनोया ] समझावे अर्थात् कथन करे।
___ भावार्थ-जो जीव उपदेश सुननेका अभिलाषी हो, उसे पहिले मुनिधर्मका उपदेश देना चाहिये और यदि वह मुनिधर्म ग्रहण करने योग्य सामर्थ्य न रखता हो, तो तत्पश्चात् श्रावक-धर्मका उपदेश देवे, क्योंकि
यो यतिधर्ममकथवन्नुपदिशति गहल्यधर्ममम्पमहिए।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित हिस्वानम् ॥ १॥ १-अन्तरंग परिणाम-वर्तन
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१४
श्रीमद् राजननशास्त्रमालायाम् । [ धर्मोपदेशकी रीति अन्वयार्थी-[ यः ] जो [अल्बमतिः ] तुच्छ बुद्धि उपदेशक [ यतिधर्मम् ] मुनिधर्मको [प्रकथयन् ] नहीं कह करके [ गृहस्थधर्मम् ] श्रावक-धर्मका [ उपदिशति ] उपदेश देता है, [ तस्य ] उस उपदेशको [ भगवत्प्रवचने ] भगवतके सिद्धान्तमें [ निग्रहस्थानम् ] दंड देनेका स्थान [प्रवशितं ] दिखलाया है।
__ भावार्थ जो उपदेशदाता पहिले मुनि-धर्मको न सुनाकर श्रावक-धर्मका व्याख्यान देता है, उसको जिनमतमें प्रायश्चित्तरूप दंड देने योग्य बतलाया है। क्योंकि
प्रक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदमपि शिष्यः ।
अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ १६ ॥ अन्वयार्थी - [ यतः ] जिस कारणसे [ तेन ] उस [ दुर्मतिना ] दुर्बुद्धिके [ प्रक्रमकथनेन ] क्रमभंग कथनरूप उपदेश करनेसे [, प्रतिसम्] अत्यन्त दूरतक [ प्रोत्सहमानोऽपि ] उत्साहवाला हुआ भी [ शिष्यः ] शिष्य [ अपदे अपि ]. तुच्छ स्थानमें ही [ संप्रतृप्त ] संतुष्ट होकर [ प्रतारितः ] प्रतारित या ठगाया हुआ [ भवति ] होता है।
भावार्थ-किसी शिष्यको धर्मका इतना, उत्साह था कि यदि उसे मुनि-धर्मका उपदेश मिलता तो मुनिपदवी अंगीकार कर लेता। परन्तु उपदेशदाता उसे पहिले ही श्रावक-धर्मका उपदेश देने लगा, तो ऐसे समयमें वह श्रावक-धर्मही ग्रहण करनेमें संतुष्ट होगया। सारांश पहिले मुनि-धर्मका उपदेश करना चाहिए।
श्रावकधर्मव्याख्यान
= =
एवं सम्यग्दर्शनबोषचरित्रत्रयात्मको नित्यम् ।
तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यों यथाशक्ति ।। २० ॥ अन्बयाथों-[ एवं ] इस प्रकार' [ तस्यापि ] उस गृहस्थको भी [ यथाशक्ति ] अपनी शक्तिके अनुसार [ सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मकः ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन भेदरूप [ मोक्षमार्गः ] मुक्तिका मार्ग [ नित्यम् ] सर्वदा [ निषेव्यः ] सेवन करने योग्य [ भवति ] होता है।
भावार्थ-मुनि तो मोक्षमार्गका सेवन पूर्णरूपसे करते ही हैं। किन्तु गृहस्थको भो यथाशक्ति ( थोड़ा बहुत ) सेवन करना चाहिये।
तत्रादौ सम्यक समुपापरलीयमखिलयत्नेन ।
तस्मिन् मत्येव यतो भवति चरित्रं च ॥ २१॥ . १-जो आगे कहेंगे।
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१६-२०-२१-२२ ]
पुरुषार्थसिव पायः। अन्वयार्थी -[ तत्रादौ ] इन तीनोंमें प्रथम [ अखिलयलेन ] समस्त प्रकारके उपायोंसे [सम्यक्त्वं ] सम्यग्दर्शन [ समुपाश्रयणीयम् ] भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये [यतः] क्योंकि [तस्मिन् सति एव ] इसके होते हुए ही [ ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [च ] और [ चरित्रं ]. सम्यक्चारित्र [ भवति ] होता है।
भावार्थ-सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंग पर्यन्त पठन किया हुआ ज्ञान भी 'अज्ञान' कहलाता है, तथा महावतादिकोंकी साधनासे अन्तिम अवेयकपर्यन्त बंधयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है, परन्तु सम्यक्त्वसहित थोडासा जानना भी सम्यग्ज्ञानको और अल्पत्याग भी सम्यक्चारित्रको प्राप्त होता है । जैसे अंकरहित बिन्दी (शून्य) कुछ भी कार्यसाधक नहीं होती और वही अङ्कसहित होने पर दशगुणमानवर्द्धक हो जाती है, इसी तरह सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र व्यर्थ ही हैं, परन्तु सम्यक्त्वपूर्वक अल्पज्ञान और अल्प चारित्र भी मोक्षके साधक हो जाते हैं । अतएव सबसे प्रथम सम्यक्त्वको हो अङ्गोकार करना चाहिये पश्चात् अन्य साधनोंको।
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥२२॥ अन्वयार्थी -[ जीवाजीबादीनां ] जीव अजीव प्रादिक [ तथानिां ] तत्त्वरूप पदार्थोंका [विपरोताभिनिवेशविविक्तम्] विपरीत प्राग्रहरहित अर्थात् औरका और समझनेरूप मिथ्याज्ञानसे रहित [श्रद्धानं ] श्रद्धान अर्थात् दृढ़ विश्वास [ सदैव ] निरन्तर ही [कर्त्तव्यम् ] करना चाहिये । क्योंकि [ तत् ] वह श्रद्धान ही [ प्रात्मरूपं] प्रात्माका रूप है ।
भावार्थ--तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण है, और वह श्रद्धान 'सामान्यरूप' और 'विशेषरूप' दो प्रकारका है । परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्यस्वरूपको आपरूप श्रद्धान करना सामान्य तत्त्वार्थश्रद्धान है। यह नारक तिर्यञ्चादिक समस्त सम्यग्दृष्टी जीवोंके पाया जाता है, और जीव अजीवादिक सप्त तत्त्वोंकी विशेषतासे जानकर श्रद्धान करना विशेष तत्त्वार्थश्रद्धान है। वह मनुष्य देवादिक बहुश्रुत (विशेषज्ञानी) जीवोंके पाया जाता है, परन्तु राजमार्गसे ये दोनों श्रद्धान सप्त तत्त्वोंके जाने बिना नहीं हो सकते । क्योंकि--जो तत्त्वोंको न जाने तो श्रद्धान किसका करे ? यहाँ प्रसङ्गानुसार तत्त्वोंका वर्णन करना उचित होगा। अतएव उनका थोडासा स्वरूप दिया जाता है:
१-जीवतत्व-जो चैतन्यलक्षण सहित विराजमान हो, उसे जीब कहते हैं । इसके शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र ये तीन भेद होते हैं। (१) शुद्धजीव-जिन जीवोंके सम्पूर्ण गुण पर्याय अपने निजभाव को परिणमते हैं, अर्थात्
केवलज्ञानादि गुण शुद्धपरिणति पर्यायमें विराजमान होते हैं, उन्हें शुद्धजीव कहते हैं। . (२) अशुद्धजीव-जिन जीवोंके सम्पूर्ण गुण पाय विकार भावको प्राप्त हो रहे हों उन्हें ___ अशुद्धजीव कहते हैं, अर्थात् जिनके ज्ञानादिक गुण तो प्रावरणसे आच्छादित हो रहे हों,
और परिणति रागादिरूप परिणमन कर रही हो।
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श्रीमद् राजचन्द्रजनशानालायाम् । [ प्रथमाधिकार श्रावक-धर्म (३) मिश्रजीव-जिन जीवोंके सम्यक्त्वादि गुण कुछ विमलरूप हुए हों और कुछ समल हों, __ अर्थात् ज्ञानादि गुणोंकी कुछ शक्तियाँ शुद्ध हुई हों, अवशेष सर्वं अशुद्ध हों और परिणति
जिनकी शुद्ध परिणमन करती हो, उन्हें मिश्रजीव कहते हैं ।
२-अजीवतत्त्व-जो पदार्थ चैतन्यगुणरहित हो, उसे अजीव कहते हैं । इसके पांच मेद हैंपुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
(१) पुद्गल-जो द्रव्य स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन चार-गुणोंसे संयुक्त हो उसे पुद्गल कहते
हैं । इसके भेद दो हैं-अणु और स्कन्ध । एकाकी अविभागी परमाणुको अणु और अनेक अणुओंके एकत्वपरिणामको स्कन्ध कहते हैं । पुद्गलद्रव्यके अणु और स्कन्धोंके सिवाय १ स्थूलस्थूल, २ स्थूल, ३ स्थूलसूक्ष्म, ४ सूक्ष्मस्थूल, ५ सूक्ष्म और ६ सूक्ष्मसूक्ष्म, ये छह भेद और भी हैं । स्थूलस्थूल-जो काष्ट पाषाणादिकोंके समान छेदे भेदे जा सकें, स्थूल - जो जल दुग्धादि द्रव पदार्थोंके समान छिन्न भिन्न होनेपर पुनः मिल सकें, स्थूलसूक्ष्म-जो आतप चांदनी छायादि पर्यायके समान दृष्टिगत होवें, परन्तु पकड़े न जा स, सूक्ष्मस्थूल-जो शब्द गंधादिके समान दिखाई न देवें, और पकड़े न जा सकें, परन्तु श्रवण नासिकादि अन्य इन्द्रियों से ग्रहण किये जा सकें, सूक्ष्म-जो काउणवर्गणादिक
बहुत परमाणुबों के स्कस्थ हों, और सूक्ष्मसूक्ष्म'-अविभागी परमाणुओं को कहते हैं। (२) धर्म–जो द्रव्य जीव और पुद्गलकी गतिमें सहकारी हो उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। यह
- लोकप्रमाण अमूर्तीक एकद्रव्य है। (३) अधर्म-जो द्रव्य जीव और पुद्गलकी स्थितिमें सहकारी हो, उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं ।
यह भी लोकप्रमाण अमूर्तीक एकद्रव्य है । (४) आकाश-जो द्रव्य जीवादिक समस्त पदार्थो को अवकाश देने में समर्थ हो, उसे आकाश
कहते हैं । इसके लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो भेद हैं। जिसमें सम्पूर्ण द्रव्य पाये जावें, उसे लोकाकाश कहते हैं, और जहां केवल आकाश पाया जावे उसे अलोकाकाश
कहते हैं । इन दोनोंका सत्त्व पृथक् पृथक् नहीं है, एक ही द्रव्य है। (५) काल-जो द्रव्य सम्पूर्ण द्रव्योंके परिवर्तन करनेमें समर्थ है और जो वर्तनाहेतुत्व लक्षणसे
संयुक्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं । यह लोकके एक एक प्रदेशपर स्थित एक एक अणुमात्र
असंख्यात द्रब्य हैं । कालद्रव्यके परिणमन निमित्तसे प्रावलिकादि व्यवहारकाल होता है।
३. प्रास्रवतत्त्व-जीवके रागादिक परिणामोंसे मन, वचन, कायके योगोंद्वारा पुद्गलस्कन्धोंके पानेको प्रास्रव कहते हैं।
१-कहीं कहीं कर्मवर्गणामोंसे प्रतिसूक्ष्म व्यणुकस्कन्धपर्यन्तको भी कहा है । २-सात तत्त्व और पुण्य पाप ये दो तत्त्व मिलकर नव पदार्थ होते हैं । ३-धर्म. अधर्म, प्राकाश, काल, पुद्गल और जीव ये छह द्रव्य हैं और कालरहित अर्थात् धर्म अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इन पांचकी पंचास्तिकाय संज्ञा होती है।
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श्लोक २२ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। ४. बन्धतत्त्व-जीवकी रागादिकरूप अशुद्धताके निमित्तसे आये हुए कर्मवर्गणाओंका ज्ञानावरणादिरूप स्वस्थिति सहित अपने रस संयुक्त प्रात्मप्रदेशोंसे सम्बन्धरूप होना बंधतत्त्व कहलाता है।
५. संवरतत्त्व-जीवके रागादिक अशुद्ध परिणामोंके अभावसे कर्मवर्गणाओंके प्रास्रवका रुकना संवरतत्त्व कहलाता है।
६. निर्जरातत्त्व-जीवके शुद्धोपयोगके बलसे पूर्वसंचित कर्मवर्गणाओंके एकोदेश नाश होनेको निर्जरा कहते हैं।
७. मेक्षितत्त्व-जीवके कर्मोके सर्वथा नाश होने और निज स्वभावके प्रकट होनेको मोक्ष कहते हैं।
उल्लिखित सप्त तत्त्वोंके अर्थका उक्त प्रकारसे यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। यहाँ पर यदि कोई यह प्रश्न करे कि सम्यग्दर्शनके उपयुक्त लक्षणमें अव्याप्तिदूषणका प्रादुर्भाव होता है, क्योंकि जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव विषय कषायकी तीव्रतासंयुक्त होता है, उस समय उसका यह श्रद्धान नहीं रहता । लक्षण ऐसा कहना चाहिये 'जो लक्ष्य में निरन्तर पाया जावे' तो इसका उत्तर नोचे लिखे अनुसार जानकर समाधान करना चाहियेः--
____ जीवके श्रद्धानरूप और परिणमनरूप दो भाव हैं, इनमें से श्रद्धानरूप सम्यक्त्वका लक्षण है, और परिणमनरूप चारित्रका लक्षण है। जो सम्य दृष्टि जीव उस विषय कषायकी तीव्रतामें परिणमन स्वरूप होता है, न कि श्रद्धानरूप, उसका तत्त्वार्थमें यथावर विश्वास है, इसका स्पष्टीकरण नीचे लिखे उदाहरणसे शीघ्र हो जावेगा:
एक गुमाश्ता जो किसी सेठकी दूकानपर नौकर है, अपने हृदयमें सेठको सम्पत्तिको पृथक् जानता हुअा भी उसके हानि-लाभमें हर्ष विषाद करता है, उसे निरन्तर मेरी मेरी कहकर सम्बोधित करता है, और अन्तरंगमें जो परत्त्वका विश्वास है, उसे कभी बाहिर नहीं लाता है, परन्तु यह । स उसके हृदयमें शक्तिरूप रहता है, इसलिये जिस समय सेठके सन्मुख अपना हिसाव पेश करता है, उस समय अन्तरंगका विश्वास प्रत्यक्ष प्रकट कर देता है। जैसे गुमाश्ता इस नौकरीके कार्यको यद्यपि पराधीन दुःख जानता है, परन्तु धनसे शक्तिहीन होनेसे आजीविकाके वश लाचारीसे उसे दास-कर्म करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार ज्ञानी जीव उदयमें आये हुए कर्मोके परिपाकको भोगता है । वह अपने हृदयमें इसे प्रौदयिक ठाठ तथा अपने स्वरूपको भिन्न जानता हुआ भी इष्ट अनिष्ट संयोगमें हर्ष विषाद करता है। उस प्रौदयिक सम्बन्धको बाह्यमें मेरा मेरा भी कहता है, और अपनी प्रतीतिका बारम्बार स्मरण भी नहीं करता, क्योंकि वह प्रतीति कर्मके उदयमें शक्तिरूप रहती है, परन्तु जिस समय उस कर्मका और अपने स्वरूपका विचार करता है, उस समय अन्तरंगकी प्रतीतिको ही प्रकट करता है । ज्ञानी जीव कर्म के उदयको यद्यपि पराधीन दुःख जानता है, परन्तु अपनी शुद्धोपयोगरूप शक्तिकी हीनताके कारण पूर्वबद्ध कर्मोंके वश हो लाचारीसे कर्मके औदयिकभावोंमें प्रवृत्ति करता है।
इस भांति सम्यक्त्वधारी जीवके तत्त्वार्थश्रद्धान सामान्यरूप और विशेषरूप शक्तिअवस्था अथवा व्यक्तअवस्थाको लिये निरन्तर पाया जाता है । यहाँपर प्रश्न उठता है कि, “इस लक्षणमें अव्याप्तिदूषणका
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श्रीमद् राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम् [१-सम्यक्त्वके पाठ अंग तो प्रभाव है परन्तु अतिव्याप्तिदूषण अवश्य आता है; क्योंकि द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोंको ही मानते हैं, अन्यमत कल्पित तत्त्वोंको नहीं मानते । लक्षण ऐसा कहना चाहिये "जो लक्ष्यके बिना अन्य स्थानपर न पाया जावे" इसका समाधान इस प्रकार है कि:
द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोंको ही मानते हैं परन्तु विपरीताभिनिवेशसंयुक्त शरीराश्रित क्रियाकांडको अपना जानते हैं, ( यहाँ अजीव तत्त्वमें जीवत्व श्रद्धान हुआ ) और प्रास्रव बंध रूप शील संयमादि परिणामोंको संवर निर्जरारूप मानते हैं। वे यद्यपि पापसे विरक्त हुए हैं, परन्तु पुण्यमें उपादेय बुद्धि रखते हैं, अतएव उनके तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान नहीं हुआ।
.. सम्यक्त्वके पाठ अंगोंका वर्णन ।
१. निःशङ्कित सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलजैः ।
किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्कति कर्त्तव्या ॥२३॥ अन्वयायौं -[अखिलजः] सर्वज्ञदेवद्वारा [उक्तं] कहा हुआ [इदम्] यह [सकलम्] सारा [वस्तुजातम्] वस्तुसमूह [अनेकान्तात्मकम्] अनेक स्वभावरूप [उक्तं] कहा गया है सो [किमु सत्यम्] क्या सत्य है ? [वा असत्यं] या झूठ है ? [इति] ऐसी [शंका] शंका [जातु] कदाचित् भी [न] नहीं [कर्सव्या करनी चाहिये।
भावार्थ-जिनप्रणीत पदार्थों में सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिनभगवान् अन्यथावादो नहीं होते, इसको निःशङ्कित अंग कहते हैं।
- २. निःकाङ्कित - - - इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्त्वकेशवत्वादीन् ।
एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च नाकाङ क्षेत् ॥२४॥ अन्वयाथों-[इह] इस [जन्मनि] लोकमें [विभवादीनि] ऐश्वर्य सम्पदा आदिको [अमुत्र] परलोकमें [ चक्रित्त्वकेशवत्त्वादीन् ] चक्रवर्ती नारायणादि पदोंको [ 1 ] और [ एकान्तवाददूषितपरसमयान् [ एकान्तवादसे दूषित अन्य धर्मोको [अपि] भी [न] नहीं [आकाक्षेत्] चाहे ।
भावार्थ-सम्यक्त्वधारी जीव इसलोकसम्बन्धी पुण्यके फलोंको आकांक्षा नहीं करता है और न परलोकसम्बन्धी वैभव चाहता है। क्योंकि, वह पुण्यके फलरूप इन्द्रियोंके विषयोंको आकुलताके निमित्त से दुःखरूप ही जानता है, इसको निःकांक्षित अर्थात् वाञ्छा रहित अंग कहते हैं।
१-इदमेवेशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा। इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११॥ -(स्वामी समंतभद्राचार्यकृत रत्नकरंडश्रावकाचार ) अर्थात्-तत्त्व यही हैं, ऐसे ही हैं, अन्य नहीं हैं, अथवा और प्रकार नहीं हैं, ऐसी निष्कम्प खड्गधारके पानीके समान सन्मार्गमें संशय रहित रुचि या विश्वास होनेको निश्शंकित अंग कहते हैं। २-कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षा स्मृता ॥१२॥ (र० क०)
यहां कांक्षाका अर्थ वांछा अथवा चाह है। चाह किसकी? विषयोंकी, विषय-साधनोंकी। अर्थात्-कर्मके अधीन, अंतसहित, उदयमें दुःखमिश्रित और पापके बीजरूप सुखमें अनित्यताका श्रद्धान होना निःकांक्षित अंग है ।
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श्लोक - २३-२४-२५-२६ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः । ३. निर्विचिकित्सा'
क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु ।
द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव कररणीया ॥ २५ ॥
१६
अन्वयार्थी - [ क्षुत्तष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु ] भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि [ नानाविधेषु ] नाना प्रकार के [ भावेषु ] भावोंमें और [ पुरीषादिषु ] विष्टादिक [ द्रव्येषु ] पदार्थों में [ विचिकित्सा ] ग्लानि [नैव ] नहीं [करणीया ] करना चाहिये ।
भावार्थ- पापके उदयसे अथवा दुःखदायक भावोंके संयोगसे उद्वेग रूप नहीं होना चाहिये, क्योंकि उदयकार्य अपने वशका नहीं है, और इससे अपने प्रमूर्तीक आत्माका घात भी नहीं होता । विष्टादिक निद्य अपवित्र वस्तुओंोंको देखकर अथवा स्पर्श होनेपर ग्लानि नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, और शरीर तो जिसमें आत्माका निवास है, इससे भी अधिकतर निंद्य वस्तुमय है । इस ग्लानि रहित रूप अंगका नाम निर्विचिकित्सा है ।.
४. श्रमूढत्व
लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥२६॥
अन्वयार्थौ ं–[लॊकॆ] लोकमें [शास्त्राभासे] शास्त्राभासमें [समयाभासे] धर्माभासमें [च] र [देवताभासे] देवताभासमें [तत्त्वरुचिना ] तत्त्वों में रुचि रखनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुषको [ नित्यमपि ] सदा ही [ अमूढदृष्टित्वम् ] मूर्खतारहित दृष्टित्व अर्थात् श्रद्धान [कर्त्तव्यम् ] करना चाहिये ।
भावार्थ - लोकके जन विपरीतरूप प्रवृत्ति करते हैं, उनकी देखादेखी सम्यग्दृष्टिको न चलना चाहिये । ज्ञानसे विचारकर कार्य करना उचित है । इस ही प्रकार अन्य कपोलकल्पित ग्रन्थ सद्ग्रन्थोंके समान मालूम हों, झूठे मत सच्चे सरीखे मालूम हों, झूठे देव सुदेव समान मालूम हों, तो धोखे में न आना चाहिये, और उनमें श्रद्धान न करना चाहिये । सारांश ज्ञानसे भ्रष्ट होनेके कारणोंसे हमेशा सावधान रहना उचित है । प्रमूढदृष्टि शब्द में 'दृष्टि' शब्दका ग्रर्थ दर्शन या श्रद्धान है । मूर्खतापूर्ण या विवेकरहित विश्वासको मूढदृष्टि कहते हैं । सम्यग्दृष्टिकी ऐसी कोई प्रवृत्ति न होनी चाहिए जो इस मूढदृष्टिपनेको प्रकट करती हो । सम्यक्त्वका यह प्रमूढदृष्टित्व नामक चौथा अंग है ।
१ - स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निजुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता ॥१३॥ ( २०क० ) अर्थात्-रत्नत्रय से पवित्र किन्तु स्वाभाविक अपवित्र शरीर में ग्लानि नहीं करके उसके गुणोंमें प्रीति करना इसको निर्जुगुप्सा कहते हैं ।
२- कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेप्यसम्मतिः । असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ १४ ॥ ( २० क० )
अर्थात् दुःखदायक कुत्सित मार्गों में या धर्मो में और कुमार्गो में स्थित पुरुषोंमें मनसे प्रमाणता, कायसे प्रशंसा, और वचनसे स्तुति न करनेको प्रमूढदृष्टि कहते हैं ।
३ - प्राभास - यथार्थ में जो पदार्थ जैसा नहीं है, वह भ्रमबुद्धिसे वैसा दिखलाई देने लगे, जैसे मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए शास्त्र यथार्थ में शास्त्र नहीं हैं, परन्तु भ्रमसे शास्त्र प्रतीत होवें, यह शास्त्राभास है ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [१-सम्यक्त्वके पाठ अंग
___ ५. उपगृहन' . धर्मोऽभिवर्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया।
परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृहणगुणार्थम् ॥ २७ ॥ अन्वयाथों-[ उपबृहणार्थम् ] उपबृहण नामक गुणके अर्थ [ मार्दवादिभावनया ] मार्दव क्षमा संतोषादि भावनाओंके द्वारा [सदा] निरन्तर [प्रात्मनो धर्मः] अपने आत्माके धर्म अर्थात् शुद्धस्वभावको [अभिवर्धनीयः] वृद्धिंगत करना चाहिये और [परदोषनिगृहनमपि] दूसरोंके दोषोंको गुप्त रखना भी [विधेयम्] कर्तव्य-कर्म है।
भावार्थ-उपबृहण शब्दका अर्थ 'बढाना' है, अतएव अपने आत्माका धर्म बढ़ाना कहा गया, तथा इस अंगको उपगृहन भी कहते हैं, जिसका अर्थ ढाँकना है। इससे पराये दोषोंका ढाँकना लक्षित होता है । क्योंकि दोषोंके प्रकट करनेसे दोषी पुरुषकी आत्माको अत्यन्त कष्ट होता है । कोमलता सरलता आदि भावनाओंसे आत्माके धर्मकी बढ़वारी होती है। और पराये दोषोंके छिपानेसे भी प्रात्मोन्नति होती है, उस दूसरे मनुष्यका भी उससे बहुत सुधार हो सकता है। अतएव यह उपबृहग नामक पाँचवाँ अंग है।
६. स्थितिकरण कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वत्मनो न्यायात् ।
श्रतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।।२८।।... अन्वयाथों-[ कामक्रोधमदाविष ] काम, क्रोध, मद, लोभादि विकार [ न्यायात वर्मनः ] न्यायमार्गसे अर्थात् धर्ममार्गसे [ चलयितुम् ] विचलित करनेके लिए [ उदितेषु ] प्रकट हुए हों तब [श्रुतम्] श्रुतानुसार [प्रात्मनः परस्य च] अपनी और दूसरोंकी [स्थितिकरणम्] स्थिरता [अपि] भी [कार्यम्] करनी चाहिए।
भावार्थ-यदि अपने परिणाम धर्मसे भ्रष्ट होते हों तो आपको और यदि दूसरेके होते हों तो दूसरेको जिस प्रकार हो सके धर्ममें दृढ़ करना, यह सम्यक्त्वका स्थितिकरण नाम छट्टा अंग है।
७. वात्सल्य अनवरतहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे ।
सर्वेष्वपि च समिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ॥२६॥ १-स्वयंशुखस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५॥ (र० क०)
अर्थात्- "स्वयंशुद्ध मोक्षमार्गकी-अशक्त और अज्ञानी जीवोंके आश्रयसे होती हुई निन्दाके दूर करनेको उपगृहन कहते हैं। २-दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्राजैः स्थितिकरणमुच्यते ॥१६॥ (र० क०)
अर्थात्-सम्यग्दर्शनसे और सम्यक्चारित्रसे चलायमान होते हुए जीवोंको धर्मवत्सल विद्वानोंद्वारा स्थिरीभूत किये जानेको स्थितिकरण कहते हैं। ३-स्वयूथ्यान् प्रति सद्भावसनाथापेतकतवा । प्रतिपत्तिर्षथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥१७॥ (र० क०)
अर्थात्-अपने समूहके धर्मात्मा जीवोंका समीचीन भावसे कपट रहित यथायोग्य सत्कार करनेको वात्सल्य कहते हैं।
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श्लोक २७-२८-२६-३०] पुरुषार्थसिद्धयु पायः।
२१ अन्वयाथों-[शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने ] मोक्षसुखरूप सम्पदाके कारणभूत [ धर्मे ] धर्म में, [अहिंसायां] अहिंसामें [च] और [सर्वेष्वपि] समस्त ही [सर्मिषु] साधर्मी जनोंमें [अनवरतम्] लगातार [परमं] उत्कृष्ट [वात्सत्यम् वात्सल्य व प्रीतिको [पालम्म्यम्] अवलम्बन करना चाहिये।
भावार्थ-गोवत्स सरीखी प्रीतिको वात्सल्य कहते हैं। जैसे गाय अपने बछड़ेपर अतिशय प्यार रखती है, उसी प्रकारसे धर्ममें और धर्मात्मानोंमें भी वैसी ही प्रीति रखनी चाहिए । यह सम्यक्त्वका वात्सल्य नामक सातवाँ अंग है।
८. प्रभावना प्रात्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।। ३० ॥ अन्वयार्थी -- [सततम् एव] निरन्तर ही [रत्नत्रयतेजसा] रत्नत्रयके तेजसे [प्रात्मा] अपने आत्माको [ प्रभावनीयः ] प्रभावनायुक्त करना चाहिये [च ] और [ दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैः ] दान, तप, जिनपूजन, और विद्याके अतिशयसे अर्थात् इनकी बढ़वारी करके [जिनधर्मः] जिनधर्म (प्रभावनीयः) प्रभावनायुक्त करना चाहिये।।
भावार्थ-प्रभाव अतिशय या महिमा प्रकट करनेको 'प्रभावना' कहते हैं, सो अपनी आत्माकी तो प्रभावना रत्नत्रयके तेजसे प्रकट होती है और जिनधर्मकी महिमा जी खोलकर दान देने, तप करने, समारोह सहित पूजन विधान करने और पाठशाला, विद्यालय, सरस्वतीभवन प्रादि स्थापित करनेसे एवं कभी कभी शूरता दिखानेसे प्रकट होती है । सम्यक्त्वका यह प्रभावना नामक पाठवां अंग है। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचिते पुरुषार्थसिद्धय पाये अपरनाम जिनप्रवचनरहस्यकोषे
सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमोऽधिकारः ।
२-सम्यग्ज्ञानव्याल्यान। इत्याश्रितसम्यक्त्वः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन ।
प्राम्नापयुक्तियोगः समुपास्यं निस्यमात्महितः ॥३१॥ अन्वयार्थी-1 इति । इस प्रकार [प्राश्रितसम्यक्त्वैः । आश्रित है सम्यक्त्व जिनके ऐसे [प्रात्महितैः ] आत्माके हितकारी पुरुषोसे [ नित्यम् ] सर्वदा [ माम्नाययुक्तियोगः ] जिनागमकी १-अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥१७॥ (र. क.)
प्रति-अज्ञानान्धकारको व्याप्तिको जैसे हो सके वैसे दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको प्रकाश करना प्रभावना है।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ २- प्रमाण - नयस्वरूप
परम्परा व युक्ति अर्थात् प्रमाण नयके अनुयोगोंद्वारा [ निरूप्य ] विचार करके [ यत्नेन ] यत्नपूर्वक [ सम्यग्ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [ समुपास्यं ] भले प्रकार सेवन करने योग्य है ।
भावार्थ- पदार्थका जो स्वरूप जिनागमकी परम्परासे मिलता है, उसे प्रमाणपूर्वक अपने उपयोग में स्थिरकर यथावत् जानना यही सम्यग्ज्ञानकी यथार्थ सेवा है ।
प्रमारण नयका संक्षिप्त स्वरूप ।
प्रमारण
'तत्प्रमाणे, ' तत्त्वार्थ सूत्रके इस वचनसे सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, और प्रमाणके मुख्य दो भेद हैं, पहला प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष । यहाँपर पहिले प्रत्यक्षप्रमाणके भेदोपभेद बतलाते हैं
प्रत्यक्षप्रमाण के दो भेद हैं- पहला पारमार्थिकप्रत्यक्ष, दूसरा सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष । जो ज्ञान केवल आत्मा ही के आधीन रहकर जितना अपना विषय है, उतना विशुद्धतासे स्पष्ट जानता है, वह पारमार्थिकप्रत्यक्ष है और जो नेत्रादिक इन्द्रियोंसे रूप रसादिकको साक्षात् ग्रहणकालमें जानता है, वह सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष है । पारमार्थिकप्रत्यक्ष दो प्रकारका है। एकदेशपारमार्थिकप्रत्यक्ष और सर्वदेशपारमार्थिकप्रत्यक्ष | अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष और केवलज्ञान सर्वप्रत्यक्ष है । सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष व्यवहार दृष्टिमें प्रत्यक्ष कहा गया है; परन्तु परमार्थदृष्टि में परोक्ष ही कहा जाता है, क्योंकि इस ज्ञानसे सर्वथा स्पष्ट जानना नहीं होता । जैसे- किसी वस्तुको नेत्रसे देखते ही ज्ञान हुआ कि, यह वस्तु सफेद है । यद्यपि उस वस्तुमें मलिनताका भी मिलाप है परन्तु स्पष्ट प्रतिभासित नहीं हो सका कि उनमें कितने अंश सफेदीके हैं और कितने मलिनताके हैं। अतएव यह व्यवहार मात्र प्रत्यक्ष है, यथार्थ में परोक्ष है ।
परोक्षप्रमाण - जो इंद्रियजन्य ज्ञान अपने विषयको स्पष्ट न जाने उसे परोक्षप्रमाण कहते हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे जो कुछ जाना जाता है, वह सब परोक्षप्रमाण है । इसके मुख्य पाँच भेद हैं । १ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान, और ५ श्रागम ।
१ स्मृति - पूर्व में जो पदार्थ जाना था उसके स्मरणमात्रको स्मृति कहते हैं ।
२ प्रत्यभिज्ञान- पूर्व वार्ताका स्मरणकर प्रत्यक्ष पदार्थके साथ जोड़कर निश्चय करनेको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं- जैसे किसी पुरुषने पहिले सुना था कि, गवय ( रोझ) गाय सरीखा होता है, और फिर वह कदाचित् जंगलमें गवय देखकर जाने कि जो गाय सरीखा गवय जानकर सुना था वह यही है । इस ज्ञानमें 'वह' इतने मात्र ज्ञानको स्मृति, 'यह' इतनेको अनुभव, और स्मृति तथा अनुभवसम्मिश्रित 'वह यही है' इतने ज्ञानकी प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।
३ तर्क र व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं, और एकके विना एक न होवे इसे व्याप्ति कहते हैं, जैसे अग्निके विना नहीं रहता, आत्माके विना चेतना नहीं रहती, इसी व्याप्तिका जानना तर्क कहलाता है।
१ - तत्रोल्लेखि ज्ञानं स्मृतिः, इन्द्रियग्राहिवर्तमान कालावच्छिन्न पदार्थज्ञानमनुभवः, एतदुभयसंकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानमिति २- व्याप्यव्यापकसम्बन्नो हि व्याप्तिस्तद्ज्ञानं तर्क इति ।
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श्लोक ३१ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः।
. । ४ अनुमान-सङ्कतों ( चिह्नों) से पदार्थके निश्चय करनेको अनुमान कहते हैं, जैसे किसो पर्वतमेंसे धूम निकलते हुए देखकर निश्चय करना कि यहाँ अग्नि है।
५ प्रागम-प्राप्त-वचनोंके निमित्तसे पदार्थके निश्चय करनेको पागम कहते हैं । जैसे शास्त्रोंसे लोकादिकका स्वरूप जानना।
नय
ऊपर कहे हुए प्रमाणके अंश को हो नय कहते हैं, अर्थात् प्रमाणद्वारा ग्रहण किये हुये पदार्थके एक एक धर्मको मुख्यतासे जो अनुभव कराता है वह नय है। इसके दो भेद हैं, पहला द्रव्याथिकनय और दूसरा पर्यार्थिकनय ।।
द्रव्याथिकनय-जो नय द्रव्यकी मुख्यतासे पदार्थका अनुभवन करावे उसे द्रव्याथिकनय कहते हैं । इसके ३ उत्तर भेद हैं । १ नैगम, २ संग्रह और ३ व्यवहार ।
१. नैगम-संकल्पमात्रसे पदार्थके जाननेको नैगम नय कहते हैं, जैसे कोई मनुष्य कठती (काठका वर्तन विशेष) के लिये काष्ठ लानेको जाता था उससे किसोने पूछा कि भाई, कहाँ जाते हो ? उसने कहा कि कठौतीके लिये जाता हूं। यहाँपर विचारना चाहिये कि यद्यपि जहाँ वह जाता है, वहाँ उसे कठौती नहीं मिलेगी, परन्तु उसके चित्तमें यह है कि मैं काष्ठ लाकर उसकी कठौती हो बनाऊँगा, इसका कहीं भूत और कहीं भविष्यत्काल विषय है।
२. संग्रह-सामान्यरूपसे पदार्थके ग्रहण करनेको संग्रह कहते हैं। जैसे छह द्रव्योंके समूहको द्रव्य कहना।
३ व्यवहार-सामान्यरूपसे कहे हुए विषयको विशेष कहना, इसे व्यवहार कहते हैं, जैसे द्रव्यके ६ भेद करना।
पर्यायाथिकनय-जो नय द्रव्यके स्वरूपसे उदासीन होकर पर्यायकी मुख्यता पर पदार्थका अनुभवन कराता है, उसे पर्यायाथिकनय कहते हैं-इसके १ऋजुसूत्र, २ शब्द, ३ समभिरूढ और ४ एवंभूत ये चार भेद हैं।
१ ऋजुसूत्र-जिस नयसे वर्तमान पर्यायमात्रका ग्रहण किया जावे, उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। जैसे देवको देव और मनुष्यको मनुष्य कहना।
२ शब्द-व्याकरणादि द्वारा शब्दके लिङ्ग वगैरहके द्वारा परस्परके वाच्य पदार्थोंमें भेद न मानना उसे शब्दनय कहते हैं।
३ समभिरूद्ध-पदार्थमें मुख्यतासे एक अर्थके प्रारूढ करनेको समभिरूढ कहते हैं, जैसे 'गच्छतीति गौः' इस वाक्यसे जो गमन करे बही गाय होती है, परन्तु सोती हुई व बैठी हुईको भी गाय कहना यह समभिरूढनयका विषय है।
४ एवंभूत-वर्तमान किया जिस प्रकार हो उसी प्रकार कहनेको एवंभूत कहते हैं, अर्थात् जिस समय चलती हुई हो उसी समय गाय कहना, सोती हुई व बैठी अवस्था में गाय नहीं कहना।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ सम्यग्ज्ञान वर्णन
इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनोंके मिलकर सात भेद नयके होते हैं। ऊपर क हुए प्रमाण और नयके संयोगको "नयप्रमारणाभ्याम् युक्तिः” इति वचनात् (इस वचनसे) युक्ति कहते हैं । इस प्रकार प्रमाण और नयका संक्षिप्त कथन “प्रमारण नयैरधिगमः " ( पदार्थोंका यथार्थज्ञान प्रमाण नयों से ही होता है) सूत्रपर ध्यान देकर ही किया गया है, और इसका आगे काम भी बहुत पड़ेगा ।
२४
पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसह भाविनोषि बोधस्य ।
लक्षरणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः ॥ ३२ ॥
श्रन्वयार्थी - [ दर्शनसह भाविनोषि ] सम्यग्दर्शनके साथ उत्पन्न होनेपर भी [बोधस्य ] सम्यग्ज्ञान का [पृथगाराधनम् ] जुदा ही श्राराधन करना [इष्टं] ठीक अर्थात् कल्याणकारी है, [यतः ] क्योंकि [ अनयोः ] इन दोनोंमें अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें [लक्षरगमेदेन ] लक्षणभेदसे [नानात्वं ] भिन्नता [ संभवति ] संभव होती है ।
भावार्थ- सम्यग्दर्शनका लक्षण यथार्थं श्रद्धान है और सम्यग्ज्ञानका लक्षण यथार्थ जानना है, इसी कारण सम्यग्ज्ञानको जुदा ही कहना चाहिए ।
सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ।। ३३ ।।
श्रन्वयार्थी - [जनाः ] जिनेन्द्रदेव [ सम्यग्ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञानको [कार्य] कार्य और [सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्वको [कारणं] कारण [ वदन्ति ] कहते हैं, [तस्मात् ] इस कारण [ सम्यक्त्वानन्तरं ] सम्यक्त्वके बाद ही [ज्ञानाराधनम् ] ज्ञानकी उपासना [इष्टम् ] ठीक है ।
भावार्थ - यद्यपि पहिले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पदार्थको जानते थे, परन्तु सम्यक्त्वके विना उन दोनोंका नाम कुमति और कुश्रुत था । जिस समय सम्यक्त्व हुआ उसी समय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान नाम हो गया, सारांश ज्ञान यद्यपि था, परन्तु उनमें सम्यक्त्वपना सम्यग्दर्शनसे ही हुआ । अतएव सम्यक्त्व कारणरूप और सम्यग्ज्ञान कार्यरूप है ।
काररणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिय सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।। ३४ ।।
अन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ सम्यक्त्वज्ञानयोः ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों के [समकालं ] एककालमें [ जायमानयोः श्रपि ] उत्पन्न होने पर भी [ दीपप्रकाशयोः ] दीप और प्रकाशके [व] समान [कारणकार्यविधानं.] कारण और कार्यकी विधि [सुघटम् ] भले प्रकार घटित होती है ।
भावार्थ - यद्यपि दीपकका जलना और उसका प्रकाश एक ही साथ होता है, और जबतक दीपक जलता रहता है, तबतक ही प्रकाश रहता है, परन्तु दीपकका जलना प्रकाशका कारण है । इसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक ही समय होते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है |
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श्लोक ३२-३३-३४-३५-३६ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः।
कर्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु । संशयविपर्यायानध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ॥३५॥
अन्वयाथों--[सदनेकान्तात्मकेषु] प्रशस्त अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक स्वभाववाले [तत्त्वेषु] तत्त्वों या पदार्थोंमें [ अध्यवसायः ] उद्यम करना [ कर्तव्यः ] कर्तव्य है, और [ तत् ] वह सम्यग्ज्ञान [ संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तम् ] संशय, विपर्यय और विमोह रहित [प्रात्मरूपं] अात्माका निज स्वरूप है।
भावार्थ- पदार्थके स्वरूपको यथार्थ जानना ( पदार्थ जिन अनेक स्वभावोंसे संयुक्त है, उनको भलीभाँति जानना ) सम्यग्ज्ञान कहलाता है, और यह सम्याज्ञान आत्माका निजस्वरूप है । सम्यग्ज्ञान संशय, विपर्यय और विमोह इन तीन भावोंके रहिन होना चाहिये:
संशय-विरुद्ध दो धर्मरूप ज्ञानको संशय कहते हैं, जैसे रात्रिमें किसीको देखकर संदेह कर कि न जाने यह पदार्थ मनुष्य है, कि राक्षस है, अथवा व्यन्तर है।
विपर्यय-अन्यथारूप इकतरफी ज्ञानको विपर्यय कहते हैं, जैसे मनुष्य में व्यन्तरकी प्रतीति ।
जिमोह—'कुछ हैं, केवल इतना जाननेको विमोह कहते हैं। जैसे गमन करते समय तृणका स्पर्श।
ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥ ३६ ॥
अन्वयाथी -- [ ग्रन्थार्थोभयपूर्ण ] ग्रन्थरूप ( शब्दरूप ), अर्थरूप और उभय अर्थात् शब्द अर्थरूप शुद्धतासे परिपूर्ण [ काले ] कालमें अर्थात् अध्ययनकालमें आराधने योग्य [विनयेन] मन, वचन, कायको शुद्धतास्वरूप विनय [ च ] और [ सोपधानं ] धारणायुक्त [ बहुमानेन ] अतिशय सम्मानकर अर्थात् देव गुरु शारूकी वन्दना नमस्कारादि कर [समन्वितम्] सहित, तथा [अनिह्नवं] विद्यागुरुकी गोपनीसे रहित [ज्ञानम्] ज्ञान [माराध्यम्] अराधन करने योग्य है ।
भावार्थ-१ शब्दाचार, २ अर्थाचार, ३ उभयाचार, ४ कालाचार, ५ विनयाचार, ६ उपधानाचार, ७ बहुमानाचार और ८ अनिह्नवाचार, ये ज्ञानके पाठ अङ्ग हैं:
१ शब्दाचार- शब्द-शास्त्र (व्याकरण) के अनुसार अक्षर, पद, वाक्यका यत्नपूर्वक शुद्ध पठनपाठन करनेको कहते हैं । व्यञ्चनाचार, श्रुताचार, अक्षराचार, ग्रन्थाचार आदि सब एकार्थवाची हैं।
__ २ अर्थाचार-यथार्थ शुद्ध अर्थक अवधारण करनेको कहते हैं ।
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२६
श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
[ सम्यक् चारित्र वर्णन
३ उभयाचार' - अर्थ और शब्द दोनोंसे शुद्ध पठन-पाठन करने को कहते हैं । ४ कालाचार - गोसर्गकाल २, प्रदोषकाल, प्रदोषकाल", और विरात्रिकाल इन चार उत्तम कालों में पठन-पाठनादिरूप स्वाध्याय करनेको कालाचार कहते हैं। चारों संध्यायोंकी ग्रन्तिम दो दो घड़ियोंमें, दिग्दाह, उल्कापातं, वज्रपात, इन्द्रधनुष, सूर्य-चन्द्रग्रहण, तूफान, भूकम्प आदि उत्पातोंके समय में, सिद्धान्त-ग्रन्थोंका पठन-पाठन वर्जित है । हाँ स्तोत्र, प्राराधना, धर्मकथादिक ग्रन्थ बाँच सकते हैं ।
५ विनयाचार - शुद्ध जलसे हाथ पाँव धोकर शुद्ध स्थान में पर्यङ्कासन बैठकर नमस्कारपूर्वक शास्त्राध्ययनको कहते हैं ।
६ उपधानाचार — उपधान सहित प्राराधन करनेको अर्थात् विस्मृत न हो जानेको कहते हैं ।
७ बहुमानाचार – ज्ञान, पुस्तक और शिक्षकका पूर्ण आदर करनेको कहते हैं । ८ निवाचार - जिस गुरुसे जिस शास्त्रसे ज्ञान उत्पन्न होवे उसको गोपन न करनेको कहते हैं ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचिते पुरुषार्थसिद्धयुपाये अपरनाम जिनप्रवचन रहस्यकोषे सम्यग्ज्ञानवर्णनो नाम द्वितीयोऽधिकारः ।
३ सम्यक्चारित्रव्याख्यान ।
विगलितदर्शन मोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्वार्थेः ।
नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्व्यम् ॥ ३७ ॥
श्रन्वयार्थी - [ विगलितदर्शनमो है: ] दर्शनमोह जिन्होंने नष्ट कर दिया है, [ समञ्जसज्ञानविदिततस्वार्थे: ] सम्यग्ज्ञानसे जिन्हें तत्त्वार्थ विदित हुआ है, [ नित्यमपि निःप्रकम्पैः ] जो सदाकाल कम्प अर्थात् दृढ़चित्त हैं, ऐसे पुरुषोंद्वारा [ सम्यक्चारित्रम् ] सम्यक्चारित्र [ श्रालम्ब्यम् ] अवलम्बन करने योग्य है ।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् सम्यक्चारित्र अंगीकार करना चाहिये ।
-उभयाचारको शब्द अर्थसे पृथक् करके तीसरा भेद माननेका कारण यह है, कि कहीं कहीं केवल ग्रन्यसे ही ज्ञानकी अराधना होती है, जैसे दशाध्यायसूत्र तथा भक्तामरादिस्तोत्रोंके पाठमात्रसे और कहीं कहीं केवल अर्थसे ही जैसे, शिवभूति मुनि 'शरीरसे आत्मा तुषमाषकी तरह भिन्न है, ' केवल यह जानकर कल्याणको प्राप्त हुए । २ - मध्याह्नसे दो घड़ी पहिले और सूर्योदयसे दो घड़ी पीछे । ३- मध्याह्नसे दो घड़ी पश्चात् और रात्रिसे दो घड़ी पहिले । ४ - रात्रि से दो घड़ी उपरान्त और मध्यरात्रिसे दो घड़ी पहिले । ५- मध्यरात्रिसे दो घड़ी पश्चात् और सूर्योदयसे दो घड़ी पहिले ।
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लोक ३७-३८-३६ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ।। ३८ ॥
२७
अन्वयार्थी - [ श्रज्ञानपूर्वकं चारित्रम् ] जिसके पूर्व में अज्ञानभाव है, ऐसा चारित्र [सम्यग्व्यपदेशं ] सम्यक् नामको [न हि] नहीं [लभते ] पाता, [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानानन्तरम् ] सम्यग्ज्ञान के पश्चात् [ चारित्राराधनं ] चारित्रका प्राराधन [ उषतं ] कहा है।
भावार्थ - पहिले यदि सम्यग्ज्ञान न होवे, और पाप क्रियाका त्यागकर चारित्र भार धारण करे, तो वह चारित्र सम्यक्चारित्र नाम नहीं पा सकता, जैसे विना जानी औषधके सेवनसे मरण संभव है, उसी प्रकार विना ज्ञानके चारित्रसे संसारकी वृद्धि होना संभव है । विना जीवके मृत शरीरस्थ इन्द्रियोंके प्राकार जैसे निष्प्रयोजन हैं, वैसे ही विना जानके शरीरका वेष, क्रियाकांडसाधन, शुद्धोपयोग प्राप्ति के साधक नहीं हो सकते ।
चारित्रं भवति यतः समस्तसाबद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशवमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ ३६ ॥
अन्वयार्थी - [ यतः ] क्योंकि [ तत्] वह [ चारित्रं ] चारित्र [ समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् ] समस्त पापयुक्त मन, वचन, कायके योगोंके त्यागसे [ सकलकषायविमुक्तं ] सम्पूर्ण कषायोंसे रहित [विशदम् ] निर्मल, [उदासीनम् ] पर पदार्थोंसे विरक्ततारूप और [ श्रात्मरूपं ] ग्रात्म स्वरूप [भवति ] होता है ।
भावार्थ- समस्त कषायोंका प्रभाव होनेसे यथाख्यातचारित्र होता है । सामायिकचारित्र में यद्यपि सकलचारित्री हुआ था, परन्तु संज्वलनकषायके कारण मन्दता नहीं गई थी, अतएव जब सकल कषायोंसे रहित हुआ, तब यथाख्यातचारित्र नाम पाया अर्थात् चारित्रका जो स्वरूपं था वह प्रकट हुआ । प्रसङ्गोपात्त
प्रश्न – स्वभाव चारित्र है कि नहीं ?
उत्तर -- शुभोपयोग विशुद्ध परिणामोंसे होता है, और विशुद्धता मंद कषायको कहते हैं । इसलिये कषायकी हीनतासे कथंचित् चारित्र है । पुनः
प्रश्न - देव, गुरु, शास्त्र, शील, तप, संयमादिकोंमें होने वाली अत्यन्त रागरूप प्रवृत्तिको जो मन्द कषाय ही है, क्या कहना चाहिये ?
उत्तर—यह रागरूप प्रवृत्ति विषय कषायादिकके रागकी अपेक्षा मन्द कषाय ही है, क्योंकि इस राग प्रवृत्ति में क्रोध, मान, मायाका तो नाम नहीं है, रहा प्रीति भावकी अपेक्षा लोभ, सो भी सांसारिक प्रयोजनयुक्त नहीं है । अतएव लोभ कषायकी भी मन्दता ठहरी, और फिर ज्ञानी जीव राग भावोंका प्रेरा हुआ अशुभ रागों को छोड़ शुभ रागमें प्रवृत्त हुआ है, कुछ शुभ रागको उपादेयरूप श्रद्धान नहीं कर बैठा है, बल्कि अपने शुद्धोपयोगरूप चारित्रके लिये मलिनताका कारण ही जानता है, अशुभोपयोगी कषायों की तीव्रता गई है, इसलिये किसी प्रकार चारित्र कह सकते हैं ।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्। [ तृतीय अधिकार सम्यरुचारित्र हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः। कात्स्न्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥ ४०॥
अन्वयाथी -[ हिंसातः ] हिंसासे, [ अनतवचनात् ] असत्य भाषणसे, [स्तेयात् ] चोरीसे, [अब्रह्मतः ] कुशीलसे, और [ परिग्रहतः | परिग्रहसे [ कात्स्न्यै कदेशविरतेः ] सर्वदेश पोर एकोदेश त्यागसे वह [ चारित्रं ] चारित्र [ द्विविधम् ) दो प्रकारका [ जायते ] होता है।
भावार्थ-हिंसादिक पापोंके सर्वथा त्यागको सकलचारित्र और एकोदेश त्यागको देशचारित्र कहते हैं।
निरतः कात्य॑निवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् ।
या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥ ४१ ।। अन्वयाथों-[ कात्य॑निवृत्तौ ] सर्वथा सर्वदेशत्यागमें [ निरतः ] लवलीन [ अयम् यतिः ] यह मुनि [ समयसारभूतः ] शुद्धोपयोगरूप स्वरूप में आचरण करनेवाला [ भवति ] होता है। [या तु एकदेशविरतिः ] और जो एकदेशविरति है, [ तस्याम् निरतः ] उसमें लगा हुआ [ उपासकः ] उपासक अर्थात् श्रावक [ भवति ] होता है।
भावार्थ-सकलचारित्रका स्वामी मुनि और देश चारित्रका स्वामी श्रावक है ।
प्रात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् ।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।। ४२ ॥ अन्वयाथों-[प्रात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् ] आत्माके शुद्धोपयोगरूप परिणामोंके घात होनेके हेतुसे [ एतत्सर्वम् ] ये सब [ हिंसा एव ] हिंसा ही हैं, [ अनृतवचनादि ] अनृत वचनादिक भेद [ केवलम् ] केवल [ शिष्यबोधाय ] शिष्योंको समझानेके लिये [ उदाहृतं ] उदाहरणरूप कहे हैं।
भावार्थ-पाँचों पाप ( हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह ) हिंसामें ही गर्भित हैं। क्योंकि इन सब पापोंसे प्रात्माके शुद्ध परिणामोंका घात होता है, इस कारण पाँचों पाप हिंसाके ही भेद हैं।
यत्खलुकषाययोगात्प्रारणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिसा ।। ४३ ।।
अन्वयार्थी -[ कषाययोगात् ] कषायरूप परिणमन हुए मन वचन कायके योगोंसे [यत् ] जो [ द्रव्यभावरूपारणम् ] द्रव्य और भावरूप दो प्रकारके [ प्राणानां ] प्राणोंका [ व्यपरोपरणस्य करणं ] व्यपरोपणका या घातका करना है, [ खलु ] निश्चयसे [ सा] वह [ सुनिश्चिता ] अच्छी तरह निश्चय की हुई [ हिंसा ] हिंसा [ भवति ] होती है।
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श्लोक ४०-४१-४२-४३-४४-४५]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
२६
भावार्थ - जिस पुरुष के मनमें, वचनमें, कायमें, क्रोधादिक कषाय प्रकट होते हैं, उसके शुद्धोपयोगरूप भावप्राणों का घात तो पहले होता है, क्योंकि कषायके प्रादुर्भावसे भावप्राणका व्यपरोपण होता है, यह प्रथम हिंसा है । पश्चात् यदि कषायको तीव्रता से दीर्घ श्वासोच्छ् वाससे, हस्त पादादिकसे वह अपने अंगको कष्ट पहुँचाता है, अथवा आत्मघात कर लेता है, तो उसके द्रव्य प्राणोंका व्यपरोपण होता है, यह दूसरी हिंसा है । फिर उसके कहे हुए मर्मवेधी कुवचनादिकोंसे या हास्यादिसे लक्ष्यपुरुषके अन्तरंग में पीड़ा होकर उसके भावप्राणोंका व्यपरोपण होता है, यह तीसरी हिंसा है । और अन्त में इसकी तीव्र कषाय और प्रमादसे लक्ष्यपुरुषको जो शारीरिक प्रांग छेदन आदि पीड़ा पहुँचाई जाती है, सो परद्रव्यप्राणव्यपरोपण होता है, यह चोथो हिंसा है । सारांश - कषायसे अपने परके भावप्राण व द्रव्यप्राणका घात करना यह हिंसाका लक्षण है ।
प्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थी - [ खलु ] निश्चय करके [ रागादीनां ] रागादि' भावोंका [श्रप्रादुर्भावः ] प्रकट न होना [इति] यह [हिंसा ] अहिंसा [भवति ] है, और [तेषामेव ] उन्हीं रागादि भावोंकी [उत्पत्तिः ] उत्पत्ति होना [हिंसा] हिंसा [भवति ] होती है, [इति] ऐसा [जिनागमस्य ] जैनसिद्धान्तका [संक्षेप: ] सार है:
भावार्थ - अपने शुद्धोपयोगरूप प्राणका घात रागादिक भावोंसे होता है, अतएव रागादिक भावोंका प्रभाव ही अहिंसा है, और शुद्धोपयोगरूप प्राणघात होनेसे उन्हीं रागादिक भावोंका सद्भाव हिंसा है। परम अहिंसा धर्म प्रतिपादक जैनधर्मका यही रहस्य है ।
युक्ताचररणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि ।
न हि भवति जातु हिंसा प्रारणव्यपरोपणादेव ।। ४५ ।।
अन्वयार्थी - [ श्रपि ] और [ युक्ताचरणस्य ] योग्य आचरणवाले [ सतः ] सन्तपुरुषके [ रागाद्यावेशमन्तरेण ] रागादिक भावोंके विना [ प्रारणव्यपरोपरणात् ] केवल प्राणपीड़नसे [ हिंसा ] हिंसा [ जातु एव ] कदाचित् भी [ न हि ] नहीं [ भवति ] होती ।
१ - आदि शब्द द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, शोक, जुगुप्ता, प्रमादादिक समस्त विभाव भावोंका भी द्योतक है। उक्त विभाव भावोंका संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार जानना चाहिये : - राग - किसी पदार्थको इष्ट जानकर उसमें प्रीतिरूप परिणाम । द्वेष - किसीको अपना अनिष्ट जान उसमें प्रीतिरूप परिणाम । मोह - परपदार्थोंमें ममत्वरूप परिणाम । क.म- स्त्री पुरुष और नपुसन्कमें मैथुनरूप परिणाम । क्रोध - किसीकी अनुचित कृति जानके उसे दुःख देनेरूप परिणाम । मान -- अपनेको बड़ा मानना । माया - मन, वचन, काय में एकताका प्रभाव । लोभ - परपदार्थोंसे सम्बन्ध करनेके चाहरूप परिणाम । हास्य-उत्तम प्रत्तम चेष्टायें देख विकसित परिणाम । भय - दुःखदायक पदार्थोंको देख डररूप परिणाम । शोक- इष्टके अभाव में प्रार्त्त रूप परिणाम | जुगुप्सा-लानिरूप परिणाम । प्रमाद - कल्याणकारी कार्य में अनादर ।
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३० श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्।
[ ३-अहिंसा निरूपण भावार्थ-यदि किसी सज्जनपुरुषके सावधानतापूर्वक गमनादि करने में भी उसके शरीरसम्बन्ध से कोई जीव पीड़ित हो जावें, तो उसे हिंसाका दूषण कदापि नहीं लग सकता, क्योंकि उसके परिणाम कषाययुक्त नहीं थे। यही कारण है कि "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" यह हिंसाका लक्षण कहा है। यदि केवल "प्रारणव्यपरोणं हिंसा" अर्थात् प्राणोंको पीड़ा देना मात्र हो हिंसाका लक्षण कहा होता तो ऐसे अवसरपर अतिव्याप्तिदूषणका सद्भाव होता, इसके सिवाय अव्याप्तिदूषणका भी प्रवेश हो जाता, जो आगेके श्लोकसे प्रकट होगा। . .
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यो ध्रुवं हिंसा ॥४६॥
अन्वयाथों-[ रागादीनां ] रागादिक भावोंके [वशप्रवृत्तायाम् ] वशमें प्रवृत्त हुई [ व्युत्थानावस्थायां ] प्रयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्थामें [ जीवः ] जीव [म्रियतां] मरो [वा] अथवा [मा ] ‘म्रियतां' न मरो, [ हिंसा ] हिंसा तो [ध्रुवं ] निश्चयकर [ अग्ने] आगे ही [ धावति ] दौड़ती है।
भावार्थ-जो प्रमादी जीव कषायोंके वशीभूत होकर गमनादि क्रिया यत्नपूर्वक नहीं करता, वह 'जीव मरे अथवा नहीं मरे', हिंसाके दोषका भागी अवश्य होता है; क्योंकि हिंसा कषाय भावों से उत्पन्न होती है, और इसके कषायभावका सद्भाव है ही। इस वाक्यसे प्राणोंको पीडा न होते भी हिंसा सिद्ध होती है। यदि पूर्वकथित प्राणव्यपरोपण मात्र ( प्राणपीड़नमात्र ) लक्षण कहा होता तो अव्याप्तिदूषण पाता। बिना किसीके प्राणोंका घात हुए ही हिंसा क्यों हो गई ? इस प्रश्नका समाधान प्रागेके श्लोकसे हो जायगा।
यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तरारणां तु ॥ ४७ ॥
अन्वयाथौं --[ यस्मात् ] क्योंकि [प्रात्मा ] जीव [ सकषायः सन् ] कषाय भावों सहित होनेसे [ प्रथमम् ] पहिले [ प्रात्मना ] अापके ही द्वारा [ प्रात्मानम् ] आपको [ हन्ति ] घातता है, [तु] फिर [ पश्चात् ] पीछेसे चाहे [ प्राण्यन्तराणां ] अन्य जीवोंकी [ हिंसा ] हिंसा [ जायेत ] होवे [ वा ] अथवा [ न ] नहीं होवे।
भावार्थ-हिंसा शब्दका अर्थ घात करना है, परन्तु यह घात दो प्रकारका है, एक आत्मघात, दूसरा परघातः। जिस समय आत्मामें कषाय भावोंकी उत्पत्ति होती है, उसी समय अात्मघात हो जाता है। पीछे यदि अन्य जीवों की आयु पूरी हो गई हो, अथवा पापका उदय आया हो तो उनका भी घात हो जाता है, अन्यथा आयुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न पाया हो, तो कुछ भी नहीं होता, क्योंकि उनका घात उनके कर्मों के अधीन है; परन्तु आत्मघात तो कषायोंकी उत्पत्ति होते ही हो जाता है, और आत्मघात तथा परघात दोनों ही हिंसा है।
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३१
श्लोक ४६-४७-४८-४६ ]
पुरुषार्थसिद्धयु पायः। हिंसायाविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा तस्मात्प्रमत्तयोगे प्रारणव्यपरोपरणं नित्यम् ॥ ४८ ।।
अन्वयाथों-[ हिंसायाः ] हिंसासे [ अविरमणं ] विरक्त न होना [ हिंसा ] हिंसा, और [ हिंसापरिणमनम् ] हिंसारूप परिणमना [ अपि ] भी [ हिंसा ] हिंसा [ भवति ] होती है। [ तस्मात् ] इसलिये [ प्रमत्तयोगे ] प्रमादके योगमें [ नित्यम् ] निरन्तर [ प्राणव्यपरोपणं ] प्राणघातका सद्भाव है।
भावार्थ-परजीवके घातरूप हिंसा दो प्रकार की होती है-पहली अविरमणरूप और दूसरी परिणमनरूप । १-अविरणरूप हिंसा उसे कहते हैं, जो जीवके परघातमें प्रवृत्त न होनेपर भी हिंसा त्यागकी प्रतिज्ञाके बिना हुआ करती है। क्रियाके बिना ही यह हिंसा क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिस पुरुषके हिंसाका त्याग नहीं है, वह यद्यपि सोते हुए बिलावकी तरह किसी समय हिंसामें प्रवृत्ति नहीं भी करता, परन्तु उसके अन्तरंगमें हिंसा करनेके भावका सद्भाव है, अतएव वह अविरमणरूप हिंसाका भागी होता है। २--परिणमनरूप हिंसा उसे कहते हैं, जो जीवको परजीवके घातमें मन, वचन, कायसे प्रवृत्त होनेपर होती है। इन दोनों प्रकारकी हिंसाओंमें प्रमादसहित योगका अस्तित्व पाया जाता है, और जबतक प्रमाद पाया जाता है, तबतक हिंसाका अभाव किसी प्रकार नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमादयोगमें सदाकाल परजीवकी अपेक्षा भी प्राणघातका सद्भाव होता है। अतएव प्रमादके परिहारार्थ परजीवोंकी हिंसाके त्यागमें दृढ़प्रतिज्ञ होना चाहिये, जिससे दोनों प्रकार की हिंसाोंसे बचा रहे।
सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुसः ।
हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। ४६ ॥ अन्वयाथों-[खलु] निश्चयकर [ पुसः ] आत्माके [ परवस्तुनिबन्धना ] पर वस्तुका है, निबंधन (कारण) जिसमें ऐसी [ सूक्ष्महिंसा अपि ] सूक्ष्महिंसा भी [ न भवति ] नहीं होती है, [तदपि] तो भी [ परिणामविशुद्धये ] परिणामोंकी निर्मलताके लिए [ हिंसायतननिवृत्तिः ] हिंसाके पायतन परिग्रहादिकोंका त्याग [ कार्या ] करना उचित है।
भावार्थ-रागादिक कषाय भावोंका होना ही हिंसा है । परवस्तुका इससे कोई सम्बन्ध नहीं; परन्तु रागादिक परिणाम परिग्रहादिकके निमित्तसे ही होते हैं, इस कारण परिणामोंकी विशुद्धताके अर्थ परिग्रहादिका भी त्याग करना चाहिये; क्योंकि, जिस माताका सुभट पुत्र होता है, उससे यह कहा जाता है कि मैं तेरे सुभटको मारूंगा। परन्तु जिस बाँझके पुत्र ही नहीं है, उसपर यह परिणाम क्योंकर हो सकते हैं कि मैं तेरे पुत्रको मारूगा ? सारांश परिग्रहादिका अवलम्बन होनेसे ही कबायकी उत्पत्ति होती है, परन्तु जब उनसे सम्बन्ध ही नहीं है तो कहाँसे हो ?
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३२
श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स बहिःकररणालसो बालः ॥५०॥
अन्ववार्थी - [ यः ] जो जीव [निश्चयम् ] यथार्थ निश्चयके स्वरूपको [ श्रबुध्यमानः ] नहीं जानकर [ तमेव ] उसको ही [ निश्चयतः ] निश्चयश्रद्धान' से [ संयते ] अंगीकार करता है, [ सः ] वह [ बाल: ] मूर्ख [ बहिःकरणालसः ] बाह्य क्रियामें आलसी है और [ करणचरणं ] बाह्यक्रियारूप प्राचरणको [ नाशयति ] नष्ट करता है ।
[ ३- अहिंसाव्रत
अर्थात् - जो जीव निश्चयनयके स्वरूपको न जानकर व्यवहाररूप बाह्य परिग्रहके त्यागको निश्चयसे मोक्षमार्ग जान अंगीकार करता है, वह मूर्ख शुद्धोपयोगरूप आत्माकी दशाको नष्ट करता है । भावार्थ - जो कोई पुरुष यह कहता है कि मेरे अन्तरंग परिणाम स्वच्छ होना चाहिये, बाह्य परिग्रहादिक रखने या भ्रष्टरूप प्राचरण करनेसे मुझमें कोई दोष नहीं आ सकता, वह अहिंसा के आचरणको नष्ट करता है, क्योंकि बाह्य निमित्तसे अन्तरंग परिणाम युद्ध होते ही हैं । अतएव एक ही पक्ष ग्रहण नहीं करके निश्चय और व्यवहार दोनों ही अंगीकार करना चाहिए ।
विधायापि हि हिसां हिंसाफलभुग् भवत्येकः ।
कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसा फलभाजनं न स्यात् ।। ५१ ।।
श्रन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ एक ] एक जीव [ हिंसां ] हिंसाको [ प्रविधाय अपि ] नहीं करके भी [ हिंसा फलभुग् ] हिंसा - फलके भोगनेका पात्र [ भवति ] होता है, और [ अपर: ] दूसरा [हिंसां कृत्वा श्रपि ] हिंसा करके भी [ हिंसा फलभाजनं ] हिंसा के फनको भोगनेका पात्र [ न स्यात् ] नहीं होता है ।
भावार्थ - जिसके परिणाम हिंसारूप हुए, चाहे वे परिणाम हिंसाका कोई कार्य न कर सके हों तो भी वह जीव हिंसा के फलको भोगेगा, और जिस जीवके शरीरसे किसी कारण हिंसा तो हो गई परन्तु परिणामों में हिंसा नहीं आई, वह हिंसा करनेका भागी कदापि नहीं होगा ।
एकस्यात्पा' हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् ।
श्रन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।। ५२ ।।
अन्वयार्थी - [ एकस्य ] एक जीवको तो [ श्रल्पा ] थोड़ी [ हिंसा
हिंसा [काले ] उदयकालमें [ अनल्पम् ] बहुत [ फलम् ] फलको [ ददाति ] देती है, और [ श्रन्यस्य ] दूसरे जीवको [ महाहिंसा ] बड़ी भारी हिंसा भी [ परिपाके ] उदय समय में [ स्वल्पफला ] बिलकुल थोड़े फलको देनेवाली [ भवति ] होती है ।
१ - निश्चयश्रद्धासे अन्तरंग हिंसाको ही हिंसा मानता है ।
२- ४५ वें श्लोक में भी यही भाव प्रदर्शित किया गया है । ३- ' उपगीति' - नामक श्रार्याछन्द, १२+१४, १२ + १५ मात्रा ।
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श्लोक ५०-५४ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
३३
भावार्थ - जो पुरुष बाह्य हिंसा तो थोड़ी कर सका हो, परन्तु अपने परिणामोंको हिंसाभावसे अधिक लिप्त रक्खे हो, वह तीव्र कर्मबंधका भागी होगा और जो पुरुष परिणामों में हिंसाके अधिक भाव न रखकर बाह्य हिंसा अचानक बहुत कर गया हो, वह मन्द कर्मबंधका भागी होगा ।
एकस्य संव तीव्र दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य ।
व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ।। ५३ ।।
अन्वयार्थी - [ सहकारिणोः अपि हिंसा ] एकसाथ मिलकर को हुई भी हिंसा [ अ ] इस [ फलकाले ] उदयकालमें [ वैचित्र्यम् ] विचित्रताको [ व्रजति ] प्राप्त होती है, और [ एकस्य ] किसीको [ सा एव ] वही हिंसा [ तीव्र ] तीव्र [ फलं ] फल [दिशति] दरसाती है और [ अन्यस्य ] किसीको [ सा एव ] वही [ हिंसा ] हिंसा [ मन्दम् ] न्यून फल ।
भावार्थ - यदि दो पुरुष मिलकर कोई हिंसा करें, तो उनमें से जिसके परिणाम तीव्र कषायरूप हुए हों, उसे हिंसाका फल अधिक भोगना पड़ेगा, और जिसके परिणाम मन्द कषायरूप रहे हों, उसे अल्प फल भोगना पड़ेगा ।
प्रागेव फलति हिंसा क्रियमारणा फलति फलति च कृतापि । प्रारभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिसानुभावेन ।। ५४ ।।
अन्वयार्थी - [ हिंसा ] कोई हिंसा । प्राक् एव ] पहिले ही [ फलति ] फल जाती है, कोई [ क्रियमाणा ] करते करते [ फलति ] फलती है, कोई [ कृता श्रपि ] कर चुकनेपर भी [ फनति ] फलती है, [च] और कोई [ कर्तुम् आरभ्य ] हिंसा करनेका प्रारंभ करके [ श्रकृता श्रपि ] न करनेपर भी [ फलति ] फल देती है । इसी कारण से [ हिंसा ] हिंसा [ प्रनुभावेन ] कषायभावों के अनुसार ही [ फलति ] फल देती है ।
भावार्थ - किसीने हिंसा करनेका विचार किया, परन्तु अवसर न मिलनेसे उस हिंसा के करनेके पहिले ही उन कषाय परिणामोंके द्वारा (जिनसे हिंसाका संकल्प किया गया था) बँधे हुए कर्मो का फल उदयमें आ गया, और तब इच्छित हिंसा करनेको समर्थ हो सका, ऐसी अवस्थामें हिंसा करनेसे पहिले ही उस हिंसाका फल भोग लिया जाता है । इसी प्रकार किसीने हिंसा करनेका विचार किया और उस विचार द्वारा बाँधे हुए कर्मोंके फलको उदय में आनेकी प्रवधि तक वह उक्त हिंसा करनेको समर्थ हो सका तो ऐसी दशा में हिंसा करते समय ही उसका फल भोगना सिद्ध होता है । किसीने सामान्यतः हिंसा करके फिर उसका फल उदयकाल में पाया अर्थात् कर चुकनेपर फल पाया। किसीने हिंसा करनेका आरम्भ किया था, परन्तु किसी कारण हिंसा करने में शक्तिवान् नहीं हो सका, तथापि प्रारंभजनित बंधका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ेगा, अर्थात् न करनेपर भी हिंसाका फल भोगा जाता है । प्रयोजन केवल इतना ही है, कि कषायभावों के अनुसार फल मिलता है ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजंन शास्त्रमालायाम्
[३-अहिंसा तत्त्व एकः करोति हिसां भवन्ति फलभागिनो बहवः ।
बहवो विदधति हिंसा हिंसाफलभुग भवत्येकः ।।५।। अन्वयाथों-[ एकः ] एक पुरुष [ हिंसां ] हिंसाको [ करोति ] करता है, परन्तु [ फलभागिनः ] फल भोगनेके भागी [ बहवः ] बहुत [ भवन्ति ] होते हैं, इसी प्रकार [ हिंसां ] हिंसाको [ बहवः ] बहुत जन [ विदधति ] करते हैं, परन्तु [ हिंसाफलभुक् ] हिंसाके फलका भोक्ता [ एकः ] एक पुरुष होता है। :
भावार्थ-किसी जीवको मारते देखकर अन्य देखनेवाले जी अच्छा कहते और प्रसन्न होते हैं, वे सब ही हिंसाफलके भागी होते हैं । इसीसे कहते हैं कि एक करता है और फल अनेक भोगते हैं । तथा इसी प्रकार संग्राममें हिंसा तो अनेक पुरुष करते हैं, परन्तु उनपर आज्ञा करनेवाला राजा उस सब हिंसाके फलका भागी होता है, अर्थात् अनेक करते हैं और फल एक भोगता है। .
कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले ।
अन्यस्य सैव हिंसा दिशाहंसाफलं विपुलम् ।। ५६ ॥ अन्वयायौं -[ कस्यापि ] किसी पुरुषको तो [ हिंसा ] हिंसा [ फलकाले ] उदयकालमें [ एकमेव ] एक ही [ हिंसाफलम् ] हिंसाके फलको [ दिशति ] देती है, और [ अन्यस्य ] किसी पुरुषको [ सैव ] वही [ हिंसा ] हिंसा [ विपुलम् ] बहुतसे [ अहिंसाफलं ] अहिंसाके फलको [ विशति ] देती है।
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे।
इतरस्य पुनहिंसा दिशयहिंसाफलं नान्यत् ॥ ५७ ॥ अन्वयाथों-[तु अपरस्य ] और किसी को [ अहिंसा ] अहिंसा [ परिणामे ] उदयकालमें [ हिंसाफलम् ] हिंसाके फलको [ ददाति ] देती है, [ तु पुनः ] तथा [ इतरस्य ] अन्य किसीको [हिंसा] हिंसा [ अहिंसाफलं ] अहिंसाके फलको [दिशति ] देती है, [अन्यत् न ] अन्य फलको नहीं।
भावार्थ-कोई जीव किसी जीवके बुरा करनेका यत्न कर रहा हो, परन्तु उस ( जीव ) के पुण्यसे कदाचित् बुरेकी जगह भला हो जावे, तो भी बुराईका यत्न करनेवाला बुराईके फलका भागी होगा। इसी प्रकार कोई वैद्य नीरोग करनेके अर्थ किसी रोगीकी औषध कर रहा हो और बह रोगी कदाचित् कारणवश मर जावे, तो वैद्य अहिंसाके ही फलको भोगेगा।
इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ॥ ५८ ॥
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श्लोक ५५-६२ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः। .... अन्वयाथों-[ इति ] इस प्रकार [ सुदुस्तरे ] अत्यन्त कठिनाईसे पार किये जानेवाले और [ विविधभङ्गगहने ] नाना भंगोंसे गहन वनमें [ मार्गमूढदृष्टीनाम् ] मार्गमूढदृष्टि पुरुषोंको अर्थात् मार्ग भूले हुए पुरुषोंको [ प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ] अनेक प्रकारके नय समूहको जाननेवाले [ गुरवः ] श्रीगुरु ही [ शरणं ] शरण [ भवन्ति ] होते हैं । भावार्थ-हिसाके अनेक भेदोंको वे ही गुरु समझा सकते हैं, जो नयचक्रके अच्छे ज्ञाता हैं ।
अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् ।
खण्डयति धार्यमारणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ॥५६॥ अन्वयाथी -[जिनवरस्य] जिनेन्द्रभगवान्का [अत्यन्तनिशितधारं] अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला और [ दुरासदं ] दुस्साध्य [ नयचक्रम् ] नयचक्र [धार्यमारणं] धारण किया हुआ [दुर्विदग्धानाम्] मिथ्याज्ञानी पुरुषोंके [ मूर्धानं ] मस्तकको [झटिति] शीघ्र हो [खण्डयति] खंड खंड कर देता है।
भावार्थ-जैनमतके नयभेद समझना बहुत कठिन है, जो मूढपुरुष विना समझे नयचक्रमें प्रवेश करते हैं, वे लाभके बदले हानि उठाते हैं।
अवबुध्य हिस्य-हिसक-हिंसा-हिंसाफलानि तत्त्वेन ।
नित्यमवगूहमा निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ।। ६० ॥ अन्वयाथी -[ नित्यम् ] निरन्तर [ अवगूहमानैः ] संवरमें उद्यमवान् पुरुषोंको [ तत्त्वेन ] यथार्थतासे [हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि] हिंस्य', हिंसकर, हिंसा और हिंसाके फलोंको [अवबुध्य] जानकर [ निजशक्त्या ] अपनी शक्त्यनुसार [ हिंसा ] हिंसा [ त्यज्यतां ] छोड़ना चाहिये ।
मद्यं मांसं क्षौद्र पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन ।
हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। ६१॥ अन्वयाथों--[ हिंसाव्युपरतिकामैः ] हिंसा त्याग करनेकी कामनावाले पुरुषोंको [प्रथममेव] प्रथम ही [यत्नेन] यत्नपूर्वक [मद्य] शराब, [मांसं ] मांस, [क्षौद्रं] शहद और [ पंचोदुम्बरफलानि ] ऊमर, कठूमर, पीपल, बड़, पाकर ये पांचों उदुम्बर फल [ मोक्तव्यानि ] छोड़ देने चाहिए।
मचं मोहयति मनों मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् ।
विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ॥ ६२॥ अन्वयाथों-[ मद्य ] मदिरा अर्थात् शराब [ मनो मोहयति ] मनको मोहित करती है, और [ मोहितचित्तः ] मोहितचित्त पुरुष [तु तो [धर्मम्] धर्मको [विस्मरति] भूल जाता है तथा
१-हिस्य-जिनकी हिंसा की जावे, ऐसे अपने अथवा परजीवके द्रब्यप्राण और भावप्राण अथवा एकेन्द्रियादिक जीवसमास । २-हिंसक-हिंसा करनेवाला जीव । ३-हिंसा-हिंस्यके प्राणपीड़नकी अथवा प्राणघातकी क्रिया। ४-हिंसाफल-हिंसासे प्राप्त होनेवाले नरक निगोदादिक फल ।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्र मालायाम्
[ ३ - अहिंसा तत्त्व
[ विस्मृतधर्मा ] धर्मको भूला हुआ [ जीव: ] जीव [ प्रविशङ्कम् ] निडर होकर [हिंसाम् ] हिंसाको [ प्राचरति ] प्राचरण करता है । अर्थात् बेधड़क हिंसा करने लगता है ।
रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते महम् ।
मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ।। ६ ।।
श्रन्वयार्थी - [ च ] और [ मद्यम् ] मदिरा [ बहूनां ] बहुतसे [ रसजानां जीवानां ] रससे उत्पन्न हुए जीवोंकी [ योनिः ] योनि [इष्यते] मानी जाती है, इस कारण जो [ मद्य ] मदिराको [ भजतां ] सेवन करते हैं, उनके [ तेषां ] उन जीवोंकी [ हिंसा ] हिंसा [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ संजायते ] होती है ।
भावार्थ - मदिरा निरन्तर जीवमय रहती है, उसके पानसे उन जीवोंका भी पान होता है, अतएव मदिरा में हिंसा होना अनिवार्य है ।
श्रभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोक कामकोपाद्याः ।
हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः ।। ६४ ।।
श्रन्वयार्थी -- [ च ] और [ श्रभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्या: ] घमण्ड, डर, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोध आदि [ हिंसायाः ] हिंसाके [ पर्यायाः ] पर्याय या भेद हैं, और [सर्वेऽपि ] ये सब ही [ सरकसन्निहिताः ] मदिराके निकटवर्ती हैं ।
भावार्थ - एक मदिरा के पान करनेसे जितने भाव उत्पन्न होते हैं, वे सब हिंसा के ही भेद हैं, सहज ही मदिरापानसे अभिमानादिक सभी भाव होते हैं ।
न विना प्राणिविधातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ।। ६५ ।।
श्रन्वयार्थी - [ यस्मात् ] क्योंकि [प्राणिविघातात् विना] प्राणियोंके घात विना [ मांसस्य ] मांसकी [ उत्पत्तिः] उत्पत्ति [न] नहीं [ इष्यते] मानी जाती, [तस्मात्] इस कारण [ मांसं भजतः ] मांसभक्षी पुरुषके [श्रनिवारिता ] अनिवार्य [हिंसा] हिंसा [प्रसरति] फैलती है ।
भावार्थ- मांस जीवके शरीरका एक भाग है, जो शरीरको छोड़ अन्यत्र नहीं पाया जाता और शरीरका जब घात किया जाता है, तब ही मांसकी प्राप्ति होती है । अतएव सिद्ध है कि जीव घातके बिना मांस नहीं मिलता ।
raft किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ।। ६६ ।।
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अन्वयार्थी - [ यदपि ] यद्यपि [ किल ] यह सच है कि [ स्वयमेव ] आपसे ही [मृतस्य ] मरे हुए [महिषवृषभादेः ] भैंस बैलादिकोंका [मांसं] मांस [ भवति ] होता है, किन्तु [ तत्रापि ] वहाँ भी
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श्लोक ६३-७० ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः ।
अर्थात् उक्त मांसके भक्षण में भी [ तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ] उस मांसके प्राश्रित रहनेवाले उसी जातिके निगोद जीवोंके मथनसे [हिंसा ] हिंसा [भवति ] होती है ।
भावार्थ- जीवके शरीर में जिस जीवका वह मांस है, उसी जाति के अनन्त सूक्ष्म संमूर्छन जीव भी रहते हैं । इसलिये मांसके खानेमें उन सूक्ष्म जीवोंका घात होनेसे हिंसा होती ही है।
श्रामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥
अन्वयार्थौ – [ श्रामासु ] विना पकी, [ पक्वासु ] पकी हुई, [ अपि ] तथा [ विपच्यमानासु ] पकती हुई [ अपि ] भी [ मांसपेशीषु ] मांसकी डलियोंमें [तज्जातीनां] उसी जातिके [ निगोतानाम् ] सम्मूर्छन जीवोंका [ सातत्येन ] निरन्तर ही [ उत्पादः] उत्पाद होता रहता है ।
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भावार्थ - मांसकी डलियोंमें सर्व अवस्थानों में उस ही मांसमें नये नये प्रनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है ।
ग्रामां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।। ६८ ।।
श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो जीव [ श्रामां ] कच्ची [ वा ] अथवा rai ] ग्निमें पकी हुई [ पिशितपेशीम् ] मांसकी डलीको [ खादति ] भक्षण करता है [ वा ] अथवा [ स्पृशति ] छूता है [सः ] वह पुरुष [ सततनिचितं ] निरन्तर एकत्रित किये हुए [ बहुजीवकोटीनाम् ] अनेक जातिके जीवसमूह [ पिण्डं ] पिण्डको [ निहन्ति ] हनता है ।
मधुशकलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके ।
भजति मधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ।। ६६ ।।
अन्वयार्थी - [ लोके ] इस लोकमें [ मधुशकलमपि ] मधुका कण भी [ प्रायः ] बहुधा [ मधुकर हिंसात्मकं ] मक्खियों की हिंसारूप [ भवति ] होता है, अतएव [ यः ] जो [ मूढधीकः ] मूर्खबुद्धि पुरुष [ भजति ] शहदका भक्षण करता [ सः ] वह [ अत्यन्तम् हिंसकः ] अत्यन्त हिंसा करनेवाला होता है ।
स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा खलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ।। ७० ।।
म्याथ -- [ यः ] जो [ छलेन ] कपटसे [ वा ] अथवा [ गोलात् ] छत्त में से [ स्वयमेव विगलितम् ] स्वयमेव टपके हुए [ मधु ] मधु-या शहदको [ गृह्णीयात् ] ग्रहण करता है, [ तत्रापि ] वहाँ भी [ तदाश्रयप्राणिनाम् ] उसके प्राश्रयभूत जन्तुयोंके [ घातात् ] घात होनेसे [ हिंसा ] हिंसा [ भवति ] होतो है ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ ३-अहिंसा तत्त्व
मध मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः ।
वल्भ्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र' ।। ७१ ॥ अन्वयाथों-[ मधु ] शहद, [ मद्यं ] मदिरा, [ नवनीतं ] मक्खन [ च ] और [ पिशितं ] मांस [ महाविकृतयः ] महा विकारोंको धारण किये हुए [ ताः ] ये चारों पदार्थ [ वतिना ] व्रती पुरुष करके [ न वल्भ्यन्ते ] भक्षण करने योग्य नहीं हैं । क्योंकि [ सत्र ] उन वस्तुओंमें [ तद्वर्णाः ] उस ही जातिके [ जन्तवः ] जीव रहते हैं। .
भावार्थ-मधुमें मधुके, मदिरामें मदिराके, मक्खनमें मक्खनके और मांसमें मांसके रंगके जीव उत्पन्न होते रहते हैं, जो कि दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। इस कारण इन वस्तुओंको खाना उचित नहीं है। विकारयुक्त वस्तुओंमें चर्मस्पर्शित घी, तैल, जल तथा अचार, संधाणा, विष, माटी आदि और भी जानना।
योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि ।
त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥ ७२ ॥ अन्वयाथों-( उदुम्बरयुग्मं ) ऊमर, कठूमर अर्थात् अंजीर ( प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि ) पाकर, बड़ और पीपलके फल ( त्रसजीवानां ) त्रस जीवोंकी [ योनिः ) योनि या खानि है, [तस्मात्] इस कारण [ तद्भक्षणे ] उनके भक्षणमें [ तेषां ] उन त्रस जीवोंकी [ हिंसा ] हिंसा होती है ।
यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसारिण शुष्कारिण ।
भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्ट रागादिरूपा स्यात् ॥ ७३ ॥ अन्वयाथौ-(तु पुनः ) और फिर भी ( यानि ) जो पाँच उदुम्बर ( शुष्कारिण) सूखे हुए ( कालोच्छिन्नत्रसारिण) काल पाकर त्रस जीवोंसे रहित ( भवेयुः ) हो जावे, ( तान्यपि ) उनको भी ( भजतः ) भक्षण करनेवालेके (विशिष्टरागादिरूपा) विशेषरागादिरूप ( हिंसा ) हिंसा ( स्यात् ) होती है।
___ भावार्थ-जो पुरुष ऐसे निंद्य पदार्थोंको सुखाकर खावेगा, उसके राग भावोंकी विशेषता अवश्य ही होगी। क्योंकि ये पदार्थ रागकी अधिकताके विना गेहूं चना आदि अन्नोंके समान साहजिक प्रकृतिसे नहीं सुखाये जाते, अतएव इन फलोंको सुखाकर त्रस जीव नहीं रहे, ऐसा बहाना बनाकर कभी भक्षण नहीं करना चाहिये, क्योंकि त्रसजीवोंकी विराधनासे भी इसके भक्षणमें अधिक हिंसा होती है।
* १-किसी किसी प्रतिमें यह एक श्लोक और भी पाया जाता है परन्तु पं० टोडरमलजीने इसका अर्थ नहीं लिखा। वह यह है:
मधुशकलमपि प्रायो मोक्तव्यं शुद्धबुद्धिभिः सततम् ।। वस्तुनि मधुवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥
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श्लोक ७१-७७ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः ।
अष्टानिष्ट दुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्रारिण शुद्धधियः ।। ७४ ।।
अन्वयार्थौ – [अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि ] दुःखदायक दुस्तर और पापोंके स्थान [प्रमूनि ] इन [ अष्टौ ] आठ पदार्थोंको [ परिवर्ज्य ] परित्याग करके [ शुद्धधियः ] निर्मल बुद्धिवाले पुरुष [ जिनधर्मदेशनायाः ] जिनधर्मके उपदेश के [ पात्राणि ] पात्र [ भवन्ति ] होते हैं ।
३६
भावार्थ- मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बर फल ये आठों पदार्थ महा पाप के कारण हैं, इस कारण इनका त्याग करनेपर ही पुरुष किसी उपदेशके सुननेके योग्य पात्र होता है, अर्थात् इनके त्याग विना श्रावक नहीं हो सकता, इसी कारण इनके त्यागको प्रष्ट मूलगुण माना है ।
धर्म हिंसारूपं संशृण्वन्तोपि ये परित्यक्तुम् ।
स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥ ७५ ॥
अन्वयार्थी - [ ये ] जो जीव [ श्रहिंसारूपं ] अहिंसारूप [ धर्मम्] धर्मको [ संशृण्वन्तः प्रपि ] भले प्रकार श्रवण करके भी [ स्थावरहिंसाम् ] स्थावर जीवोंकी हिंसा [ परित्यक्तुम् ] छोड़नेको [ असहाः ] असमर्थ हैं [ ते अपि ] वे भी [ सहिसां ] त्रस जीवोंकी हिंसाको [ मुञ्चन्तु ] छोड़ें । कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा ।
fist निवृत्तिविचित्ररूपापवादिकी त्वेषा ।। ७६ ।।
अन्वयार्थी - [ श्रौत्सगिकी निवृत्तिः ] उत्सर्गरूप निवृत्ति अर्थात् सामान्य त्याग [ कृतकारितानुमननैः ] कृत कारित, अनुमोदनरूप [ वाक्कायमनोभिः ] मन वचन काय करके [ नवधा ] नव प्रकार [इष्यते ] मानी है, [तु] और [एषा ] यह [ अपवादिकी] अपवादरूप निवृत्ति [ विचित्ररूपा ] अनेकरूप है ।
भावार्थ - साधारणतः सर्वथा त्यागको उत्सर्गत्याग कहते हैं । यह नौ प्रकारका होता है । मनसे वचनसे या कायसे, प्राप न करना, दूसरेसे न कराना और करनेवालेको भला नहीं समझना । इन नौ भेदों में से किसी भेदका थोड़ा बहुत किसी प्रकारसे त्याग करनेको अपवाद त्याग कहते हैं। इसके बहुत भेद हैं ।
स्तो केन्द्रियघाताद्गृहिरणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावर मारण विरमरणमपि भवति कररणीयम् ॥ ७७ ॥
अन्वयार्थी – [ सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् ] इन्द्रियोंके विषयोंका न्यायपूर्वक सेवन करनेवाले [ गृहिणाम् ] श्रावकोंको [ स्तोकंकेन्द्रियघातात् ] अल्प एकेन्द्रिय घातके अतिरिक्त [ शेषस्थावरमाररणविरमरणमपि ] अवशेष स्थावर ( एकेन्द्री ) जीवोंके मारनेका त्याग भी [ कररणीयम् ] करने योग्य [ भवति ] होता है ।
भावार्थ - गृहस्थ से एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं हो सकता है, इसलिये यदि योग्य रीति से यत्नाचारपूर्वक कार्य करते हुए एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा होती है, तो होओ, परन्तु इसके अतिरिक्त
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श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम्। [३-अहिंसा तत्त्व व्यर्थ प्रौर असावधानीसे कार्य करनेमें जो एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा होती है, उसका तो अवश्य ही त्याग होना चाहिये।
अमृतत्वहेतुभूतं परमहिंसारसायनं लब्ध्वा ।
अवलोक्य बालिशानामसमञ्जसमाकुलन भवितव्यम् ॥७॥ अन्वयाथों-[अमृतत्वहेतुभूतं ] अमृत अर्थात् मोक्षके कारणभूत [ परमं ] उत्कृष्ट [अहिंसारसायनं ] अहिंसारूपी रसायनको [ लब्ध्वा ] प्राप्त करके [ बालिशानाम् ] अज्ञानी जीवोंके [असमञ्जसम् ] असङ्गत बर्तावको [ अवलोक्य ] देखकर [ प्राकुलैः ] व्याकुल [ न भवितब्यम् ] नहीं होना चाहिये।
भावार्थ-किसी जीवको हिंसा करते हुए सुख सातायुक्त देखकर और आपको अहिंसाधर्म पालते हुए भी दुःखी जानकर अथवा आपको अहिंसाधर्म साधते देख व अन्य मिथ्यादृष्टियोंको हिंसामें धर्म ठहराते हुए व पुष्ट करते हुए देखकर धर्मात्मा पुरुषोंको चलायमान न होना चाहिये ।
सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिंसने न दोषोऽस्ति ।
इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥७॥ अन्वयार्थी-[भगवद्धर्मः] परमेश्वरकथित-भगवानका कहा हुआ धर्म [सूक्ष्मः] बहुत बारीक है, अतएव [ धमार्थ ] 'धर्मके निमित्त [ हिंसने ] हिंसा करने में [ दोषः ] दोष [ नास्ति ] नहीं है। [ इति धर्ममुग्धहृदयैः ] ऐसे धर्ममें मूढ अर्थात् भ्रमरूप हुए हृदयसहित [ भूत्वा ] हो करके [ जानु ] कदाचित् [ शरीरिणः ] शरीरधारी जीव [ न हिंस्याः ] नहीं मारने चाहिये।
___ भावार्थ-जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म कदापि नहीं हो सकता, अतएव धर्मात्मा पुरुषोंको इस प्रकार के धोखे में नहीं आना चाहिये, कि धर्मके निमित्त यज्ञसम्बन्धी हिसा करने में पाप नहीं है । यदि यहांपर कोई यह प्रश्न करे कि जैनधर्ममें भी तो मंदिर बनवाना, प्रतिष्ठा करामा कहा गया है, जिसमें सूक्ष्म जीवोंकी विपुल हिंसा होती है, सो क्या इन मन्दिरादि कार्योंमें धर्म नहीं होता ? इसका उत्तर यह है
१ त्रसस्थावरस्वरूपकथनम्:
संसारी जीव दो प्रकार के हैं- एक त्रस, दूसरे स्थावर । केवल एक स्पर्शन इन्द्रियवाले एकेन्द्रिय जीवोंको स्थावर कहते हैं। और द्वीन्द्रियादिक पंचेन्द्री पर्यन्त जीवोंको त्रस कहते हैं । स्थावरजीवोंके १ पृथ्वीकाय. २ जलकाय ३ वनस्पतिकाय, ४ अग्निकाय, ५वायुकाय ये ५ भेद हैं और त्रसजीवोंके १द्वन्द्रिय, २ त्रीन्द्रिय ३ चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये ४ भेद हैं। जो स्पर्शन और रसना ( जीभ ) युक्त हों, जैसे लट, कौड़ी, गिडोला आदि उन्हें द्वीन्द्रिय, जो स्पर्शन, रसना, घ्राण (नाक) युक्त हों जैसे कीड़ी मकोड़ी, कानखजूरा आदि उन्हें ते-इन्द्रिय, जो स्पर्शन रसना, घ्राण, नेत्रयुक्त हों जैसे भ्रमर पतंगादि उन्हें चतुरिन्द्रिय और जो कानसंयुक्त हों जैसे मनुष्य, देव, पशु, पक्षी आदि उन्हें पंचेन्द्रिय कहते हैं। पुनः पंचेन्द्रियके सैनी और असनी ये दो भेद हैं। जिन पंचेन्द्रिय जीवोंके मन पाया जाता है, उन्हें सैनी और जिनके मन नहीं पाया जाता, उन्हें असैनी कहते हैं। सैनी पंचेन्द्रिय चार प्रकारके हैं, देव, मनुष्य, नारक, तिर्यश्च । इनमेंसे नरकोंके भूमिकी अपेक्षा सात भेद और तिर्यञ्चोंके जलचर, स्थलचर और नभश्चर ये तीन भेद हैं।
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श्लोक ७८-८२ ]
पुरुषार्थसिद्धयु पायः । कि यदि ये कार्य केवल मान बड़ाईके लिये यत्नाचार रहित लापरवाहीसे किये जावें, तो कदापि शुभ बंधके कारण नहीं हो सकते, परन्तु धर्म-बुद्धिसे यत्नपूर्वक किये जावें, तो अधिक शुभबंधके कर्ता होते हैं । यद्यपि उक्त कार्योंमें प्रारंभजनित हिंसा होती है, परन्तु वह ( हिंसा ) धर्मानुरागपूर्वक बँधे हुए शुभ बंधकी ( पुण्यको ) ओर देखनेसे कुछ गिनतोमें भी नहीं आ सकती है। इसके अतिरिक्त उक्त कार्यों में अपना द्रव्य व्यय करनेसे लोभकषायरूप अन्तरङ्ग हिंसाका त्याग होता है तथा एक बड़ा भारी लाभ और भी होता है, वह यह है कि मन्दिरादिक कार्योंमें लगाये हुए इस धनने विषय कषायादिक सेवनमें न लगाकर महत्पापोंसे दूर रखके सुकृतकी प्रवृत्ति की है; अतएव सिद्ध है कि मन्दिर प्रतिष्ठादिक कार्य उत्कृष्ट धर्म-कार्य हैं, परन्तु धर्मनिमित्तक यज्ञादिकमें पशु हवनादिकी क्रिया उद्यमीहिंसा होनेसे सर्वथा त्याज्य है । ऐसी सामान्यतया आज्ञा है।
धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुविवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिस्याः ।।८०॥ अन्वयाथों-[हि] 'निश्चय करके [ धर्मः ] धर्म [देवताभ्यः] देवतामोंसे [प्रभवति] उत्पन्न होता है। अतएव [ इह ] इस लोकमें [ताभ्यः] उनके लिए [सर्वम्] सब ही [प्रदेयम् [ दे देना योग्य है' [इति दुविवेककलितां] इस प्रकार अविवेकसे गृसित [धिषणां] बुद्धिको [प्राप्य] पाकरके [देहिनः] शरीरधारी जीव [न हिंस्याः] नहीं मारने चाहिये ।
भावार्थ-देवताओं के लिये भी किसी कारणसे प्राणिघात न करना चाहिये । कोई कोई मूर्ख कहा करते हैं कि धर्मके कर्ता जब देवता ही हैं, तो उन्हें मांसादिकी बलि जो चाहे सो देना अयोग्य नहीं है; सो यह कथन अविवेकसे भरा हुआ है, मान्य न करना चाहिए।
पूज्यनिमित्त' घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति ।
इति संप्रधार्य कार्य नातिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥ ८१ ॥ अन्वय थों-[पूज्यनिमित्त] 'पूजने योग्य पुरुषोंके लिये [छागादीनां] बकरा आदिक जीवोंके [ घाते ] घात करने में [ कः अपि ] कोई भी [ दोष ] दोष [ नास्ति ] नहीं है' [ इति ] ऐसा [ संप्रधार्य ] विचार करके [ अतिथये ] अतिथि व शिष्ट पुरुषोंके लिये [ सत्त्वसंज्ञपनम् ] जीवोंका घात [ न कार्य ] करना योग्य नहीं है।
भावार्थ पुरोडाशादिमेंशिष्ट पुरुषोंके लिए हिंसा करने में दोष नहीं है, ऐसा कहना बड़ी भारी भूल है।
बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्त्वघातोत्यम् ।
इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थी --[ बहुसत्त्वघातजनितात् ] "बहुत प्राणियोंके घातसे उत्पन्न हुए [अशनात् ] भोजनसे [ एकसत्त्वघातोत्थम् ] एक जीवके घातसे उत्पन्न हुआ भोजन [ वरम् ] अच्छा है" [ इति ]
१-"अतिथिके सत्कारार्थ बकरी वा बैल जो उत्तम जीव घरमें हों, उनके घात करनेमें कोई पाप नहीं है।" ऐसा स्मृतिकारोंका मत है।
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[ ३- अहिंसा व्रत
ऐसा [ प्राकलय्य ] विचार करके [ जातु ] कदाचित् भी [ महासत्त्वस्य ] जङ्गम बड़े जीवका [ हिंसनं ] घात [ न कार्यं ] नहीं करना चाहिये ।
४२
भावार्थ - "अन्नादिकके प्राहारमें अनेक जीव मरते हैं, अतएव उनके बदले एक बड़े भारी जीवको मारकर खा लेना अच्छा है" ऐसा कुतर्क करना भी मूर्खतापूर्ण है । क्योंकि हिंसा प्राणघात करनेसे होती है और एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रियके द्रव्यप्राण व भावप्राण अधिक होते हैं, ऐसा सिद्धान्तकारों का मत है, इसलिये अनेक छोटे छोटे जीवोंसे भी बड़े प्राणीके घात में अधिक हिंसा है । जब एकेन्द्रिय जीवके मारनेसे द्वीन्द्रिय जीवके मारने में ही असंख्यगुणा पाप है, तो पंचेन्द्रिय हिंसाका तो कहना ही क्या ?
रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन ।
इति मत्वा कर्त्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥ ८३ ॥
श्रन्वयार्थी – [ श्रस्य ] " इस [ एकस्य एव ] एक ही [ जीवहरणेन ] जीवघात करनेसे [बहूनाम्] बहुतसे जीवोंकी [रक्षा भवति ] रक्षा होती है" [इति मस्वा] ऐसा मानकर [हिंस्रसत्त्वानाम् ] हिंसक जीवों का भी [ हिंसनं ] हिंसन [ न कर्त्तव्यं ] न करना चाहिये ।
भावार्थ – “सर्प, बिच्छू, सिंह, गेंडा, तेंदुप्रा आदिक हिंसक जीवोंको जो अनेक जीवोंके घातक हैं, मार डालने से उनके वध्य अनेक जीव बच जायेंगे और उससे पापकी अपेक्षा पुण्यबंध अवश्य होगा ऐसा श्रद्धान नहीं करना चाहिये । क्योंकि, हिंसा जो करता है, वही उसके पापका भागी होता है, ऐसा शास्त्रसे सिद्ध है। फिर उसे मारकर हमको पापोपार्जन किसलिये करना चाहिये ? दूसरे यह भी सोचना चाहिये कि संसारमें जो अनन्त जीव एक दूसरेके घातक हैं, उनकी चिन्ता हम कहाँ तक कर सकते हैं ?
बहुतत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् ।
इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥ ८४ ॥
श्रन्वयार्थी - [ बहुसत्त्वघातिनः ] "बहुत जीवोंके घाती [ श्रमी ] ये जीव [ जीवन्तः ] जीते रहेंगे तो [ गुरु पापम् ] अधिक पाप [ उपार्जयन्ति ] उपार्जन करेंगे," [ इति ] इस प्रकारकी [ अनुकम्पां कृत्वा ] दया करके [ हिंस्राः शरीरिणः ] हिंसक जीवोंको [ न हिंसनीयाः ] नहीं मारना चाहिये ।
बहुदुःखासंज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् ॥
इति वासनाकृपारणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ।। ८५ ।।
अन्वयार्थी – [तु ] और [ बहुदुःखासंज्ञपिताः ] "अनेक दुःखोंसे पीड़ित जीव [ श्रचिरेण ] थोड़े ही समय में [ दुःखविच्छित्तिम् ] दुःखाभावको [ प्रयान्ति ] प्राप्त हो जायेंगे” [ इति वासनाकृपाण ] इस प्रकारकी वासनारूपी या विचाररूपी तलवारको [ आदाय ] लेकर [ दुःखिनोऽपि ] दुःखी जीव भी [ न हन्तव्याः ] नहीं मारने चाहिये ।
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श्लोक ८३-८८]
पुरुषार्थसिद्धय पायः।
भावार्थ-रोग अथवा दारिद्रयादि दुःखोंसे अतिशय दुःखी जीव यदि मार डाले जावेंगे, तो तत्कालीन दुःखोंसे वे छूट जावेंगे, ऐसा विश्वास कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि एक तो कोई जीव शरीरत्याग करनेसे दुःखसे नहीं छूट सकता, उसके अशुभ कर्मोंका फल उसे भोगना ही पड़ेगा; चाहे इस शरीरसे भोगे, चाहे दूसरे शरीरसे भोगे, और दूसरे के घात करनेसे प्राणपीड़न होता ही है, जो घातक को और उस वध्यजीवको हिंसाजनित अशुभबन्धका कारण होता है ।
कृच्छे रण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव ।
इति तर्कमण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ॥ ८६ ॥ अन्दयाथौं-[ सुखावाप्तिः ] "सुखको प्राप्ति [ कृच्छे,ण ] कष्टसे होती है, इसलिये [हताः] मारे हुए [ सुखिनः ] सुखी जीव [ सुखिनः एव ] सुखी ही [ भवन्ति ] होवेंगे" [ इति ] इस प्रकार [ तर्कमण्डलानः ] कुतर्कका खङ्ग [ सुखिनां घाताय ] सुखियोंके घातके लिये [ नादेयः ] अंगीकार नहीं करना चाहिये।
___ भावार्थ-उग्र तपश्चरणादि बड़े कष्टोंसे सुख प्राप्त होता है, इसलिये सुख दुर्लभ है। जैसे सरकंडेके (मूजके) वनमें आग लगा देनेसे वह फिर बहुत हरा हो जाता है, इसी प्रकार जीव सुखमें मार डालनेसे विना ही कष्टके सुखको प्राप्त हो जाता है, ऐसा श्रद्धान भी कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि सुखी सत्यधर्मके साधनसे होते हैं न कि इस प्रकार सुखमें मरने मारनेसे ।
उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् ।
स्वगुरोःशिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥७॥ अन्वयाथों-[ सुधर्मम् अभिलषिता ] सत्य धर्मके अभिलाषी [ शिष्येण ] शिष्यके द्वारा [ भूयसः अभ्यासात् ] अधिक अभ्याससे [ उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य ] ज्ञान और सुगति करनेमें कारणभूत समाधिका सार प्राप्त करनेवाले [ स्वगुरोः ] अपने गुरुका [ शिरः ] मस्तक [ न कतनीयं ] नहीं काटा जाना चाहिये।
भावार्थ-गुरुमहाराज अधिक कालतक अभ्यास करके अब समाधि में मग्न हो रहे हैं, इस समय यदि ये मार दिये जावें, तो उच्चपद प्राप्त कर लेंगे; ऐसा मिथ्या श्रद्धान करके शिष्यको अपने गुरुका शिरच्छेदन करना अनुचित है। क्योंकि उन्होंने जो कुछ साधना की है, उसका फल तो वे आगे पीछे आप ही पा लेवेंगे, शिरच्छेदन करनेवाला प्राणपीड़ाजनित हिंसाका भागी होकर पापबंध करनेके अतिरिक्त और क्या पा लेगा?
धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटितिघटचटकमोक्षं श्रद्धयं नैव खारपटिकानाम् ॥८॥
१-श्रीअमृतचन्दसूरि ग्रंथकर्ताके समय 'खारपटिक' नामक कोई मत भारत में प्रचलित था, जिसमें मोक्षका स्वरूप एक विलक्षण प्रकारसे माना जाता था। जिस प्रकार घड़ेमें कैद की हुई चिड़िया घड़ेके फूट जानेसे मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार शरीर छूट जानेसे जीव मुक्त हो जाता है ।
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४४ श्रीमद् राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम्
[३-अहिंसा व्रत अन्वयाथों-[ धनलवपिपासितानां ] थोड़ेसे धनके प्यासे और [विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् ] शिष्योंको विश्वास उत्पन्न करनेके लिये दिखलानेवाले [ खारपटिकानाम् ] खारपटिकोंके [ झटितिघटचटकमोक्षं ] शीघ्र ही घड़े के फटनेसे चिड़ियाके मोक्षके समान मोक्षको [ नैव श्रद्धयं ] श्रद्धानमें नहीं लाना चाहिये ।
भावार्थ-खारपटिकों के ( कत्थेके रंगका कपड़ा पहिननेवाले एक प्रकारके संन्यासी ) समान मोक्ष मान करके किसी अन्य जीवका तथा अपना प्राणघात नहीं कर डालना चाहिये। क्योंकि खारपटिक शरीरके छूट जानेको ही मोक्ष मानते हैं।
दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् ।
निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थी-[च ] और [ प्रशनाय ] भोजनके लिये [ पुरस्तात् ] सन्मुखसे [ प्रायान्तम् ] आये हुए [ अपरं ] अन्य [क्षामकुक्षिम् ] दुर्बल उदरवाले अर्थात् भूखे पुरुषको [ दृष्ट्वा ] देख करके [ निजमांसवानरभसात् ] अपने शरीरका मांस देनेकी उत्सुकतासे [ प्रात्मापि ] अपनेको भी [ न पालभनीयः ] नहीं घातना चाहिये ।
भावार्थ-यदि कोई मांसभक्षी जीव पाकर भोजनके लिये याचना करे, तो उसको दया करके स्वशरीरके मन्दमोहसे अपने शरीरका मांस नहीं दे देना चाहिये। क्योंकि एक तो मांसभक्षी जीव दानका पात्र ही नहीं है, दूसरे मांसका दान शास्त्रसे तथा धर्मसे बहिर्भूत और निंद्य है, तीसरे 'आत्मघाती महापापी' यह उक्ति जगत्प्रसिद्ध है।
को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरुन् ।
विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसा विशुद्धमतिः ॥ ६ ॥ अन्वयार्थी -[नवभङ्गविशारदान्] नयभङ्गोंके जानने में प्रवीण [गुरुन्] गुरुप्रोंकी [उपास्य] उपासना करके [विदितजिनमतरहस्यः].जिनमतके रहस्योंका जाननेवाला [को नाम '] ऐसा कौनसा [ विशुद्धमतिः ] निर्मल बुद्धिधारी है जो [ अहिंसां श्रयन् ] अहिंसाका आश्रय लेकर [ मोहं ] मूढ़ताको [ विशति ] प्राप्त होगा?
भावार्थ-जो पुरुष अहिंसा-धर्मको जान गया है, वह उपर्युक्त कुतकियोंके मिथ्यामतोंमें कदापि काल श्रद्धान नहीं कर सकता।
यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि ।
तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भवाः सन्ति चत्वारः ॥१०॥ अन्वयाथों-[यत्] जो [किमपि] कुछ भी [ प्रमादयोगात् ] प्रमाद कषायके योगसे [ इदं ] यह [असदभिधानं] स्वपरको हानिकारक अथवा अन्यथारूप वचन [विधीयते] विधिरूप किया जाता
१-नाम इति प्रशिद्धौ । २-अपिशब्दोः निश्चयात्मकश्च ।
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लोक ८६-६४ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
अर्थात् कहा जाता है [ तत् ] उसे [ अनृतं अपि ] निश्चयकर अनृत [विज्ञेयं ] जानना चाहिये और [ तद्भ ेदाः ] उसके भेद [ चत्वारः चार [ सन्ति ] हैं |
स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ।। ६२ ।।
अन्वयार्थी – [ यस्मिन् ] जिस वचनमें [ स्वक्षेत्रकालभावः ] अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव करके [ प ] विद्यमान भी [ वस्तु ] वस्तु [ निषिद्धयते ] निषेधित की जाती है [ तत् ] वह [ प्रथमम् ] प्रथम [ असत्यं ] असत्य [ स्यात् ] होता है, [ यथा ] जैसे [ अत्र ] "यहां [ देवदत्तः ] देवदत्त [ नास्ति ] नहीं है ।"
भावार्थ- देवदत्त नामक कोई पुरुष एक स्थानमें बैठा था, उसके विषय में किसी पुरुषने आकर पूछा कि "देवदत्त है ?" उत्तर दिया गया " नहीं है !" इस प्रकार अपने द्रव्य, क्षेत्र २, काल, भाव से प्रस्तिरूप ( मौजूद ) वस्तुको नास्तिरूप * ( गैरमौजूदा ) कहना असत्यका प्रथम भेद है ।
असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः ।
उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः ।। ६३ ।।
अन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ यत्र ] जिस वचनमें [ तैः परक्षेत्रकालभावः ] उन परद्रव्य क्षेत्र काल भावों करके [ असत्यपि ] अविद्यमान भी [ वस्तुरूपं ] वस्तुका स्वरूप [ उद्भाव्यते ] प्रकट किया जाता है [ तत् ] वह [ द्वितीयं ] दूसरा [ श्रनृतम् ] असत्य [ स्यात् ] होता है [ यथा ] जैसे [ श्रस्मिन् ] यहाँपर [ घट श्रस्ति ] घड़ा है ।
भावार्थ - जहाँपर घड़ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका अस्तित्व नहीं है, वहाँपर किसीके पूछने पर कह देना कि, “यहाँ घड़ा है ? यह असत्यका दूसरा भेद है।
वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाऽश्वः ।। ६४ ।।
अन्वयार्थी - [ च ] और [ यस्मिन् ] जिस वचनमें [ स्वरूपात् ] अपने चतुष्टयसे [सत् अपि ] विद्यमान भी [ वस्तु ] पदार्थ [ पररूपेण ] अन्य के स्वरूपसे [ श्रभिधीयते ] कहा जाता है, सो [ इदं] यह [ तृतीयं श्रनृतम् ] तीसरा असत्य [ विज्ञेयं ] जानना चाहिये [ यथा ] जैसे [ गौः ] बैल [ अश्वः ] घोड़ा है [ इति ] ऐसा कहना ।
भावार्थ - जहाँपर बैल स्वचतुष्टयसे मौजूद है, वहाँपर कह देना कि, "यही घोड़ा है" अर्थात् कुछका कुछ कह देना, यह असत्यका तीसरा भेद है ।
१ - जो पदार्थ जिस रूपमें स्थित है, सद्द्रव्यलक्षणमिति तत्त्वार्थे । २ द्रव्य जिस क्षेत्रको रोककर स्थित हो । ३ - द्रव्य जिस कालमें जिस रूपसे परिरण में । ४- द्रव्यका निज भाव । ५- इस उदाहरण में देवदत्त अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टयसहित होनेपर भी नास्तिरूप कहा गया है, अतएव असत्य भाषण हुआ ।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥ ६५ ॥
अन्वयार्थी" - [ तु ] और [ इदम् ] यह [ तुरीयं ] चौथा [ अनृतं ] असत्य सामान्येन ] सामान्यरूपसे [ गर्हितम् ] १ गर्हित, [ श्रवद्यसंयुतम् ] २ सावद्य अर्थात् पापसहित [ अपि ] और [ प्रियम् ] ३ अप्रिय इस तरह [ त्रेधा ] तीन प्रकार [मतम् ] माना गया है, [ यत् ] जो कि [ वचनरूपं ] वचनरूप [ भवति ] होता है ।
पशून्यहासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च ।
अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सवं गर्हितं गदितम् ।। ६६ ॥
[ सत्य व्रत
श्रन्वयार्थी - [ पैशून्य हासगर्भं ] दुष्टता अथवा चुगलीरूप हास्ययुक्त [ कर्कशम् ] कठोर [ श्रसमञ्जसं ] मिथ्या श्रद्धानपूर्ण [च] और [ प्रलपितं ] प्रलापरूप ( बकवाद ) तथा [ श्रन्यदपि ] और भी [ यत् ] जो [ उत्सूत्रं ] शास्त्रविरुद्ध वचन है, [ तत्सर्वं ] उस सबको [ गर्हितं ] गर्हित अर्थात् निंद्य वचन [ गदितम् ] कहा है ।
छेदन मेदनमा ररंग कर्ष रणवारिगज्यचौर्यवचनादि ।
तत्सावद्यं यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ।। ६७ ।।
श्रन्वयार्थी -- [ यत् ] जो [ छेदनभेदनमाररणकर्षरणवाणिज्यचौर्यवचनादि ] छेदने, भेदने, मारने, शोषणे, अथवा व्यापार, चोरी आादिके वचन हैं [ तत् ] सो सब [सावद्य' ] पापयुक्त वचन हैं, [ यस्मात् ] क्योंकि ये [ प्राणिवधाद्याः ] प्राणिहिंसा आदि पाप [ प्रवर्त्तन्ते ] प्रवृत्त करते हैं ।
भावार्थ - 'प्रवद्य' शब्दका अर्थ 'पाप' होता है और जो वचन पापसहित होता है, उसे सावद्य कहते हैं ।
श्ररतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् ।
यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥ ६८ ॥
अन्वयार्थी - [ यत् ] जो वचन [परस्य ] दूसरे जीवको [रतिकरं ] अप्रीतिका करनेवाला, [ भीतिकरं ] भयका करनेवाला, [ खेदकरं ] खेदका करनेवाला, [ वैरशोककलहकरम् ] वैर शोक कलहका करनेवाला तथा जो [ अपरमपि ] और भी [ तापकरं ] प्रतापोंका करनेवाला हो [ तत् ] वह [ सर्वं ] सब [ अप्रियं ] अप्रिय [ ज्ञेयं ] जानना ।
सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्त योग कहेतुकथनं यत् ।
श्रनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति ॥ ६६ ॥
अन्वयार्थी - [ यत् ] जिस कारणसे [ श्रस्मिन् ] इन [ सर्वस्मिन्नपि ] सब ही वचनों में
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श्लोक ६५ - १०२ }
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
[ प्रमत्तप्रोगेकहेतुकथनं ] प्रमादसहित योग हो एक हेतु कहा गया है, [तस्मात् ] इसलिये [ अनृतवचने ] असत्य वचनमें [ अपि ] भी [ हिंसा ] हिंसा [ नियतं ] निश्चितरूपसे [ समवतरति ] आती है ।
भावार्थ - जहाँ कषाय है, वहाँ हिंसा है और असत्य भाषण कषायसे ही होता है, अतएव असत्य वचन में हिंसा अवश्य होती है ।
at प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । यानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।। १०० ॥
४७
अन्वयार्थी - [ सकलवितथवचनानाम् ] समस्त ही प्रनृत वचनोंका [ प्रगत्तयोगे ] प्रमादसहित योग [हेत ] हेतु [ निर्दिष्टे सति ] निर्दिष्ट किये जानेसे [ हेयानुष्ठानादेः ] हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका [ अनुवदनं ] वहना [ श्रसत्यम् ] झूठ [ न भवति ] नहीं होता ।
भावार्थ- प्रनृत वचनके त्यागी महामुनि हेयोपादेयके उपदेश बारम्बार करते हैं, पुराण और कथाओं में नाना प्रकार अलङ्कारगर्भित नवरसपूर्ण विषय वर्णन करते हैं, उनके पापनिंदक वचन पापो जीवोंको तीरसे अप्रिय लगते हैं, सैकड़ों जीव दुखी होते हैं, परन्तु उन्हें असत्य भाषणका दोष नहीं लगता, क्योंकि उनके वचन कषाय प्रमादसे गर्भित नहीं हैं । इसीसे कहा है कि प्रमादयुक्त प्रयथार्थ भाषणका नाम ही अनृत है ।
भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमाः मोक्तुम् ।
येsपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ।। १०१ ।।
अन्वयार्थी - [ ये ] जो जीव [भोगोपभोगसाधनमात्रं ] भोगोपभोग के साधनमात्र [ सावद्यम् ] सावद्यवचन [ मोक्तुम् ] छोड़ने को [ श्रक्षमाः ] असमर्थ हैं, [ते श्रपि ] वे भी [शेषम् ] शेष [ समस्तमपि ] समस्तही [श्रनृतं ] असत्य भाषण को [ नित्यमेव ] निरन्तर ही [ मुञ्चन्तु ] छोड़ो ।
भावार्थ - त्याग दो प्रकारका है, एक सर्वथा त्याग, दूसरा एकोदेश त्याग । जिसमें से सर्वथा समस्त प्रकार के प्रनृतों का त्याग मुनि धर्म में है और उसे मुनि अवश्य ही करते हैं। परन्तु गृहस्थ अपने सांसारिक प्रयोजन सावद्य वचनों के विना नहीं चला सकता, इसलिये यदि गृहस्थ सावद्य वचनों का त्याग न कर सके, तो न सही, परन्तु अन्य सब प्रकार के प्रनृत वचनों के बोलने का त्याग तो अवश्य कर्तव्य है ।
श्रवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् ।
तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।। १०२ ।।
अन्वयार्थी - [ यत् ] जो [ प्रमत्तयोगात् ] प्रसाद कषाय के योग से [ अवतीर्णस्य ] विना दिये या वितरण किए हुए [परिग्रहस्य ] सुवर्ण वस्त्रादि परिग्रहका [ग्रह] ग्रहण करता है, [तत्] उसे [स्तेयं] चोरी [प्रत्येयं ] जानना चाहिये [च] और [सा एव] वही [ बधस्य ] वधके [हेतुत्वात् ] हेतुसे [हिंसा ] हिंसा है ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[५-अचौर्य व्रत भावार्थ-'चोरी करना भी हिंसा है, क्योंकि अन्य जीवके प्राण घात करनेके हेतुसे प्रमादका प्रादुर्भाव होते ही चोरी करनेवाले पुरुषके भावप्राणोंका घात होता है और चोरीके प्रकट होजानेपर उसके द्रव्यप्राणोंका भी घात होता है, इसी प्रकार इष्ट वस्तुकी वियोगजनित पीड़ासे जिसकी चोरी हुई है, उस पुरुषके भावप्राणोंका घात होता है और चौर्य वस्तुके हरण होनेसे द्रव्यप्राणोंका घात भी संभव है, क्योंकि चोरी की हुई वस्तु उसके द्रव्य प्राणोंकी पोषक थी। .
अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् ।
हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।। १०३ ।। अन्वयाथों-[ यः ] जो [ जनः ] पुरुष [ यस्य ] जिस जीवके [अर्थान् ] पदार्थोंको या धनको [ हरति ] हरण करता है, [ सः ] वह पुरुष [ तस्य ] उस जीवके [प्राणान् ] प्राणोंको [ हरति ] हरण करता है, क्योंकि जगतमें [ ये ] जो [ एते ] ये [अर्था नाम] धनादिक पदार्थ प्रसिद्ध हैं, [ एते ] वे सब ही [ पुंसां ] पुरुषोंके [ बहिश्चराः प्राणाः ] बाह्य प्राण [ सन्ति ] हैं।
भावार्थ-संसारी जीवोंके जिस प्रकार जीवनके कारणभूत इन्द्रिय श्वासोच्छ वासादि अन्तः प्राण हैं, उसी प्रकार धन, धान्य, सम्पदा, बैल, घोड़ा, दास, दासी, मन्दिर, पृथ्वी आदिक जितने पदार्थ पाये जाते हैं, वे सब उनके जीवनका कारणभूत बाह्य प्राण हैं। इसलिये उनमेंसे एक भी पदार्थका वियोग होनेसे जीवोंको प्राणघात सदृश दुःख होता है, इसीसे कहते हैं चोरी साक्षात् हिंसा है।
हिसाया. स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघटामेव सा यस्मात् ।
ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यः ।। १०४ ॥ अन्वयाथों-हिसायाः] हिंसा के [च] और [स्तेयस्य] चोरी के [ अव्याप्तिः ] अव्याप्ति दोष [न ] नहीं है [ सा सुघटामेव ] वह हिंसा सुघट ही है, [ यस्मात् ] क्योंकि [अन्यैः ] दूसरों के द्वारा [ स्वीकृतस्य ] स्वीकृत किये [ द्रव्यस्य ] द्रव्य के [ ग्रहणे ] ग्रहण करने में [प्रमत्तयोगः ] प्रमाद का योग है।
भावार्थ-न्यायके प्रकरणमें कह चुके हैं कि जो लक्षण पदार्थके एकदेशमें व्याप्त हो, दूसरे में नहीं हो, उसे अव्याप्ति कहते हैं । अव्याप्तिदोष “यत्र यत्र स्तेयं तत्र तत्र हिंसा" अर्थात् “जहाँ चोरी होती है, वहाँ हिंसा अवश्य होती है" इस लक्षण में नहीं पाता है। इसलिए यह लक्षण पदार्थ में सर्वदेशव्याप्त है, क्योंकि प्रमादयोगके विना चोरी होती ही नहीं और जिसमें प्रमादयोग है, वही हिंसा है।
नातिव्याप्तिश्च तयोः प्रमत्तयोगककारणविरोधात्। अपि कर्मानुग्रहणे नीरागारणामविद्यमानत्वात् ॥ १०५॥
१-निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् ।
न हरति याच दरो तवकृशचौर्यादुपारमरणम् ॥५७॥ रत्नकरंडश्रावकाचार अर्थात्-धरा हुआ, पड़ा हुआ, भूला हुआ, और दूसरे का बिना दिया हुआ पदार्थ ग्रहण नहीं करना और न दूसरे को देना, सो स्थूल चोरीत्याग-व्रत है।
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श्लोक १०३-१०७ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। अन्वयाथों-[च और [ नीरागारणाम् ] वीतराग पुरुषोंके [ प्रमत्तयोगककारणविरोधात् ] प्रमाद योगरूप एक कारणके विरोधसे [कर्मानुग्रहणे] द्रव्यकर्म नोकर्मकी कर्मवर्गणाओंके ग्रहण करने में [अपि ] निश्चय करके [स्तेयस्य ] चोरीके [ अविद्यमानत्वात् ] उपस्थित न होनेसे [ तयोः ] उन दोनोंमें अर्थात् हिंसा और चोरीमें [अतिव्याप्तिः] अतिव्याप्ति भी [न] नहीं है।
भावार्थ-"प्रदत्तादानं स्तेयं", इस सूत्रके अनुसार विना दिये हुए पदार्थके ग्रहण करनेको चोरी कहते हैं, इसलिये वीतरागसर्वज्ञको जिस समय कि वे द्रव्य नोकर्मवर्गणानोंका ग्रहण करते हैं, उस समय चोरीका दोष लगना चाहिये, क्योंकि प्राप्त नोकर्मवर्गणाओंका ग्रहण अदत्तादान है, और ऊपर कही अदत्तादान चोरी है, तो वीतरागदेव चोरीके भागी होनेसे हिंसक सिद्ध होंगे, परन्तु वीतरागदेव हिंसक नहीं है, क्योंकि मोहनीयकर्मका प्रभाव हो जानेसे कर्मवर्गणाओंके ग्रहण करने में उनके प्रमत्त योगरूप कारणका भी अभाव है, जिससे कि उक्त लक्षण में अतिव्याप्ति दोष नहीं लग सकता, क्योंकि चोरीका लक्षण यथार्थ में इस प्रकार कहा है-"प्रमत्तयोगात् अदत्तादानं स्तेयं" अर्थात् "प्रमादके योगसे परद्रव्यका ग्रहण करना चोरी है।"
असमर्था ये कतुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् ।
तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम् ॥ १०६ ॥ अन्वयाथों-[ये] जो लोग [निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम्] दूसरोंके कुप्रा बावड़ी आदि जलाशयोंके जल आदिको ग्रहण करनेका त्याग [कतु] करनेको [असमर्था] असमर्थ हैं. [तैः] उन्हें [अपि ] भी [ अपरं ] अन्य [ समस्तम् ] सम्पूर्ण [ प्रदत्त ] विना दी हुई वस्तुअोंका ग्रहण करना [नित्यम्] हमेशा [परित्याज्यम्) त्याग करना योग्य है।
भावार्थ-अदत्त वस्तुका त्याग दो प्रकार है, एक तो सर्वथा त्याग जो मुनिधर्म में पाया जाता है; दूसरा एकोदेश त्याग जो श्रावकधर्ममें वर्णन किया है। प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि जहां तक बन सके सर्वथा त्याग करे, परन्तु यदि उसका पालन न हो सके, तो एकोदेश त्याग तो अवश्य ही करे। एकोदेश त्यागी पुरुष दूसरेके कुओं, तालाबोंका जल तथा मृत्तिकादि ऐसे पदार्थ जिनका कोई मूल्य नहीं है, और जिन्हें अदत्त ग्रहण करनेसे संसारमें चोर नहीं कहा जाता-ग्रहण कर सकता है। परन्तु सर्वथा त्यागी पुरुष इन पदार्थोंको भी विना दिये ग्रहण नहीं कर सकता।
यदरागयोगान्मथुनमभिधीयते तदब्रह्म ।
अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ १०७ ॥ अन्वयाथों -[यत्] जो [वेदरागयोगात्] वेदके रागरूप योगसे [मैथुन] स्त्री-पुरुषोंका सहवास [अभिधीयते ] कहा जाता है, [ तत् ] सो [अब्रह्म] अब्रह्म है, और [तत्र] उस सहवास में [वधस्य] प्राणिवधका [सर्वत्र] सब जगह [सद्भावात्] सद्भाव होनेसे [हिंसा] हिंसा [अवतरति होती है।
१-चारित्रम्गेहकी वेद नामक प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुआ राग । । २-पादिशब्दात् मत्तिकादि पदार्थजातमपि द्वयं । ३-मिथुनस्थ कर्म मैथुनम् ।
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श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम्
. [३- ब्रह्मचर्य व्रत __ भावार्थ-पुरुष, स्त्री और नपुंसक ये तीन वेद हैं। इन तीन वेदोंकी रागभावरूप उत्तेजनासे मिथुन अर्थात् जोड़ेका सहवास होना अब्रह्म कहलाता है। अब्रह्ममें हिंसाका सब स्थानोंमें सद्भाव है; बल्कि यों कहना चाहिये, कि विना हिंसाके अब्रह्म होता ही नहीं है, अब्रह्ममें हिंसा कई प्रकारसे घटित होती है, यथा
१ स्त्रीके योनि, नाभि, कुच, काँख आदि स्थानोंमें सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीव सर्वदा उत्पन्न होते रहते हैं; और मैथुनमें उनके द्रव्यप्राणोंका घात अवश्य ही होता है।...
हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ।। १०८ ।। अन्वयार्थी-[ यद्वत् ] जिस प्रकार [ तिलनाल्यां ] तिलोंकी नलीमें [तप्तायसि विनिहिते] तप्त लोहके डालनेसे [ तिला: ] तिल [ हिंस्यन्ते ] नष्ट होते हैं-भुन जाते हैं, [ तद्वत् ] उसी प्रकार [मैथुने] मैथुनके समय [योनौ] योनिमें भी [बहवो जीवाः] बहुतसे जीव [हिंस्यन्ते] मरते हैं।
यदपि क्रियते किञ्चिन्मदनोद्रकावनङ्गरमरणादि ।
तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ॥ १०६ ।। अन्वयाथों-ौर [अपि] इसके अतिरिक्त [मदनोद्रेकात्] कामकी उत्कटतासे [यत् किञ्चित्] जो कुछ [अनङ्गरमणादि ] अनङ्गरमणादि' [क्रियते ] किया जाता है [ तत्रापि ] उसमें भी [रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्] रागादिकोंकी उत्पत्तिके वशसे [हिंसा] हिंसा [भवति] होती है ।
भावार्थ-रागादिक भावोंकी तीव्रताके विना अनंगक्रीड़ाका होना असंभव है, और जहां रागादिकोंकी अधिकता है वहां हिंसा है, अतएव अनङ्गक्रीड़ा भी हिंसा है।
ये निजकलत्रमात्रं परिहतु शक्नुवन्ति न हि मोहात् ।
निःशेषशेषयोषिनिषेवरणं तैरपि न कार्यम् ॥ ११० ॥ अन्वयाथों-[ये] जो जीव [ मोहात् ] मोहके कारण [ निजकलत्रमानं ] अपनी विवाहिता स्त्रीमात्रको [ परिहतु] छोड़नेको [ हि ] निश्चय करके [न शक्नुवन्ति] समर्थ नहीं हैं, [ तैः ] उन्हें [निःशेषशेषयोषिनिषेवरणं अपि ] अवशेष स्त्रियोंका सेवन तो अवश्य ही [ न ] नहीं [ कार्यम् ] करना चाहिये।
१- सहवास करनेके योग्य योनि आदि अंगोंसे भिन्न गुदा हस्त आदि अंगोंके द्वारा तथा गाय, भैस आदि पशुओंमें
जो काम क्रीड़ाकी जाती है, उसे अनंगक्रीड़ा कहते हैं । २-न च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् ।
सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोषनामापि ॥ ५९॥-रत्नकरण्डश्रावकाचारे ।। अर्थात्-जो मनुष्य पापके भयसे परस्त्रीके पास न जाता है और न दूसरेको जाने देता है, यह परस्त्रीत्यागी अथवा स्वदारसंतोष व्रती है । जाना अर्थात् सहवास करना।
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श्लोक १०८ - ११३ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
५१
भावार्थ - ब्रह्मका त्याग भी एकोदेश त्याग और सर्वदेश त्याग रूप दो प्रकारका है । सर्वदेश त्यागके अधिकारी मुनि हैं, सो जहांतक हो सके सर्वदेश त्याग करना चाहिये, और जो इतना सामर्थ्य न हो, तो एकोदेश त्याग रूप श्रावकधर्म तो अवश्य ही धारण करना चाहिये और उस श्रावकधर्म में अपनी विवाहिता स्त्रीके अतिरिक्त वेश्या, दासी, परस्त्री, कुमारिकायोंके सर्वथा त्यागका वर्णन किया है ।
या मूर्च्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्य ेषः । महोदयादुदीर्णो मूर्च्छा तु ममत्वपरिणामः ।।
१११ ॥
अन्वयार्थी - [ इयं ] यह [ या ] जो [ मूर्च्छानाम] मूर्च्छा है [एषः ] इसको ही [हि] निश्चय करके [ परिग्रहः ] परिग्रह [विज्ञातव्यः ] जानना चाहिये, [तु] और [ मोहोदयात्] मोहके उदयसे [ उदीर्णः ] उत्पन्न हुआ [ ममत्वपरिणामः ] ममत्वरूप परिणाम ही [ मूर्च्छा ] मूर्च्छा है ।
भावार्थ - मोहके उदयसे भावोंका ममत्वरूप परिणमन होना मूर्च्छा है, और मूर्च्छा ही परिग्रह है ।
मूर्छालक्षरण करणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य ।
ग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसङ्गभ्यः ।। ११२ ।।
अन्वयार्थी - [ परिग्रहत्वस्य ] परिग्रहत्वपनेका [ मूर्छालक्षणकररणात् ] मूर्च्छा लक्षण करनेसे [ व्याप्तिः ] व्याप्ति [ सुघटा ] भले प्रकार घटित होती है, क्योंकि, [ शेषसङ्ग ेभ्यः ] अन्य सम्पूर्ण परिग्रह [ विनापि ] विना भी [मूर्छावान् ] मूर्च्छा करनेवाला पुरुष [किल] निश्चयकर [ सग्रन्थः ] बाह्य परिग्रह संयुक्त है ।
भावार्थ - यदि कोई पुरुष सर्वथा नग्न अर्थात् सब प्रकारके परिग्रहोंसे रहित हो, परन्तु उसके अन्तरंग में मूर्छाका सद्भाव हो, तो वह परिग्रहवान् ही कहलावेगा, -- परिग्रह रहित नहीं; क्योंकि "जहां जहां मूर्च्छा होती है, वहां वहां परिग्रह अवश्य ही होता है" ऐसा नियम है, और परिग्रहके उक्त लक्षण में अव्याप्तिदोषका प्रादुर्भाव नहीं हो सकता ।
यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । भवति नितरां यतोऽसौ धत्त े मूर्छानिमित्तत्वम् ।। ११३ ।। श्रन्वयार्थी – [ यदि ] जो [एवं ] ऐसा [भवति ] होता अर्थात् मूर्छा ही परिग्रह होता, [तदा ] तो [ख] निश्चय करके [बहिरङ्गः परिग्रहः ] बाह्य परिग्रह [कः श्रपि ] कोई भी [न] न [भवति ] होता । सो ऐसा नहीं है, [ यतः ] क्योंकि [ असौ ] यह बाह्य परिग्रह [ मूर्छानिमित्तत्वम् ] मूर्च्छाके निमित्तपनेको [नितरां ] प्रतिशयतासे [धत्ते ] धारण करता है ।
भावार्थ - " परिग्रह के अन्तरङ्गपरिग्रह और बहिरङ्गपरिग्रह ऐसे दो भेद किये गये हैं, सो यदि परिग्रहका लक्षण 'मूर्च्छा वा इच्छा' करोगे, तो फिर बाह्य पदार्थोंमें परिग्रहत्व सिद्ध ही नहीं होगा,
१ - जहां लक्षण हो, वहां लक्ष्य भी हो इस प्रकार साहचर्यके नियमको व्याप्ति कहते हैं ।
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५२ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम्
[३-परिग्रहप्रमाण व्रत क्योंकि मूर्छालक्षण अन्तरंग परिणामोंसे ही सम्बन्ध रखता है" ऐसा यदि कोई तर्क करे, तो उसका समाधान यह है कि मूर्छाकी उत्पत्तिमें बाह्य धन धान्यादि पदार्थ ही कारणभूत हैं, अतएव बाह्य पदार्थों में कारणमें कार्यके उपचारसे, परिग्रहत्व मुख्यतासे सिद्ध होता ही है और 'मूर्छा परिग्रहः' यह लक्षण भी अबाधित
एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नं वम् ।
यस्मादकषायारणां कर्म ग्रहणे न मूर्छास्ति ॥ ११४ ।।
अन्वयार्थी-[एवं] इस प्रकार [परिग्रहस्य] बाह्य परिग्रहकी [अतिव्याप्तिः] अतिव्याप्ति [स्यात्] होती है, [इति चेत् ] ऐसा कदाचित् कहो तो [एवं] ऐसा [न] नहीं [भवेत् हो सकता, [यस्मात् ] क्योंकि [अकषायारणां] कषाय रहित अर्थात् वीतराग पुरुषोंके | कर्मग्रहणे] कार्मणवर्गणाके ग्रहणमें [मूर्छा] मूर्छा [नास्ति] नहीं है।
भावार्थ- "बाह्यपदार्थों में द्रव्यपरिग्रहत्व मान लेनेसे अतिव्याप्तिदोषका सद्भाव होता है, (क्योंकि, उक्त लक्षण लक्ष्यके अतिरिक्त अलक्ष्यमें भी पाया जाता है,) अर्थात् वीतरागी पुरुषोंके कार्मणवर्गणाके ग्रहण में द्रव्यपरिग्रहत्व सिद्ध होता है" ऐसा यदि कोई प्रश्न करे, तो कहना चाहिये कि "वीतराग पुरुषोंके कार्मणवर्गणाके ग्रहण में सर्वथा ही मूर्छा नहीं है और 'जहां जहां मूर्छा नहीं है, वहां वहां परिग्रह नहीं है, तथा जहां जहां परिग्रह है वहां वहां मूर्छा अवश्य है,' इस प्रकार इसकी व्याप्ति होती है, अतएव तुम्हारा दिया हुअा दोष नहीं लग सकता।
अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च ।
प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥ ११५ ॥ अन्वयाथों-[सः] वह परिग्रह [अति संक्षेपात्] अत्यन्त संक्षिप्ततासे [प्राभ्यन्तरः] अन्तरङ्ग [च] और [बाह्यः] बहिरङ्ग [ द्विविधः ] दो प्रकार [ भवेत् ] होता है, [च] और [प्रथमः] पहिला अन्तरङ्ग परिग्रह [चतुर्दशविधः] चौदह प्रकार [तु] तथा [द्वितीयः] दूसरा हिरङ्ग परिग्रह [द्विविधः] दो प्रकार [भवति] होता है।
मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषाः ।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ ११६ ॥ अन्वयाथों-[मिथ्यात्ववेदरागाः ] मिथ्यात्व', स्त्री, पुरुष, और नपुंसक वेदके राग [तथैव च] इसी प्रकार [ हास्यादयः ] हास्यादिक अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा' ये [षड् दोषाः] छह दोष [च और [चत्वारः] चार अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी, और संज्वलन ये चार [कषायाः] कषायभाव इस प्रकार [प्राभ्यन्तरा ग्रन्थाः] अन्तरङ्गके परिग्रह [चतुर्दश] चौदह हैं।
१-तत्त्वार्थका अश्रद्धान । २-पुरुषकी अभिलाषारूप परिणाम । ३-स्त्रीकी अभिलाषारूप परिणाम | ४-स्त्री पुरुष दोनोंकी अभिलाषारूप परिणाम । ५-ग्लानि ।
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श्लोक ११४-१२० ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदौ द्वौ।
नैषः' कदापि सङ्गः सर्वोऽप्यतिवर्तते हिंसाम् ॥ ११७ ।। अन्वयार्थी-[अथ] इसके अनन्तर [बाह्यस्य] बहिरङ्ग [परिग्रहस्य] परिग्रहके [निश्चित्तसचित्तौ] अचित्त और सचित्त ये [ द्वौ ] दो [ भेदौ ] भेद हैं, सो [एषः] ये [सर्वः] समस्त [अपि] ही [सङ्गः] परिग्रह [ कदापि ] किसी कालमें भी [हिंसाम्] हिंसाको [न] नहीं [प्रतिवर्तते] उल्लङ्घन करते अर्थात् कोई भी परिग्रह किसी समय हिंसारहित नहीं है ।
उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयन्यहिंसेति ।
द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ॥ ११८ ॥ अन्वयाथों-[ जिनप्रवचनज्ञाः ] जैनसिद्धान्तके ज्ञाता [प्राचार्याः ] प्राचार्य [ उभयपरिग्रहवर्जनम् ] दोनों प्रकारके परिग्रहके त्यागको [ अहिंसा ] अहिंसा [इति] ऐसे और [द्विविधपरिग्रहवहनं ] दोनों प्रकारके परिग्रहके धारणको [ हिंसा इति ] हिंसा ऐसा [ सूचयन्ति ] सूचन करते हैं।
हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरङ्गसङ्गषु ।
बहिरङ्गषु तु नियतं प्रयातु मूडूंव हिंसात्वम् ।। ११६ ।। अन्वयार्थी -[ हिंसापर्यायत्वात् ] हिंसाके पर्यायरूप होनेसे [अन्तरङ्गसङ्गषु] अन्तरङ्ग परिग्रहोंमें [हिंसा] हिंसा [सिद्धा] स्वयंसिद्ध है, [तु] और [बहिरङ्गषु] बहिरङ्ग परिग्रहोंमें [मूर्खा] ममत्व परिणाम [एव] ही [हिंसात्वम्] हिंसा भावको [नियतम्] निश्चयसे [प्रयातु] प्राप्त होते हैं ।
__भावार्थ-अन्तरङ्ग परिग्रहके जो चौदह भेद हैं, वे सब ही हिंसाके पर्याय हैं, क्योंकि विभावपरिणाम हैं, अतएव अन्तरङ्ग परिग्रह स्वयं हिसारूप हुआ और बहिरङ्ग परिग्रह ममत्व परिणामोंके बिना नहीं होता, इस कारण उसमें भी हिंसा है। यहां ध्यान रखना चाहिये कि ममत्व परिणामोंसे हो परिग्रह होता है, निर्ममत्वसे नहीं, केवली तीर्थकरके समवसरणको विभूति ममत्वरहित होनेसे परिग्रह नहीं है।
एवं न विशेषः स्यादुन्दुरुरिपुहरिणशावकादीनाम् ।
नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्खाविशेषेण ॥ १२० ॥ अन्वयाथी -[एवं] यदि ऐसा ही है अर्थात् बहिरङ्ग में ममत्व परिणामका नाम ही मूर्छा है, तो [ उन्दुरु रिपुहरिणशावकादीनाम् ] बिल्ली तथा हरिणके बच्चे आदिकोंमें [विशेष] कुछ विशेषता [ न स्यात् ] न होवे, सो [ एवं ] ऐसा [न] नहीं [ भवति ] होता, क्योंकि [मू विशेषेण ] ममत्वपरिणामोंकी विशेषतासे [ तेषां ] उन बिलाव तथा हरिणके बच्चे प्रमुख जीवोंके [ विशेषः ] विशेषता है, अर्थात् समानता नहीं है।
१-नैष कदाचित्सङ्ग इत्यपि पाठः । २-सुवर्ण, रजत, मन्दिर वस्त्रादिक चेतनाहीन पदार्थ । ३-पुत्र, कलत्र, दासी, दास, प्रमुख सचेतन पदार्थ । ४-चूहेका बैरी अर्थात् बिलाव ।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
हरित तृणाङ, कुरचारिणमन्दा मृगशावके भवति मूर्छा । उन्दुरुनिक रोन्माfथनि मार्जारे सेव जायते तीव्रा ।। १२१ ।।
[ ३ - परिग्रहणप्रमाण व्रत
अन्वयार्थी – [ हरिततृरणाङ्कुर चारिणि ] हरे घासके अंकुर चरनेवाले [ मृगशावके] हरिणके बच्चेमें [मूर्छा] मूर्छा [मन्दा] मन्द [भवति ] होतो है, और [सा एव] वही हिंसा [ उन्दुरुनिकरोन्माfatt] चूहों के समूहका उन्मथन करनेवाले [मार्जारे] बिलाव में [तीव्रा ] तीव्र [जायते ] होती है ।
भावार्थ - हरिणका बच्चा एक तो स्वभावसे ही हरित तृणोंके पानेके अधिक शोध में नहीं रहता, दूसरे जब उसे हरी घास मिल भी जाती है; तो थोड़ीसी आहट पाकर छोड़के भाग जाता है; परन्तु बिल्ली एक तो अपने खाद्य की खोज में स्वभावसे ही अधिक चेष्टित रहती है, दूसरे खाद्य मिल जानेपर बह उसमें इतनी अनुरक्त होती है कि सिरपर लठ्ठ पड़ जावें तो भी उसे नहीं छोड़ती, प्रतएव हरिण और बिल्ली ये दो मन्द मूर्छा और तीव्र मूर्छाके अच्छे सरल और प्रकट उदाहरण हैं । इन ममत्वपरिणामोंको विशेषता से ही परिग्रह विशेष होता है, ऐसा निश्चय जानना चाहिये ।
निर्बाधं संसिध्येत् कार्यविशेषो हि काररणविशेषात् । श्रधस्यखण्डयोरिह माधुर्य्यप्रीतिभेद इव ।। १२२ ॥
श्रन्वयार्थी - [ श्रौधस्यखण्डयोः ] दूध और खांड (शक्कर) में [ माधुर्यप्रीतिभेद इव] मधुरता के प्रीतिभेदके समान [ इह ] इस लोकमें [हि ] निश्चयकर [ कारणविशेषात् ] कारणकी विशेषतासे [कार्यविशेषः ] कार्यका विशेषरूप [निर्बाधं] बाधा रहित [ संसिध्येत् ] भले प्रकार सिद्ध होता है ।
माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्देव मन्दमाधुर्ये ।
सैवोत्कटमाधुर्ये खण्डे व्यपदिश्यते तीव्रा ।। १२३ ॥
अन्वयार्थी – [ किल ] निश्चयकर [ मन्दमाधुर्ये ] अल्प मिठासवाले [ दुग्धे ] दूधमें [ माधुर्यप्रीतिः ] मिठासकी रुचि [मन्दा] थोड़ी [ एव ] ही [ व्यपदिश्यते ] कही जाती है, और [सा एव ] वही मिठासकी रुचि [उत्कटमाधुर्ये ] अत्यन्त मिठासवाली [ खण्डे ] खांड अर्थात् शक्कर में [ तीव्रा ] अधिक की जाती है ।
भावार्थ - जो पुरुष मिष्ठरसका लोलुपी होता है, उसे दूधकी अपेक्षा शक्कर में अधिक प्रीति होती है; इसी प्रकार बाह्य परिग्रहोंका अल्प रुचिकर और विशेष रुचिकर कारण पाकर अन्तरंग परिणाम होते हैं । बहुत प्रारम्भ परिग्रह व्यापार होता है, तो ममत्व भी अधिक होता है, और जो परिग्रह अल्प होता है, ममत्व भी अल्प होता है । हां, किसी किसी पुरुषके परिग्रहके अल्प होते हुए भी अभिलाषारूप ममत्वभाव अधिक होते हैं । परन्तु इसमें आगामी काल में होनेवाले बाह्य परिग्रहका सङ्कल्प कारणभूत समझना चाहिये, परन्तु यदि कोई पुरुष परिग्रहको अंगीकार करता जावे और कहे कि मेरे अन्तरंग में ममत्वभाव नहीं है तो इसे सर्वथा झूठ समझना चाहिये, क्योंकि हिंसा तो परिणामोंके
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श्लोक १२१-१२६ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः । बिना ही शरीरादिक बाह्य निमित्त पाकर हो सकती है, परन्तु ममत्व अर्थात् मूळ परिग्रहको अंगीकार किये विना सर्वथा नहीं होती। तथा परिग्रहके संग्रहमें ममत्व परिणाम ही कारण होते हैं । अतएव ममत्व परिणामोंके परिहारके लिये बाह्यपरिग्रह त्यागना भी अत्यावश्यक है।
तत्त्वार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् ।
सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ।। १२४ ।। अन्वयाथों-[प्रथमम्] पहले [एव] ही [तत्त्वार्थाश्रद्धाने] तत्त्वके ' अर्थके अश्रद्धानमें जिसे [नियुक्तं ] संयुक्त किया है ऐसे [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वको [च ] तथा [ सम्यग्दर्शनचौराः ] सम्यग्दर्शनके चोर [ चत्वारः ] चार [ प्रथमकषायाः ] पहले कषाय अर्थात् अनन्तानुबंधो क्रोध, मान, माया, लोभ:
प्रविहाय च द्वितीयान् देश चरित्रस्य सन्मुखायातः ।
नियतं ते हि कषायाः देशचरित्रं निरुन्धन्ति ।। १२५ ।। अन्वयाथों-[च ] और [ द्वितीयान् ] दूसरे कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभको [प्रविहाय ] छोड़कर [ देशचरित्रस्य ] देशचारित्रके [ सन्मुखायातः ] सन्मुख पाता है, [ हि ] क्योंकि [ ते ] वे [ कषायाः ] कषाय [नियतं ] निरन्तर [देशचरित्रं] एकोदेशचारित्रको [निरुन्धन्ति] रोकते हैं।
भावार्थ-तत्त्वार्थका श्रद्धान न होना ही मिथ्यात्व है। क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार कषाय हैं । इन प्रत्येकके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी और संज्वलन ये चार चार भेद होकर सब सोलह भेद होते हैं। इनमेंसे कषायोंके प्रथम चार भेद अर्थात् अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया और अनन्तानुबंधी लोभ ये सम्यग्दर्शनके चोर हैं, क्योंकि इनका क्षय हुए बिना अथवा उपशम हुए विना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध मान, माया और लोभ एकोदेश चारित्रको (श्रावक व्रतको) रोकते हैं, इसलिये-इन्हें गया ३ वरणी कहते हैं।
निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम् ।
कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ॥ १२६ ॥ अन्वयाथों-प्रतएव [निजशक्त्या] अपनी शक्तिसे [मार्दवशौचादिभावनया] मार्दव, शौच, संयमादि दशलाक्षणिक धर्मोके द्वारा [ शेषाणां ] अवशेष [ सर्वेषाम् ] सम्पूर्ण [अन्तरङ्गसङ्गानाम्] अन्तरंग परिग्रहों का [परिहारः] त्याग [कर्तव्यः] करना चाहिये ।
१-जैसे हिंसाके प्रकरणमें कहा गया है कि किसी पुरुषसे यदि बाह्य हिंसा हो जावे और उसके परिणाम उस हिंसाके करनेसे न हो अर्थात् शुद्ध होवें, तो बह हिंसाका भागी नहीं होता। २-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, और सम्यक् प्रकृतिमिथ्यात्व । ३-मईषत्-थोड़ा, प्रत्याख्यान-त्यागको, आवरण-आच्छादित करनेवाला ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [३-परिग्रहप्रमाण व्रत भावार्थ-प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया और लोभ सकल संयमको रोकते हैं, इसलिये इनके नाशसे ही मुनिपद प्राप्त होता है, और संज्वलन संयमके साथ दैदीप्यमान रहता है; तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ तथा हास्यादिक छह व तीन वेदके नाशसे यथाख्यातचारित्रकी प्राप्ति होती है, इसलिये जहांतक बने, इन सबका त्याग करना चाहिये और जो न बने, तो श्रावकधर्म में मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणी चतुष्कका त्याग तो अवश्य ही करना चाहिये ।
बहिरङ्गादपि सङ्गात् यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ॥ १२७ ॥
अन्वयाथी -[वा] तथा [तम्] उस बाह्यपरिग्रहको चाहे वह [अचित्त] अचित्त हो [वा] अथवा [सचित्त] सचित्त हो, [अशेषं] सम्पूर्ण ही [परिवर्जयेत्] छोड़ देना चाहिये [यस्मात्] क्योंकि [बहिरङ्गात्] बहिरंग [सङ्गात्] परिग्रहसे [अपि] भी [अनुचितः] अयोग्य अथवा निंद्य [असंयमः] असंयम [प्रभवति] होता है।
भावार्थ-बाह्य परिग्रहका त्याग किये विना संयम चारित्र नहीं हो सकता इसलिये सचित्त प्रचित्त दोनों प्रकारके बाह्य परिग्रहोंका सर्वथा त्याग करना ही कल्याणकारी है।
योऽपि न शक्यस्त्यक्तु धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः ।
सोऽपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ॥ १२८ ॥ अन्वयार्थों-[अपि ] और [ यः ] जो [ धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः ] धन, धान्य, मनुष्य, गृह, सम्पदादिक [ त्वक्तु] छोड़नेको [ न शक्यः ] समर्थ न हो, [ सः ] वह परिग्रह [ अपि ] भी [ तनू ] न्यून [ करणीयः ] करना चाहिये, [ यतः ] क्योंकि [ निवृत्तिरूपं ] त्यागरूप ही [ तत्त्वम् ] वस्तुका स्वरूप है।
रात्री भुजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा ।
हिंसाविरतेस्तस्मात् त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥ १२६ ।। अन्वयाथौ - यस्मात् ] क्योंकि, [ रात्रौ ] रात्रिमें [ भुञ्जानानां ] भोजन करनेवालोंके [ हिंसा ] हिंसा [ अनिवारिता ] अनिवारित अर्थात् जिसका निवारण न हो सके [ भवति ] होती है, [ तस्मात् ] इसजिए। हिंसाविरतैः ] हिंसाके त्यागियोंको [रात्रिभुक्तिः अपि] रात्रिको भोजन करना भी [त्यक्तव्या] त्याग करना चाहिये। भावार्थ-जो पुरुष हिंसाके त्यागी हैं, उन्हें रात्रिभोजनका त्याग अवश्य करना चाहिये ।
रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसाम् ।
रात्रि दिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति ॥ १३० ॥ अन्वयाथौं -[अनिवृत्तिः ] अत्याग भाव [ रागायु दयपरत्वात् ] रागादिक भावोंके उदयकी उत्कटतासे [ हिंसाम् ] हिंसाको [ न प्रतिवर्तते ] उल्लंघन करके नहीं वर्तते हैं, तो [ रात्रि दिवम् ]
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श्लोक १२७-१३३ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
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रात्रि और दिनको [ प्रहरतः ] प्रहार करनेवालोंके [हि ] निश्चयकर [ हिंसा ] हिंसा [ कथं ] कैसे [ न संभवत ] संभव नहीं होती ?
भावार्थ - जिस जीव के तीव्र राग भाव होते हैं, वह त्याग नहीं कर सकता है, इसलिये जिसको भोजन से अधिक राग होगा, वही रात्रि दिन खावेगा और जहां राग है वहाँ हिंसा अवश्य है । यद्येवं तहि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः ।
भोक्तव्यं निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ।। १३१ ।।
श्रन्वायार्थी - [ यदि एवं ] यदि ऐसा है अर्थात् सदाकाल भोजन करने में हिंसा है, [ तहि ] तो [दिवा भोजनस्य ] दिनके भोजनका [परिहारः ] त्याग [ कर्त्तव्यः ] करना चाहिये, [तु ] और [ निशायां ] रात्रि में [ भोक्तव्यं ] भोजन करना चाहिये, क्योंकि [ इत्थं ] इस प्रकार से [ हिंसा ] हिंसा [ नित्यं ] सदाकाल [न] नहीं [भवति ] होगी। इसका उत्तर प्रागे कहते हैं ।
नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ ।
श्रनकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ।। १३२ ।।
श्रन्वयार्थी - [ एवं न ] ऐसा नहीं है । क्योंकि, [ श्रन्नकवलस्य ] अन्न के ग्रासके ( कौरके ) [ भुक्त: ] भाजनमे [ मांसकवलस्य ] मांस के ग्रामके [ भुक्तौ इव | भोजनमें जैसे राग अधिक होता है वैसे ही [वासरभुक्त: ] दिनके भोजनसे [रजनिभुक्तौ ] रात्रि भोजन में [हि ] निश्चयकर [ रागाधिक: ] अधिक राग [भवति] होता है ।
भावार्थ - उदरभरण की अपेक्षा सब प्रकार के भोजन समान हैं, परन्तु अन्नके भोजन में जिस प्रकार साधारण रागभाव है, वैसा मांस भोजन में नहीं है। मांस भोजनमें विशेष रागभाव है, af न्नका भोजन सब मनुष्योंको सहज ही मिलता है, और मांसका भोजन अतिशय कामादिककी अपेक्षा अथवा शरीरादिकके स्नेहकी अपेक्षा विशेष प्रयत्नसे किया जाता है । इसी प्रकार दिनका भोजन सब मनुष्यों के सहज ही होता है, इसलिये उसमें साधारण रागभाव होता है, परन्तु रात्रिके भोजन में शरीरादिक या कामादिक पोषणकी अपेक्षा विशेष रागभाव होता है; अतएव रात्रि भोजनही त्याज्य है ।
लोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम् ।
श्रपि बोधितः प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ।। १३३ ।।
श्रन्वयार्थी- - तथा [ प्रकलोकेन विना ] सूर्यके प्रकाशके विना रात्रिमें [ भुञ्जान: ] भोजन करनेवाला पुरुष [ बोधितः प्रदीपे ] जलाये हुए दीपक में [ श्रपि ] भी [ भोज्यजुषां ] भोजन में मिले हुए [सूक्ष्मजीवानाम् ] सूक्ष्म-जन्तुनोंकी [हिंसा ] हिंसाको [ कथं] किस प्रकार [ परिहरेत् ] दूर कर सकेमा ?
भावार्थ - दीपक प्रकाशमें सूक्ष्म जंतु दृष्टिगोचर नहीं हो सकते, तथा रात्रिमें दीपकके प्रकाशसे नाना प्रकार के ऐसे छोटे बड़े जीवों का संचार होता है, जो दिनमे कभी दिखाई भी नहीं देते. प्रतएव रात्रि - भोजन में प्रत्यक्ष हिंसा है, और जो रात्रि-भोजन करेगा, वह हिंसासे कभी नहीं बच सकेगा ।
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श्रमद राजलाल जैनशास्त्रमालायाम् [३- रात्रि-भोजन त्याग कि वा बहुपलपिनकिति सिद्ध यो मनोवचनकायः ॥
परिहरति रात्रिभुक्ति सततमहिंसा स पालयति ॥ १३४ ।।
अन्वयाथों-[वा] अथवा [ बहुप्रलपितैः ] बहुत प्रलापसे [ किं ] क्या ? [ यः ] जो पुरुष [मनोवचनकायैः] मन, वचन पोर कायसे [रात्रिभुक्ति] रात्रि-भोजनका [परिहरति] त्याग देता है, [सः] वह [सततम्] निरन्तर [अहिंता] अहिंसाको [ पालयति ] पालन करता है, [ इति सिद्ध] ऐसा सिद्ध हुअा।
भावार्थ-जिस महाभाग्यने रात्रि भोजनका सर्वथा त्याग कर दिया है, वही सच्चा अहिंसक है । वि-भोजन त्यागके विना अहिंसावत की सिद्धि नहीं होती, अतएव कोई कोई प्राचार्य इसे अहिसा अस वन में गर्भित करते हैं।
इत्यत्र त्रिनयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामाः ।
अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति वे मुक्तिमचिरेण ।। १३५ ।।
अन्वयार्थी-[ इनि ] इस प्रकार' [ अत्र } इस लोकमें [ ये ] जो [ स्वहितकामाः ] अपने हितके वांछक [मोक्षस्य] मोक्षके [त्रितयात्मनि] रत्नत्रयात्मक २ [मार्ग] मार्ग में [अनुपरत] सर्वदा उपरत हुए विना [प्रयतन्ते] प्रयत्न करते हैं, [ते] वे पुरुष [मुक्तिम्] मुक्तिको [अचिरेण] शीघ्र ही [प्रमन्ति] गमन करते हैं।
भावार्थ - इस जीवका हित मोक्ष है, क्योंकि अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार सुख नहीं है; अतएव मोक्षकी प्राप्ति का उपाय करना परम कर्तव्य है। जैसे किसी नगर में पहुंचने के लिये उस नगर के सन्मुख निरन्तर गमन करना पड़ता है, उसी प्रकार मोक्षरूप नगर में शीघ्र पहुँचने के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप मार्गोंके सन्मुख होकर चलना पड़ता है।
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि ।
व्रतपालताय तस्माच्छोलान्यपि पालनीयानि ।। १३६ ।।
अन्वयाथौ -[किल ] निश्चय करके [ परिधयः इव ] जिस तरह परिधियाँ [ नगराणि] नगरोंकी रक्षा करती हैं उसी तरह [ शीलानि ] तीनगुणवत, और चार शिश्नावत' ये सप्त शील [व्रतानि ] पाँचों अणु व्रतोंका [ पालयन्ति ] पालन करते अर्थात् रक्षा करते हैं, [ तस्मात् ] अतएव [इलयालगाय] व्रतोंका पालन करने के लिये [शीलानि] सातशील व्रतों को [अपि) भी [पालनीयानि पालन करना चाहिये।
प्रविधाय सुप्रसिद्ध मर्यादा सर्वतोप्यभिज्ञानः ।
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता ।। १३७ ॥
१-पूर्व कशन के अनुसार । २-तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन, विशेषपरिज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और हिसाबजनरूप. सम्यक् चारित्र । :--शिव्रत, देशवत और अनर्थदण्डनत । ४-सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथि संविभाग ।
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श्लोक १३४-३६]
पुरुषार्थसिद्धय पायः । अन्वयायौ -[ सुप्रसिद्ध : ] अच्छे प्रसिद्ध [ अभिज्ञानैः ] ग्राम, नदी, पर्वतादि नाना चिह्नोंसे [ सर्वतः ] सब ओर [ मर्यादां ] मर्यादाको [ प्रविधाय ] करके [ प्राच्यादिभ्यः ] पूर्वादि [दिग्भ्यः] दिशामों से [ अविचलिता विरतिः ] गमन न करने को प्रतिज्ञा [ कर्तव्या ] करना चाहिये।
भावार्थ- प्रथम गुणव्रतका नाम दिग्व्रत है। दिग्व्रत उसे कहते हैं जिसमें उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, अवः और ऊर्ध्व इन दश दिशाओं में गमन न करने की प्रतिज्ञा यावज्जीवके लिये धारण की जाती है। यह प्रतिज्ञा दिशाओं और विदिशामों में नदी, पर्वत, नगरादिक प्रसिद्ध स्थानों के सकेतसे की जाती है। जैसे उत्तर में गंगानदी, दक्षिण में नीलगिरि पर्वत, पूर्व में छत्तीसगढ़, पश्चिममें खंभात, ईशानमें पटना, प्राग्नेयमें कटक, नैऋत्य में कावेरी नदी, और वायव्य में प्राबू पर्वत तक जानेकी यदि किसी पुरुषकी प्रतिज्ञा होगी, तो वह इन नियमित स्थानोंसे आगे नहीं जासकेगा। और अधोदिशाकी प्रतिज्ञा कूप, खातिकादिकों की गहराईसे तथा ऊर्ध्व दिशाकी मन्दिर, पर्वतादिकोंकी ऊंचाई से की जाती है, जैसे यदि किसी पुरुषके अधो दिशामें ५० गज और ऊर्ध्वदिशामें २०० गज जानेकी प्रतिज्ञा हो, तो वह ५० गजसे नीचे कुपादिकोंमें तथा २०० गजसे ऊचे मंदिर पर्वतों पर नहीं जासकेगा।
__ इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य ।
सकलासंयमविरहावयाहिंसाव्रतं पूर्णम् ।।१३८। अन्वयार्थी - [ यः ] जो [ इति ] इस प्रकार [ नियमित दग्भागे ] मर्यादाकृत दिशात्रों के हिस्से में [ प्रवर्तते ] बर्ताव करता है, [ तस्य ] उस पुरुषके [ ततः ] उस क्षेत्रसे [ बहिः ] बाहिर [ सकलासंयमविरहात् ] समस्त ही असंयमके त्यागके कारण [ पूर्णम् ] परिपूर्ण [ अहिंसावतं ] अहिंसावत [ भवति ] होता है ।
भावार्थ- जहाँतककी मर्यादा की जाती है, उसके बहिर्गत समस्त त्रस स्थावरोंके घातका त्याग हो जाता है और इस कारण मर्यादासे बाहिर महाव्रत कहे गये हैं, अतएव दिग्व्रत धारण करना परमावश्यक है।
तत्रापि च परिमारणं ग्रामापरणभवनपाटकादीनाम् ।'
प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमरणं देशात् ॥१३॥ अन्वयार्थी- [च ] और [ तत्र प्रपि ] उस दिग्व्रत में भी [ ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् ] ग्राम, बाजार, मन्दिर, मुहल्लादिकोंका [ परिमाणं ] परिमाण [ प्रविधाय ] करके [देशात्] मर्यादा कृत क्षेत्र से बाहिर [ नियतकालं ] किसी नियत समयपर्यन्त [ विरमरणं ] त्याग [ करणीयं ] करना चाहिये।
भावार्थ-दूसरे गुणव्रतको देशवप्त कहते हैं । दिग्व्रत और देशव्रतमें इतना अन्तर है कि दिग्वत में जो त्याग होता है, वह सदाकालके लिये अर्थात् यावज्जीव होता है, और देशव्रतमें कालकी मर्यादा पूर्वक वर्ष, छह महीना, मास, पक्ष वा दो दिन, चार दिन, घड़ी दो घड़ी आदिका त्याग किया जाता है, तथा दिग्व्रतमें जितने क्षेत्रकी मर्यादा की जाती है, देशव्रतमें उसके मध्यवर्ती थोड़े से क्षेत्रकी प्रतिज्ञा की जाती है, जैसे अमुक प्रदेश से बाहिर कभी नहीं जावेंगे, यह दिग्व्रत और इतने दिन या इतने समय तक अमुक ग्राम तथा मुहल्लेसे बाहिर नहीं जावेंगे, यह देशवत है। १-ग्रामापणभवनवाटिकादीनामित्यपि पाठः ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[३-दिग्वत इति विरतो बहुदेशात् तदुहिताविशेषपरिहारात् ।
तत्कालं विमलमतिः श्रययहिंसा विशेषेण ॥१४०।।
अन्वयाथों-[ इति ] इस प्रकार [ बहुदेशात् विरतः ] बहुन क्षेत्रका त्यागी [ विमलमतिः ] निर्मल बुद्धिवाला श्रावक [ तत्कालं ] उस नियमित कालमें [ तदुहिसाविशेषपरिहारात् ] मर्यादाकृत क्षेत्रसे उत्पन्न हुई हिंसा विशेषके त्यागसे [ विशेषेण ] विशेषतास [ अहिंसां ] अहिंसाव्रतको [श्रयति] अपने प्राश्रय करता है।
___ भावार्थ-दिग्द्रतमें क्षेत्र बहुत होता है, उसमें से किञ्चित् कालकी मर्यादापूर्वक थोडासा क्षेत्र देशव्रतमे रक्खा जाता है, अतएव बाह्य क्षेत्रकी अपेक्षा पूर्वाक्त रीतिसे सकल संयमीपनेका सद्भाव होता है । जिस प्रकार दिग्वतमें हिंसाका सर्व त्याग है, उस प्रकार देशवतमें कदाचित् सर्व हिंसाका त्याग है, यही अन्तर है।
पापद्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचौर्याद्याः ।
न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ॥१४॥
अन्वयाथों-[पापद्धि-जय-पराजय-सङ्गर-परदारगमन-चौर्याद्याः ] शिकार, नय. पराजय, पद्ध, परस्त्री-गमन; चोरी प्रादिक' [ कदाचनापि ] किसी समयभे भी [ न चिन्त्याः ] नहीं चिन्तवन करना चाहिये, [ यस्मात् ] क्योंकि इन अपध्यानोंका [ केवलं ] केवल [ पापफलं ] पाप ही फल है ।
भावार्थ-यह तीसरे अनर्थदंडव्रतका वर्णन है । विना प्रयोजन पाप करने को अनर्थदंड कहते हैंमौर विना प्रयोजन पाप करने के त्यागको अनर्थदडविरति कहते हैं। इसके पांच भेद हैं। १ अपव्यान, २ पापोपदेश, ३ प्रमादचर्या, ४ हिंसादान और ५ दुःश्रुति, जिनमेंसे यह प्रथम प्राध्यान कहा गया है।
विद्यावारिणज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुसाम् ।
पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ।।१४२।। अन्वयाथों-[ विद्या वारिणज्य-मषी-कृषि-सेवा-शिल्पजीविनां ] विद्या, व्यापार, लेखनकला, ती. नौकरी और कारीगरीसे जीविका करने वाले [पुसाम् ] पुरुषों को [ पापोपदेशदानं ] पापका उपदेश मिले ऐसा [ वचनं ] वचन [ कदाचित् अपि ] किसी समय भी [नैव ] नहीं [ वक्तव्यम् ] बोलना चाहिये।
भावार्थ-किमी पुरुषको प्राजीविकाके करनेवाले नाना प्रकारके कर्म क ग्नेका उपदेश देना, इमको पापोपदेश नामक अनर्थदंड कहते हैं । क्योंकि इससे आपको लाभ कुछ नहीं होता, केवल पाप बंध होता है।
भूखननवृक्षमोट्टनशाडवलदलनाम्बुसेचनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दल फलकुसुमोच्चयानपि च ।।१४३।। १-प्रादि शब्दस बध, बन्धन, अगछेदन, सर्वस्व हरण दि दुष्ट चितवन भी जानना । २-ज्योतिष, वैद्यक, सामुद्रिकादि विद्या । ३-पशुपालनादि ।
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श्लोक १४०-१४६ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। अन्वयाथों-[भूखननवृक्षमोट्टनशाड्वलदलनाम्बुसेचनादोनि] पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाड़ना, अतिशय घासवाली जगह रोंदना, पानी सींचना प्रादि [च ] और [ दलफलकुसुमोच्चयान् ] पत्र फल फूल तोड़ना [ अपि ] भी [निष्कारणं] प्रयोजनके विना [ न कुर्यात् ] न करे।
भावार्थ-गृहस्थ त्रस जीवोंका रक्षक तो है ही, परन्तु जहाँतक बने, उसे स्थावर जीवों की रक्षा भी करनी चाहिये, अर्थात् जबतक कोई विशेष प्रयोजन न पा पड़े, स्थावर जीवोंकी भी निष्कारण विराधना न करे। यह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है।
प्रसिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरवालकामुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नाद् ॥ १४४ ।।
अन्वयार्थी-[असि-धेनु विष-हुताशन-लाङ्गल-करवाल-कामुकादीनाम्] छ री, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष, प्रादि [हिंसायाः] हिंसाके [उपकरणनां ] उपकरणोंका [ वितरणम् ] वितरण अर्थात् दूसरोंको देना [यत्नात्] यत्नसे अर्थात् सावधानीसे [परिहरेत्] छोड़ दे।।
भावार्थ-हिंसाके जितने साधन हैं उनके विना यदि अपना कार्य नहीं चलता हो तो रख ले, परन्तु वे साधन दूसरोंको कभी न दे, क्योंकि उक्त साधन देनेसे देनेवालेको उनसे उत्पन्न होनेवाली हिंसाके पापबधका भागी निष्कारण ही होना पड़ता है । यह हिंसाप्रदान नामक चौथा अनर्थदण्ड है ।
रागादिवद्ध नानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥ १४५ ॥
अन्वयाथों--[रागादिवर्द्धनानां] राग द्वेष मोहादिको बढ़ानेवाली तथा [प्रबोधबहुलानाम्] बहुत करके अज्ञानतासे भरी हुई [ दुष्टकथानाम् ] दुष्ट कथामोंका' [श्रवरणार्जनशिक्षणादीनि ] श्रवण-सुनना, अर्जन-संग्रह, शिक्षण सीखना आदिक [कदाचन] किसी भी समय [न कुर्वीत] न करे।
भावार्थ-दुष्टशृङ्गारादिरूप कथानोंमें न तो धर्म होता है, न किसी प्रकारकी आजीविका होती है, निष्प्रयोजन उपयोग लगाना पड़ता है, और उपयोग लगानेसे परिणाम तद्रप होकर व्यर्थ ही पापबंध के कारण हो जाते हैं, अतएव ऐसी कथानों का पठन-पाठन सर्वथा त्याज्य है । यह दुःश्रुति नामक पांचवां अनर्थदण्ड है।
सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सद्म मायायाः।
दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं तम् ॥ १४६ ।।
१-तथाचोक्त यशस्तिलकचम्पू-महाकाव्ये सप्तम माश्वासे उपासकाध्ययने षड्विंशकल्पे । ... ------ भूपयःपवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम् ।
यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्कुर्य्यादयं तु यत् ॥ २–अादि शब्दसे करोंत, भाला, बरछी प्रादि भी समझना चाहिये। ३ - श्वान, मार्जारादि हिंसकजीवोंका पालना भी इस अनर्थदण्डमें गर्भित है। ४-कोकादि कुशास्त्र कामोद्दीपन करनेवाले हैं तथा हिंसाके प्रवर्तक हैं, अतएव दुष्ट हैं।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ ३- प्रनर्थदंड व्रत
न्यायार्थी - [ सर्वानर्थप्रथमं ] सप्तव्यसनों का प्रथम अथवा सम्पूर्ण अनर्थीका मुखिया [ शौचस्य मथनं ] संतोषका नाश करनेवाला [ मायाया: ] मायाचारका [ सद्म ] घर और [ चौर्यासत्यास्पदं] चोरी तथा असत्यका स्थान [द्यूतम् ] जुम्रा [दूरात् ] दूरसे ही [ परिहरणीयं ] त्याग कर देना चाहिये ।
६२
भावार्थ - खेलनेवाले खेलने में चोरी करते हैं और झूठ बोलते हैं, क्योंकि जब हारते हैं, तब जीतने की तृष्णा या मोहमें चोरी करते तथा असत्य बोलते हैं, और जब जीतते हैं, तब द्रव्यकी प्रचुरतासे वेश्या-गमनादि दुष्कर्म करते हैं, तथा झूठ बोलते और छिपकर चोरी करते हैं । सारांशद्यूतक्रीड़ा पापबंध अधिक होता है, परंतु प्रयोजन की सिद्धि कुछ भी नहीं होती, अतएव यह भी अनर्थदण्ड है।
द
एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं य. । तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ।।
भन्वयाथ – [ यः ] जो पुरुष [ एवं विधम् ] इस प्रकार के [ अपरमपि २] अन्य भी [ अनर्थदण्डं ] नर्थदण्डों को [ ज्ञात्वा ] जान करके [मुञ्चति ] त्याग करता है, [तस्य ] उसके [ अनवद्य] निर्दोष [हिंसाव्रतं ] हिसाव्रत [ अनिशम् ] निरन्तर [विजयम् ] विजय [ लभते ] प्राप्त करता है । रागद्वे षत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य ।
१४७ ।।
तत्त्वोपलब्धिमूल बहुशः सामायिकं कार्यम् ॥ १४८ ॥
श्रन्वयार्थी - [ रागद्व ेषत्यागात् ] राग द्वेष के त्यागसे [ निखिलद्रव्येषु ] समस्त इष्ट प्रनिष्ट पदार्थों में [ साम्यम् ] साम्यभावको [ श्रवलम्ब्य ] अगोकार कर [ तत्वोपलब्धि मूलं ] ग्रात्मतत्त्व की प्राप्ति का मूल कारण [ सामायिकं ] सामायिक [ बहुशः कार्यम् | अनेक वार करना चाहिये । भावार्थ - एकरूप होकर स्वरूप में प्राप्त होनेको 'समय' कहते हैं, तथा 'समय' जिसका प्रयोजन होता है उसे 'सामायिक' कहते हैं । उक्त प्रयोजनकी अर्थात् समयकी सिद्धि साम्यभावसे होती है. अतएव साम्यभावका नाम ही सामायिक है और अपनेको सुख देनेवाली इष्ट वस्तुनों में राग तथा दुःख देनेवाली अनिष्ट वस्तुत्रों में द्व ेषके त्यागको साम्यभाव कहते हैं । इस साम्यभाव के होनेपर स्वरूपमें मग्न होना परम कर्तव्य है, कदाचित् यह न हो सके, तो शुभोपगोगरूप भक्ति व तत्त्वविचार में प्रवर्तना चाहिये, अथवा सामायिकसम्बन्धी नमस्कार, आवर्त, शिरोनति आदि क्रियाकाण्ड में तत्पर होना चाहिये ।
श्रृङ्गोंको भूस्पर्शकर मस्तक के नम्र करने को नमस्कार, हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा करने को प्रावर्त्ती और हाथ जोड़कर मस्तक नवानेको शिरोनति कहते हैं ।
पहिले पथ शोधनापूर्वक तीन प्रवर्त्त करके एक शिरोनति करे, पश्चात् 'रामो अरहंतारणम्' आदि पाठ करके पूर्ण ना में तीन प्रावर्त्त देकर एक शिरोनति करे, फिर कायोत्सर्ग करके तीन, श्रावर्त्तदेकर एक शिरोनति करे । तदुपरान्त 'थोस्सामि' इत्यादि पाठ करके पूर्णता में एक नमस्कार कर तीन प्रावर्त्त
१ - जुआ के पश्चात् सब व्यसन प्रकट हो जाते हैं, प्रतएव यह सर्व व्यसनों में प्रथम और मुख्य है । २ - कौतूहलादिकम् । ३- सम= एकरूप होकर श्रयः = स्वरूपमें गमन श्रर्थात् समय । और समय ही है प्रयोजन जिसका सो सामायिक है ।
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श्लोक १४७ - १५१
पुरुषार्थसिद्धय पायः
देकर एक शिरोनति करे । अनन्तर कालका प्रमाणकर साम्यभाव संयुक्त शुभोपयोग या शुद्धोपयोगरूप रहे । इसको सामायिक कहते हैं । सामायिकके साधनसे सहज स्वरूपानंदकी प्राप्ति होती है ।
रजनीदिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् ।
इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुरणाय कृतम् ।। १४६ ।।
अन्वयार्थी -- [ तत् ] वह सामायिक [ रजनीदिनयोः ] रात्रि और दिनके [ते] अन्त में ' [ अविचलितम् ? एकाग्रतापूर्वक [ श्रवश्यं ] अवश्य ही [ भावनीयं ] करना चाहिये। [ पुनः ] फिर दि [ इतरत्र समये ] अन्य समय में [ कृतं ] किया जावे तो, [ तत् कृतं ] वह सामायिक कार्य [दोषाय ] दोष के हेतु [न] नहीं, किन्तु [ गुणाय ] गुण के लिये ही होता है ।
सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् ।
भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ।। १५० ।।
६३
भावार्थ - यद्यपि सामायिक सदाकाल करना परमोत्कृष्ट है, परन्तु गृहस्थ के दिनमें दो बार की आज्ञा दी गई है। गृहस्थको इस प्राज्ञाका लोप कदापि न करना सन्ध्याओं के सिवाय अधिक अतिरिक्त समय में भी करे, तो निषेध नहीं है ।
सामायिक के लिये १ यग्य क्षेत्र २ २ योग्य कांल, ३ योग्य प्रासन, ४ योग्य विनय, ५ मनः द्धि, ६ वचनशुद्धि, ७ भावशुद्धि और = कायशुद्धि, इन बातों की अनुकूलता होना परमावश्यक है, क्योंकि इनके बिना मनुष्य के भाव निर्मल और निश्चल नहीं हो सकते ।
निर्वाह के लिये चाहिये । इन दो
श्रन्वयार्थी - [ एषाम् ] इन [ सामायिकश्रितानां ] सामायिक दशाको प्राप्त हुए श्रावकों के [ चरित्रमोहस्य ] चरित्र मोहके [ उदये श्रपि ] उदय होते भी [ समस्तसावद्ययोगपरिहारात् ] समस्त पाप के योगों के त्यागसे [ महाव्रतम् ] महाव्रत [ भवति ] होता है ।
सामायिक संस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षाद्ध योद्ध योरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ।। १५१ ।।
भावार्थ - जिसमें हिंसादिक पापोंका एकोदेश त्याग होता है, उसे अणुव्रत और जिसमें सर्वथा त्याग होता है, उसे महाव्रत कहते हैं । सामायिक करते समय सर्वथा पाप - क्रियाकी निवृत्ति है । श्रावकके प्रत्याख्यानावरणी चारित्रमोहनीयका उदय होता है, परन्तु वह सामायिकके समय में समस्तसावद्ययोगपरिहारात्' महाव्रती ही है। इस ही सामायिक के बलसे निर्ग्रन्थ लिङ्गधारी ग्यारह अङ्गका पाठी अभव्य जीव भी अहमेन्द्रपदको पाता है ।
१ - प्रातः काल और संध्याकालमें ।
२ - तथाचोक्तमः - योग्यकालासन स्थानमुद्रावर्त शिरोनतिः ।
विनयेन यथाजातः कृतिकर्म्मामलं भजेत् ॥
अर्थ - योग्यकाल योग्यप्रासन, योग्यस्थान बोग्यमुद्रा, योग्यप्रावर्त्त, योग्यशिरोनति ( मस्तक नमन ) जिसके हो वह पुरुष यथाजात अर्थात् जिस प्रकार माता के गर्भ से उत्पन्न होनेपर बच्चा परिग्रहरहित होता है, उसी प्रकार होकर एक वस्त्र मात्र परिग्रह के धारणपूर्वक निर्मल सामायिक-क्रिया के विधान को करे ।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालावाम्
[३-सामायिक व्रत . अन्वयाथी -[ प्रतिदिनम् ] प्रतिदिन [आरोपितं] अङ्गीकार किये हुए [ सामयिकसंस्कारं ] सामायिकरूप संस्कारको [स्थिरीकर्तुम्] स्थिर करनेकेलिये [ द्वयोः ] दोनों [ पक्षाद्धयोः ] पक्षोंके अर्द्ध भागमें अर्यात् अष्टमी चतुर्दशीके दिन [उपवासः] उपवास [अवश्यमपि] अवश्य ही [ कर्तव्यः ] करना चाहिये।
मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्याद्ध। ...
उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ ।। १५२ ।।
अन्वयाथों -[ मुक्तसमस्तारम्भः ] समस्त प्रारम्भसे मुक्त होकर [ देहादौ ] शरीरादिकमें [ममत्वम्] प्रात्मबुद्धिको [ अपहाय ] त्यागकर [ प्रोषधदिनपूर्ववासरस्याद्ध ] उपवासके पूर्वदिनके प्राधे भागमें [उपवासं] उपवासको [गृह्णीयात् ] अङ्गीकार करे।
भावार्थ- जिस दिन उपवास करना हो, उसके एक दिन पहिले दो पहरको समस्त प्रारंभ से ममत्व छोड़कर उपवास की प्रतिज्ञा धारण करना चाहिये।
श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसावद्ययोगमपनीय ।
सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिस्तिष्ठेत् ।। १५३ ।।
अन्वयाथों-पश्चात् [ विविक्तवसति ] निर्जन वसतिकाओंको' [ श्रित्वा ] प्राप्त होकर [समस्तसावद्ययोगम् ] सम्पूर्ण सावध योग [अपनीय ] त्यागकर और [ सर्वन्द्रियार्थविरतः ] सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे विरक्त होता हा [ कायमनोवचनगुप्तिभिः] मनगुप्ति, वचनगुप्ति', और कायगुप्तिसहित [ तिष्ठेत् ] स्थित होवे।
धर्मध्यानासक्तो वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्यविधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४।।
अन्वयायथौं -[ विहितसान्ध्यविधिम् ] कर ली गई है प्रातःकाल और संध्याकालीन सामायिकादि क्रिया जिस में ऐसे [ वासरम् ] दिनको [धर्मध्यानासक्तः ] धर्मध्यानमें लवलीन होता हुआ [अतिवाह्य ] व्यतीत करके [ स्वाध्यायजितनिद्रः ] पठन-पाठनसे निद्राको जीतता हुआ [ शुचिसंस्तरे ] पवित्र संथारेपर [ त्रियामां ] रात्रिको [ गमयेत् ] गमावे अर्थात् पूर्ण करे।
१-प्राचीन समयमें नगर ग्रामों के बाहिर धर्मात्मा लोग मुनियोंके ठहरने के लिये अथवा सामायिकादि करनेके लिये कुटी बनवा दिया करते थे उन्हें वसतिका कहते थे, कई नगरों में ये वसतिकायें अब भी पाई जाती हैं । २-अपध्यान, अपकथन और अपचेष्टा रूप पायसहित क्रिया। ३-जिस समय सावध क्रियाओंका त्याग करे, उस समय "मह समस्तसाद्ययोगविरतोस्मि" अर्थात् "मैं सम्पूर्ण पापके योगोंका त्यागी होता है" ऐसी प्रतिज्ञा करे। ४-मनमें विकल्प न करना और यदि करना, तो धर्मरूप करना। ५-मौनावलम्बी रहना अथवा धर्मरूप स्तोक ( थोड़ा ) बोलना । ६-शरीर निश्चल रखना, यदि कुछ चेष्टा करनी हो, तो, प्रमाणानुकल क्षेत्रमें धर्मरूप करनी।
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श्लोक १५२-१५७
पुरुषार्थसिद्धघु पायः भावार्थ-उपवास करनेवाला श्रावक उपवासके पहिलेका दिन. धर्म-ध्यानमें, संध्या सामा. यिकादि कार्योंमें और रात्रि पठन-पाठनमें पूर्ण करे।
प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् ।
निर्वर्तयेद्यथोक्त जिनपूजां प्रासुकैद्रव्यैः ॥१५॥ अन्वयाथों-[ततः ] तदुपरान्त [ प्रातः ] प्रभात ही [प्रोत्थाय ] उठकर [ तात्कालिक ] उस समयकी [ क्रियाकल्पम् ] क्रियाओंको [ कृत्वा ] करके [प्रासुर' ] प्रासुक अर्थात् जीव रहित [ द्रव्यैः ] द्रव्योंसे [ यथोक्त ] पार्ष ग्रथोंमें जिस प्रकार कहा है उस प्रकारसे [ जिनपूजां ] जिनेश्वर देवकी पूजाको [ निवर्तयेत् ] करे। -
भावार्थ-यद्यपि प्रोषधोपवासमें समस्त प्रकारके प्रारंभोंका त्याग कहा गया है, परन्तु पूजाके प्रारंभका त्याग नहीं कहा है । अर्थात् पूजनके लिये स्नानादिक प्रारंभरूप किया वजित नहीं है। क्योंकि पूजाका पुण्य इतना अधिक है कि उसके प्रमाणमें प्रारंभजनित पाप गिनतोमें भी नहीं है । प्रोषधोपवासमें भगवान्का पूजन प्रासुक द्रव्योंसे करना चाहिये, सचित्तसे नहीं ।
उक्तन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रि च ।
प्रतिवाहयेत्प्रयत्नादधं च तृतीदिवसस्य ॥१५६।। अन्वयाथों-[ ततः ] इसके पश्चात् [ उक्तन ] पूर्वोक्त [ विधिना ] विधिसे [ दिवसं ] उपवासके दिनको [च ] और [ द्वितीयरात्रि ] दूसरी रात्रिको [ नीत्वा ] प्राप्त होके [च ] फिर [ तृतीयदिवसस्य ] तीसरे दिनके [अर्घ ] आधेको भी [ प्रयत्नात् ] अतिशय यत्नाचारपूर्वक [अतिवाहयेत् ] व्यतीत करे।
भावार्थ-ऊपर कहे हुए १५३ और १५४ वें श्लोकमें जिस प्रकार उपवासके पहिले दिनके अर्घ भागको अर्थात् उपवासकी प्रतिज्ञा ग्रहण करनेके पश्चात्के समयको व्यतीत करनेकी विधि कही है, उसी प्रकार उपवासके दिनको, उपवासकी रात्रिको अर्थात् दूसरी रात्रिको, और तीसरे दिनके आधेको अर्थात् उपवासके दूसरे दिनके दोपहरपर्यन्त समयको धर्म-ध्यानमें, सामायिकादि क्रियानोंमें, और पठन-पाठनमें यत्नपूर्वक व्यतीत करना चाहिये।
इति यः षोडशयामान गमयति परिमुक्तसकलसावधः ॥
तस्य तवानी नियतं पूर्णमहिसावतं भवति ॥१५७॥ १-सुक्कं पक्कं तत्तप्रविललवणेरण मिस्सियं दव्वं । जं जंतेरण य छिणं तं सव्वं फासुयं मरिणयं ॥
अर्थ-जो द्रव्य सूखा हो, पका हो, तप्त हो. प्राम्ल रस तथा लवण मिश्रित हो, कोल्हू, चरखी, चक्की, छुरी मादिक यंत्रोंसे छिन्न-भिन्न किया हुमा तथा संशोधित हो, सो सब प्रासुक है। यह गाथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृतटीकामें तथा केशववणिकृत गोम्मटसारकी संस्कृतटीकामें भी सत्य वचनके भेदों में कही गई है।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[३-प्रोषघोपवास अन्वयाथों- [यः ] जो जीव [ इति ] इस प्रकार [ परिमुक्तसकलसावद्यः सन् ] सम्पूर्ण पाप क्रियाओंसे रहित होकर [ षोडशयामान् ] सोलह प्रहरीको [ गमयति ] गमाता है, अर्थात् व्यतीत करता है, [ तस्य ] उसके [ तदानी ] उस समय [ नियतं ] निश्चयपूर्वक [ पूर्णम् ] सम्पूर्ण [ अहिंसावतं ] अहिंसाव्रत [ भवति ] होता है। ...,
भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिसा भवेत्किलामोषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिसायाः ॥१५८।। वाग्गुप्ते स्त्यन्तं न समस्तादानविग्हतः स्तेयम् ।
नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नाङ्ग प्यमूर्छस्य ॥१५॥ (युग्मम् )
अन्वयाथौं-[किल ] निश्चय करके [ अमीषाम् ] इन देशव्रती श्रावकोंके [ भोगोपभोगहेतोः ] भोगोपभोगके हेतुसे [स्थावरहिंसा ] स्थावरजीवोंकी हिंसा [ भवेत् ] होती है, किन्तु [ भोगोपभोगविरहात् ] भोगोपभोगके विरहसे अर्थात् त्यागसे [हिंसायाः ] हिंसाका [लेशः अपि ] लेश भी [न ] नहीं [ भवति ] होता, और उपवासधारी पुरुषके [वाग्गुप्तेः ] वचनगुप्तिके होनेसे [अनृतं ] झूठ वचन [ नास्ति ] नहीं है, [समस्तादानविरहतः] सम्पूर्ण प्रदत्तादानके त्यागसे [स्तेयम् चोरी [ न ] नहीं है, [ मैथुनमुचः ] मेथुनके छोड़ देनेवालेके [अब्रह्म ] अब्रह्म [न] नहीं है, और [अङ्ग ] शरीर में [ अमूर्छस्य ] निर्ममत्वके होनेसे [ सङ्गः ] परिग्रह [अपि] भी [न नहीं है।
भावार्थ-यद्यपि देशव्रती गृहस्थ त्रसजीवोंकी हिंसाका त्यागी होता है, तथा भोगोपभोगके निमित्तसे स्थावरजीवोंकी रक्षा नहीं कर सकता, परन्तु उपवासके दिन वह भी हिंसाका पूर्णरूपसे त्यागी हो जाता है, क्योंकि उस दिन भोगोपभोगके त्यामसे स्थावर जीवों के वध होने का भी कोई कारण नहीं रहता, और उपवासमें पूर्ण अहिंसावतकी पालना होनेके अतिरिक्त शेष चारों व्रत ( अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहत्याग) भी स्वयमेव पलते हैं।
इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महावतित्वमुपचारात् ।
उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ॥१६०॥
अन्वयाथों-[ इत्थम् ] इस प्रकार [ अशेषितहिंसः ] सम्पूर्ण हिंसाप्रोंसे रहित [सः] वह प्रोषधोपवास करनेवाला पुरुष [ उपचारात् ] उपचारसे या व्यवहारनयसे [ महावतित्वं ] महाव्रती पनेको [प्रयाति ] प्राप्त होता है, [तु ] परन्तु [चरित्रमोहे ] चारित्रमोहके [ उदयति ] उदयरूप होनेके कारण संयमस्थानम्] संयमके स्थानको अर्थात् प्रमत्तादिगुणस्थानको [न] नहीं [लभते] पाता।
भावार्थ-उपवासधारी पुरुषके पांच प्रकारके पापोंमेंसे किसी प्रकारका भी पाप नहीं होता, प्रतएव महाव्रती न होनेपर भी उसे उतने समयतक उपचाररूप कथनसे महाव्रती कह सकते हैं, परन्तु प्रत्याख्यानावरणी तथा संज्वलन प्रकृति का उदय उससे दूर नहीं हुआ है, इसलिये वह छ8 प्रमत्तगुणस्थानको नहीं पा सकता, तथा सकलसंयमघातनी प्रकृतिके उदयसे उक्त देशव्रती श्रावकको महाव्रती नहीं कह सकते, हां महाव्रतीके समान कह सकते हैं।
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श्लोक १५८-१६२ ] . . पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
. भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा ।
अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यो ।।१६१।। अन्वयाथों-[विरताविरतस्य ] देशव्रती श्रावकके [ भोगोपभोगमूला ] भोग और उपभोगोंके २ निमित्तसे होनेवाली [हिंसा ] हिंसा होती है, [अन्यतः न ] अन्य प्रकारसे नहीं होती, अतएव [ तौ ] वे दोनों अर्थात् भोग और उपभोग [ अपि ] भी [ वस्तुतत्त्वं ] वस्तुस्वरूपको [अपि] और [ स्वशक्तिम् ] अपनी शक्तिको [ अधिगम्य ] जानकर अर्थात् अपनी शक्तिके अनुसार [त्याज्यौ] छोड़ने योग्य हैं।
भावार्थ-गृहस्थके भोगोपभोग पदार्थोके निमित्तसे ही मोक्षकी अन्तरायभूत स्थावरोंकी हिंसाकृत बंध होता है, इसलिये उसको टालने के लिये वस्तुके स्वरूपको जानना चाहिये कि कौनसी वस्तु अधिक पाप करने वाली है पौर कौनसी कम। यह जानने के पश्चात् अपने सामर्थ्य का विचार व अनुभव करके तदनुकूल भोगोपभोगका त्याग करना चाहिये ।
एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् ।
करणीयमशेषाणां परिहररणमनन्तकायानाम् ।।१६२॥ अन्वयार्थी - [ ततः ] क्योकि [ एकम् ] एक साधारण देहको कन्दमूलादिकको [अपि ] भी [प्रजिघांसुः ] घातनेकी इच्छा करनेवाला पुरुष [ अनन्तानि ] अनन्त जीव [ निहन्ति ] मारता है, [प्रतः ] अतएव [ अशेषाणां ] : सम्पूर्ण ही [अनन्तकायानाम् ] अनन्तकायोंका [ परिहरणम् ] परित्याग [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ करणीयम् ] करना चाहिये।
भावार्थ-साधारण वनस्पति तथा अन्योपदार्थ जो अनन्तकाय होते हैं, अभक्ष्य हैं । यहाँपर यह दिखलाना उपयोगी होगा, कि साधारण वनस्पतिमें जीवों की संख्या कितनी रहती है। ग्रन्थान्तरोंमें इसका परिमाण नीचे लिखे अनुसार कहा है:
__"अदरख आदि साधारण वनस्पतियोंमें लोकके जितने प्रदेश हैं उनसे असंख्यातगुणें जीव पाये जाते हैं, जिन्हें स्कन्ध कहते हैं, जैसे-अपना शरीर। इन स्कन्धोंमें असंख्यात लोक परिमित
१- जो वस्तु एक बार भोगी जावे उसे भोग कहते हैं, जैसे भोजन, पान, गन्ध, पुष्पादि । २-जो वस्तु बारम्बार भोगी जाये उसे उपभोग कहते हैं, जैसे, स्त्री, शय्या, आसन, वस्त्र, अलङ्कार, वाहनादि । ३-जीव दो प्रकारके होते हैं, एक त्रस दूसरे स्थावर, द्वीन्द्रियादि पचेंद्रियपर्यन्त त्रस और पृथिव्यादि स्थावर कहलाते हैं। स्थावर पाँच प्रकार के होते हैं, पृथ्वी, आप, तेज, वायु और वनस्पति । इनमें से वनस्पति के दोभेद हैं, साधारण और प्रत्येक, साधारण उसे कहते हैं जिसके एक शरीरमें अनन्त जीव पाये जाते हैं और प्रत्येक उसे कहते हैं, जिसके एक शरीर में एक ही जीव पाया जावे। फिर इस प्रत्येकवनस्पति के भी दो भेद होते हैं, एक सप्रतिष्ठित दूसरा अप्रतिष्ठित । प्रत्येक वनस्पति जब निगोदसहित होती है, तब सप्रतिष्ठित और जब निगोद रहित रहती है, तब अप्रतिष्ठित कहलाती है। दूब, बेल, छोटे बड़े वृक्ष और कन्दादि ऐसी वनस्पतियाँ जिनमें लम्बी रेखायें, गांठे (प्रन्थि ), संधिये दृष्टिगोचर न हों, अथवा जो काटनेके पश्चात् पुनः उत्पन्न हो सके, जिनके तन्तु न होवें, अथवा जिनमें तोड़ने पर तन्तु न लगे रहें, सप्रतिष्ठित कहलाती हैं । और जिनमें रेखा, गाँठे, संधियाँ प्रत्यक्ष दिखाई देवें, जो काटने के पश्चात् फिर न उग सकें, जिनके तन्तु होवें, तोड़ने पर तन्तु लगे रहें, उन्हें अप्रतिष्ठित कहते हैं। उपयुक्त सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को साधारध भी कहते हैं । इस साधारणवनस्पति में अनन्त जीव पाये जाते हैं, इस कारण इसे अनन्तकाय कहते हैं।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमालायाम्
[ - भोगोपभोग- परिमाण
प्रण्डर पाये जाते हैं जैसे- शरीर में हाथ पाँव आदि। एक अण्डर में असंख्यात लोक परिमित पुलवी होते हैं : जैसे— हाथ पावों में अँगुली आदिक । एक पुलवी में असंख्यान लोक परिमित प्रवास होते हैं, जैसे अँगुलियों में तीन भाग । एक आवास में श्रसंख्यात लोक परिमित निगोद शरीर होते हैं, जैसे - अंगुलियों के भागों में रेखायें और फिर एक निगोद के शरीर में सिद्धसमूहसे अनन्तगुणे जीव पाये जाते हैं, जैसे- रेखाओं में अनेक प्रदेश ।”
इस प्रकार एक साधारण हरित वनस्पतिके टुकड़े में संख्यातीत जीवोंका अस्तित्व रहता है जिनका कि जिह्वाके थोड़ेसे स्वादके लिये विषयी जीव घात कर डालते हैं । विचारवान् पुरुषोंको ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।
नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् ।
द्वापि पिण्डशुद्ध विरुद्धमभिधीयते किञ्चित् ।।१६३।।
श्रन्वयार्थी - [ च ] और [ प्रभूतजीवानाम् ] बहुत जीवोंका [योनिस्थानं ] उत्पत्तिस्थानरूप [ नवनीतं ] नवनीत अर्थात् मक्खन [ त्याज्यं ] त्याग करने योग्य है, [ वा ] अथवा [ पिण्डशुद्धौ ] प्राहारकी शुद्धता में [ यत्किञ्चित् ] जो थोड़ा भी [ विरुद्धम् ] विरुद्ध [ श्रभिधीयते ] कहा जाता है, (तत्) वह [ श्रपि ] भी त्याग करने योग्य है ।
भावार्थ - देही में से निकाले हुए मक्खनका यदि तत्काल ही श्रग्निपर तपाकर घृत नहीं बना लिया जावे, तो वह मक्खन दो ही मुहूर्त के पश्चात् अनन्त जीवरूप हो जाता है, अर्थात् उसमें अपरिमित जीव पैदा हो जाते हैं । इसलिये व्रती गृहस्थको इसका त्याग अवश्य ही करना चाहिये । प्राचार - शास्त्रों में जिन पदार्थों को अभक्ष्य बतलाया है, उनका भी त्याग करना चाहिये। जैसे- चर्मस्पर्शित घृत, तेल, जल हिंग्वादि तथा दुग्ध, दधि' मिष्टान्न, अनछाना पानी, विना जाना फल, घुना बीघा मन्न, बाजारका आटा, अचार ( अथाना - संघाना ) मुरब्बा प्रादि ।
श्रविरुद्धा प्रपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः । प्रत्याज्येष्वपि सीमा कार्येकदिवानिशोपभोग्यतया ।। १६४ ।।
श्रन्ययार्थी - [ धीमता ] बुद्धिवान् पुरुष करके [ निजशक्तिम् ] प्रपनी शक्तिको [ अपेक्ष्य ] देखकर [ श्रविरुद्धाः ] अविरुद्ध [ भोगाः ] भोग [ श्रपि ] भी [ त्याज्याः ] त्याग देने योग्य हैं, और जो [ प्रत्याज्येयु ] उचित भोगोपभोगों का त्याग न हो सके तो उनमें [ श्रपि ] भी [ एकदिवानिशोपभोग्यतया ] एक दिन रातकी उपभोग्यतासे [ सीमा] मर्यादा [ कार्या] करना चाहिये ।
१- कच्चा दूध अन्तर्मुहूर्तके उपरान्त अपेय (नहीं पीने योग्य) है । २ - चौबीस घटेके पश्चात् दही अभक्ष्य है । ३ - श्रधिक समय बीत जानेसे मिष्टान्न में सूक्ष्म लट (जीव विशेष ) पड़ जाते हैं । ४- जिसमें से सूर्यका प्रतिबिम्ब नहीं दिखाई दे, ऐसे सघन ( गाढ़े ) कपड़े के बत्तीस श्रगुल लम्बे और चौबीस पंगुल चौड़े छन्ने (नातने) को दुहरा करके जल छानना चाहिये । छने हुए पानीकी मर्यादा यदि बढ़ाना हो, तोउसे उष्ण ( गर्म ) करके अथवा लवगादि तीक्ष्ण पदार्थ डालके बड़ा सकते हैं। नहीं तो प्रत्येक मुहूर्त के पश्चात् छान के पीना चाहिये ।
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श्लोक १६३-१६५ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। भावार्थ-मोक्षाभिलाषी पुरुषको अपने पदस्थ के विरुद्ध समस्त बाह्य पदार्थ त्यागने योग्य हैं, प्रतएव जिस प्रकार वह अयोग्य पदार्थों का त्याग करता है, उसी प्रकार अपनी शक्त्यनुसार योग्य पदार्थोका भी त्याग करे। यदि कदाचित् योग्य पदार्थों के छोड़ने में समर्थ न हो, तो उन पदार्थोंको नियमित मर्यादा करके दिन, दो दिनके लिये ही छोड़ा करे।'
- त्याग दो प्रकारके' होते हैं, एक यमरूप दूसरे नियमरूप । किसी पदार्थके यावज्जीव त्यागको यम और दिन, रात्रि, मास, ऋतु, अयन, वर्षादिककी मर्यादारूप त्यागको नियम कहते हैं। माय भोमोपभोगोका त्याग यावज्जीव अर्थात् यमरूप किया जाता है, और यदि शक्ति हो, तो योग्य मार भोगोंका त्याग भी यमरूप किया जाता है; परन्तु जब योग्य भोगोपभोगोंमें यमरूप त्यागकी शक्ति नहीं होती है, तब दिवस पक्षादिकके प्रमाणसे नियमरूप त्याग ग्रहण किया जाता है, जैसे
"परस्त्री यावज्जीव त्याज्य है और मोक्षाभिलाषीका स्वस्त्री भी यावज्जीव त्याज्य है, किन्तु जो पुरुष मोहके उदयसे स्वस्त्रीके छोडने में असमर्थ है, उन्हें चाहिये कि. ऋतुःदिवसों में स्त्रस्त्रीका नियम का त्याग करे।" इसी प्रकार समस्त भोग्योपभोग्य पदार्थोंमें यम नियमरूप त्याग किया जाता है।
पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकों निवां शक्तिम् ।
सामन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या ॥१६५॥ अन्वयार्थी-[ पूर्वकृतायां ] प्रथम की हुई [ सोमनि ] सीमामें [ पुनः ] फिर [अपि] भी [ तात्कालिकों ] उस समयकी प्रर्थात् विद्यमान समयकी [ निजां ] अपनी [ शक्तिम् ] शक्तिको [ समीक्ष्य ] विचार करके [ प्रतिदिवसं ] प्रतिदिन [ अन्तरसीमा ] अन्तरसीमा अर्थात् सीमामें भी थोड़ी सीमा [ कर्तव्या ] करने योग्य [ भवति ] होती है।
भावार्थ-पहिले किये हुए भोगोपभोग परिमाणमें अपनी शक्तिके अनुसार मर्यादामें भी मर्यादा करना चाहिये और उसका यथाशक्ति अर्थात् जितना बन सके, उतना पालन करना चाहिये। गृहस्थ जो प्रतिदिन नियम ग्रहण करते हैं, उन्हें अन्तरसमावर्ती नियम कहते हैं। १-नियमो यमश्च विहितौ द्वधा भोगोपभोगसंहारात् ।
नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ॥७॥ भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु ।
ताम्बूलवसनभूषरणमन्मथसङ्गीतगीतेषु ॥ ८ ॥ प्रद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथतुरयनं वा ॥
इति कालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेनियमः॥८६॥-रत्नकरण्डधा. २-निशा षोडश नारीणामुक्तः स्यात्तासु चादिमा।
तिस्राः सर्वैरपि त्याज्या प्रोक्तास्तुर्यापि केनचित् ॥
अर्थात्-स्त्रियोंका ऋतुकाल सोलह रात्रि होता है, उसमेंसे आदिकी तीन रात्रि तो सबने ही त्याज्य कही है किमी किसी प्राचार्यने चौथी रात्रि भी त्याज्य कही है।
३- निम्नलिखित सत्रह अन्सरसीमावर्ती नियम गृहस्थको निरन्तर ग्रहण करना चाहियेभोजने' षट्रसे पाने कुङकुमादिविलेपने । पुष्प'- ताम्बूल'- गीतेषु नृत्यादौ ब्रह्मचर्यके ॥१॥ भूस्नान'-षण''-वस्त्रादौ वाहने शयना"सने। सचित्त''-वस्तु-संख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहा२।
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श्रीमद् राजचन्द्रर्जनशास्त्रमालावाम्
इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुत हिंसा विरहात्तस्याऽहिंसाः विशिष्टा स्यात् ॥ १६६ ॥
[ ३ - प्रतिथि- संविभाग
श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो गृहस्थ [ इति ] इस प्रकार [ परिमितभोगैः ] मर्यादारूप भोगों से [ सन्तुष्टः ] सन्तुष्ट होकर [ बहुतरान् ] अधिकतर [ भोगान् ] भोगोंको [ त्यजति ] छोड़ देता है, [ तस्य ] उसका [ बहुत हंसाविरहात् ] बहुत हिंसा के त्यागसे [ विशिष्टा अहिंसा महिसाबत [ स्यात् ] होता है ।
उत्तम
भावार्थ - जो श्रावक पूर्वोक्त प्रकारसे भोगोपभोगोंका त्याग निरन्तर किया करता है, उसके लोभ कषायके त्याग से संतोषका श्राविर्भाव होता है, और भोगोंके कारण होनेवाली हिंसाका उन भोगोपभोगोंके साथ सहज ही त्याग होता है। इस प्रकार अहिंसाव्रतका उत्कर्ष होता है ।
विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय ।
स्वरानुग्रह हेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः । । १६७ ।।
श्रन्वयार्थी - [ दातृगुणवता ] दातांके गुणयुक्त गृहस्थकरके [ जातरूपाय श्रतिथये ] दिगम्बर श्रतिथिके लिये [ स्वपरानुग्रहहेतोः ] आप और दूसरेके अनुग्रहके हेतु [ द्रव्यविशेषस्य ] विशेषद्रव्य का अर्थात् देने योग्य वस्तुका [ भागः ] भाग [ विधिना ] विधिपूर्वक [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ कर्तव्यः ] कर्तव्य है ।
भावार्थ - "विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेषः " तत्त्वार्थाधिगमके इस सूत्रानुसार विधि, दाता, द्रव्य, पात्रकी विशेषतासे दान में विशेषता होती है, अतएव उत्तम दाताको चाहिये कि उत्तम पात्रको उत्तम आहार उत्तम विधिपूर्वक देवे । इस प्रकारका दान अपने और दूसरेके उपकार के लिये होता है, क्योंकि दाताको उत्तम पात्रके दानसे विशिष्ट पुण्यका बंध होता है, तथा पात्रको अर्थात् लेनेवालेको ज्ञान संयमादिकी वृद्धिरूप लाभ होता है, और ये ही दोनोंके उपकार हैं । प्राये हुए अभ्यागतके निमित्त प्रतिदिन भोजनादिकका दान करके पश्चात् श्राप भोजन करे, यह श्रावक्का नित्यकर्म है । इसे तिथिसंविभाग कहते हैं ।
संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च ।
atest मनः शुद्धिरेवरण शुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ १६८॥ श्रन्वयार्थी - [ च ] और [ संग्रहम् ] प्रतिग्रहण, ३ [ उच्चस्थानं ] ऊँचा स्थान देना, [ पादोदकम् ] चरण धोना, [ अर्चनं ] पूजन करना, [ प्रणामं ] नमस्कार करना, [ वाक्कायमन:शुद्धिः ] मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, रखनी [ ] और [ एषरशुद्धिः ] भोजनशुद्धि, श्राचार्यगण इस प्रकार [ विधिम् ] नवधाभक्तिरूप विधिको [ श्राहुः ] कहते हैं ।
१ - उत्पन्न होने के समय जिस रूपमें था, वैसा । अर्थात् दिगम्बर । अथवा पात्र के उत्तम गुणोंमे युक्त प्रतिथि। २ - जिनका आगमन तिथिके नियम रहित होता है, अर्थात् जो नियमित तिथिको नहीं प्राते ऐसे अभ्यागत । ३-सत्कारपूर्वक अपने गृहमें अतिथिका प्रवेश करना। ४ - विनयसेवायुक्त परिणाम रखना । ५ - विनयपूर्वक बोलना । ३ - शरीर से यथायोग्य सेवा करना ।
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श्लोक १६६-१७१] ... पुरुषार्थसिद्ध पामः । ..."
भावार्थ-उत्तम पात्रोंको उक्त नव प्रकारकी भक्तिसे दान देना चाहिये, तथा सामान्य पात्रों को अपने और उनके गुणोंका विचार कर यथोचित विधिसे दान देना चाहिये।
ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानस्यत्वम् ।
प्रविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥१६॥ अन्वयाथों -- [ ऐहिकफलानपेक्षा ] रस लोकसम्बन्धी फलकी अपेक्षा न रखना, [ शान्तिः ] क्षमा या महनशीलता [निष्कपटता] निष्कपटता, [अनसूयेत्वम् ] ईर्षारहितता, [अविषादित्वमुदित्वे प्रखित्रभाव, हर्षभाव और [ निरहङ्कारित्वम् ] निरभिमानता, [ इति ] इस प्रकार ये सात [ हि ] निश्चय करके [ दातृगुणाः ] दाताके गुण हैं।
____ भावार्थ- दाता इन सात गुणोंकर सहित होना चाहिए, दातामें इन गुणोंकी न्यूनता होनेसे दानके फल में भी तदनु
रागढवासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते ।
द्रव्य तदेव देयं सुतप-स्वाध्यायवृद्धिकरम् ।।१७०।। अन्वयार्थी - [ यत् ] जो [ द्रव्यं ] [ रागद्वेषासंयमददुःखमयादिकं ] राग, द्वेष; असंयम, मद, दुःख, भय आदिक [ न कुरुते ] नहीं करता है, और [ सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ] उत्तम तप तथा स्वाध्यायकी वृद्धि करनेवाला [ तत् एव ] वह ही [ देयं ] देने योग्य है ।
भावार्थ-रागादि भावोंके उत्पन्न करनेवाले मन्दिर, हाथी, घोड़ा, सोना, चांदी, शस्त्रादि पदार्थ तथा कामोद्दीपनादि विकार उत्पन्न करनेवाले स्त्री वादित्रादि पदार्थ दान देने योग्य नहीं हैं, क्योंकि, इन वस्तुप्रोंके निमित्तसे दान लेनेवाला जीव स्वतः पापबंध करता है, और जिसका कि सहायक कारण होनेसे देनेवाला भी तज्जनित पापका भागी होता है। इसलिये दानमें ऐसे पदार्थ देना चाहिए, जो विकार भावोंको उत्पन्न न करे, और तपश्चरणादिको बढ़ानेवाले हों। जैसे क्षुधा निवारणके लिये आहार-दान, रोग-शमनके लिये औषध-दान, अज्ञान दूर करनेके लिये शास्त्र-दान, पौर भय मिटाने के लिये अभय-दान।
पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् ।
अविरतसम्यग्दृष्टिः विरताविरतश्च सकलविरतश्च ॥१७१॥ अन्वयाथों-[ मोक्षकारणगुणानाम् ] मोक्षके कारणरूप गुणोंका अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप गुणोंका [संयोगः] संयोग जिसमें हो, ऐसा [पात्रं] पात्र [अविरतसम्यदृष्टिः ] व्रतरहित सम्यग्दृष्टि [च ] तथा [ विरताविरतः ] देशवती [ च ] और [ सकलविरतः ] महाव्रती [ त्रिभेदम् ] तीन भेदरूप [ उक्त ] कहा है।
भावार्थ - जो दान लेनेवाले पुरुष रत्नत्रययुक्त होवें, वे पात्र कहलाते हैं। उनके तीन भेद हैं, उत्तम पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र। इनमें से सकलचारित्रके धारण करनेवाले सम्यक्त्वयुक्त मुनि उत्तम पात्र, देशचारित्रयुक्त त्रसजीवोंकी हिंसाके त्यागी श्रावक मध्यम पात्र, और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं।
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श्रीमद् रामचन्द्र जैनशास्त्र मालायाम्
[ ३-दान के पात्र
विशेष - ऊपर कह चुके हैं कि पात्रको जिस भावसे दान दिया जाता है, दाता वैसे ही फलका भागी होता है, और यह पात्रव्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोंकी अपेक्षासे होता है; सो इनके धारण करनेवालों को तो यथायोग्य आदर सत्कारसे देना चाहिये और इनके अतिरिक्त अन्य दुःखी पीड़ित जनोंको दयाभावसे दान देना चाहिये' ।
७२
हिमायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं हिंसा व्युपरमरणमेवेष्टम् ।। १७२॥
श्रन्वयार्थी – [ यतः ] क्योंकि [ प्रत्र दाने ] यहाँ दानमें [हिंसायाः ] हिंसाका [ पर्य्याय ] : पर्याय [ लोभः ] लोभ [ निरस्यते ] नाश किया जाता है, [ तस्मात् ] श्रतएव [ श्रतिथिवितरणं ] - प्रतिथिदान [ हिसाव्युपरमरणमेव ] हिंसाका त्याग ही [ इष्टम् ] कहा है ।
भावार्थ - लोभका त्याग किये विना दान नहीं हो सकता, और पहले कह प्राये हैं कि लोभ हिंसाका रूप है, अतएव दानमें लोभका त्याग होनेसे हिंसाका भी त्याग सिद्ध होता है ।
गृहमागताय गुरणने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते ।
वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ॥ १७३॥
श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो गृहस्थ [ गृहमागताय ] घरपर आये हुए [गुरिणमे ] संयमादि गुणयुक्तको और [ मधुकरवृत्त्या ] भ्रमर के सामन वृत्तिसे [ परान् ] दूसरोंको [ श्रपीडयते ] पीड़ा नहीं देनेवाले [ श्रतिथये ] अतिथि साधुके लिये [ न वितरति ] भोजनादिक नहीं देता है, [ सः ] वह [ लोभवान् ] लोभी [ कथं ] कैसे [ न हि ] नहीं [ भवति ] है ।
भावार्थ - जैसे भ्रमर (मौंरा) फूलोंको किसी प्रकारकी हानि न पहुंचाकर केवल उनकी सुगन्धि लेता है, उसी प्रकार रत्नत्रयमंडित परम वैरागी मुनि दाताको किसी प्रकार कष्ट न पहुंचाकर किंचिन्मात्र प्रहार करते हैं, सो ऐसे मुनिको भी जो श्रावक श्राहार नहीं देता है, वह अवश्य लोभी है ।
कृतमात्मार्थं मुमये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्य हव ।।१७४ |
श्रन्वयार्थी - [ श्रात्मार्थ ] अपने के लिये ( कृतम् ) बनाये हुए ( भक्तम् ) भोजनको ( मुनये) मुनिके लिये ( ददाति ) देवे, ( इति ) इस प्रकार ( भावितः ) भावपूर्वक ( प्ररतिविषादविमुक्तः ) प्रेम
१ उक्त च रयरणसारे - सप्पुरिसारणं दारणं कप्पतरूणं फलाग सोहं वा । लोहीणं दारणं जइ विमाणसोहा सवस्स जारणेह ॥
संस्कृतच्छाया - सत्पुरुषारणां दानं कल्पतरूरणां फलानां शोभा बा । लोभनां दानं यथा विमानशोभा शवस्य जानीहि ॥
श्रर्थात् - सत्पुरुषोंका दान देना तो कल्पवृक्षके समान है, जिससे शोभा होती है, और मनोवांछित फल
जिससे शोभा तो होती है, परन्तु
प्राप्त होते हैं, विपरीत इसके लोभीका दान देना मुर्दाके विमान समान है, गृहस्वामीको छाती कूटनी पड़ती है । अर्थात् लोभी पुरुष जब दान देता है, तब उस दानका फल कुछ भी नहीं होता ।
उसकी प्रशंसा तो होती है, परन्तु
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श्लोक १७२-१७५ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। और विषादसे रहित तथा [ शिथिलितलोमः] लोभको शिथिल करनेवाला [ त्यागः ] दान [ अहिंसा एवं ] अहिंसा स्वरूप ही [ भवति ] होता है ।
भावार्थ - जो वस्तु अपने प्रयोजनसे बनाई जाती है, वह यदि दूसरे को देना पड़े तो उससे अप्रीति, खिन्नता और लोभ उत्पन्न होता है, अतएव यहाँ पर अपने निमितका निर्देश कर तैयार किया हुआ भोजन मुनीश्वरोंको देना चाहिये; ऐमा कहा है, क्योंकि ऐसा करनेसे पूर्वोक्त भावों की अनुत्पत्तिमें अर्थात् अरति, खेद न होनेसे दान अहिंसावत होता है।
इस अतिथि-संविभागमें परजीवोंका दुःख दूर करनेसे द्रव्य अहिंसा तो प्रगट ही है, रही भावित अहिंसा, तो वह लोभ कषायके त्यागकी अपेक्षासे जानना चाहिये।
इति द्वादशव्रतकथनम्।
४-सल्लेखनाधर्मव्याख्यान ।
इयमेव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् ।
सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥१७॥ अन्वयार्थी -[ इयम् ] यह [ एका ] एक [ पश्चिमसल्लेखना एव ] मरणके अतमें होनेवाली सल्लेखना ही [ मे ] मेरे [ धर्मस्वं ] धर्मरूपी धनको [ मया ] मेरे ] [ समं ] साथ [ नेतुम् ] ले चलनेको [ समर्था ] समर्थ है। [इति ] इस प्रकार [ भक्त्या ] भक्ति करके [ सततम् ] निरन्तर [ भावनीया ] भाना चाहिये।
___भावार्थ- मरण दो प्रकार का होता है, पहला नित्यमरण और दूसरा तद्भवमरण। प्रायु श्वासोछवासादिक दश प्राणोंका जो समय समयपर वियोग होता है, उसे नित्यमरण और ग्रहीतपर्याय अथवा जन्मके नाश होनेको तद्भवमरण अथवा मरणान्त कहते हैं । इस मरणान्त समयमें सल्लेखनाका चितवन इस प्रकार करना चाहिये कि इस मनुष्य देहरूपी देश में अणुव्रतरूपी व्यापार करके जो धर्मरूप धन कमाया है, उसे परलोकरूपी देशान्तरमें ले जाने के लिये सल्लेखना ही एक मात्र आधार है। जैसे किसी देशमें कमाये हुए धनकी यदि कोई मनुष्य वहाँसे कूच करते समय याद न करे और किसी दूसरे को सौंप जावे, तो उसका वह धन प्रायः व्यर्थ ही जाता है। इसी प्रकार परलोक-यात्राके समय में अर्थात् मरणान्तमें सल्लेखना न की जावे और परिणाम भ्रष्ट हो जावें, तो दुर्गति हो जाती है, इसलिये मरणः समयमें सल्लेखना अंगीकार करनी चाहिये।
१-सह-सम्यक् प्रकारसे लेखना-कषायके कृश (क्षीण) करनेको सल्लेखना-कहते हैं। यह अभ्यन्तर और बाद्य दो भेदरूप है। कायके कृश करने को बाह्य और पान्तरिक क्रोधादि कषायोंके कृश करनेको अभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। . . .
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श्रीमद् सनचन्द्रजामशास्त्रमालायाम
[ ४-सहलेखना मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि।
इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥१७६। अन्वयार्थी-[ अहं ] मैं [ मरणान्ते ] मरणकालमें [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ विधिना ] शास्त्रोक्त विधिसे [ सल्लेखनां ] समाधिमरण [ करिष्यामि ] करूंगा, [इति ] इस प्रकार [ भावना परिणतः ] भावनारूप परिणति करके [अनागतमपि ] मरणकाल पानेके पहिले ही [ इदं ] यह [ शीलम् ] सल्ले खनाव्रत [ पालयेत् ] पालना चाहिये।
भावार्थ-सल्लेखना अर्थात् संन्यासका धारण अन्तकाल में होता है, परन्तु इस जीव की आयु. समय प्रतिसमय घटती ही जाती है, जिसके प्राखिर को मरना निश्चित ही है, इस कारण मृत्यु के पहिले ही ऐसी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि "मैं मरण समय में अवश्य ही सन्याम धारण करूंगा"। इस प्रतिज्ञा की अपेक्षा से उक्त सल्लेखनाव्रत पहिलेसे ही पालित समझा जावेगा।
मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातकरणमात्रे । रागादिमन्तरेण व्याप्रियमारणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥१७७।।
अन्वयाथौं -[अवश्य ] अवश्य ही [ भाविति ] होनहार [ मरणे 'सति' ] मरणके होते हुए [ कषायसल्लेखनातनकरणमात्रे ] कषाय सल्लेखनाके कृश करने मात्र व्यापारमें [ व्याप्रियमारणस्य ] प्रवर्तमान पुरुषके [ रागादिमन्तरेण ] रागादिक भावोंके विना [ आत्मघातः] आत्मघात [ नास्ति ]
नहीं है। . ।। भावार्थ-शरीर स्वभावके विकाररूप विह्नों से तथा शुभाशुभसूचक निमित्तज्ञानकी शक्तिसे
अपना मरणकाल जब निश्चित कर लिया है, तब ही संन्यासमरण अंगीकार किया जाता है और इसलिये " इस समाधि अवस्था में राग द्वोष मोहादिकोंका अभाव होनेसे संन्यास लेने पर आत्मघातका दोष नहीं लग
ता। जिस प्रकार कोई बड़ा व्यापारी अपने घर में आग लग जानेसे पहिले तो उसे बुझाने का प्रयत्न करता है; परन्तु जब बुझाना अशक्य समझ लेता है तब वह ऐसी युक्तिको काममें लाता है कि जिससे अपने हुँडी-पत्रीके व्यवहार-वचन में किसी प्रकार बट्टा नहीं लगने पावे । ठीक इसी प्रकार शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर मनुष्य उसे निर्दोष रीतिसे गमन करने के लिये औषाधादिक' सेवन करता है, परन्तु जब व्याधि से मुक्त होना अशक्य समझ लेता है, तब संन्यास धारण करता है; जिससे अपना धर्म न बिगड़ने पावे । भाव यह है कि अन्तकाले निश्चित करके धर्मके रक्षार्थ संन्यास धारण करना आत्मघात नहीं है।
यो हि कषाधाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः ।
व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ॥१७॥ अन्वयाथों - [हि] निश्चय करके [ कषायाविष्टः ] क्रोधादि कषायोंसे घिरा हुमा [ यः] जो पुरुष [कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रः] श्वासनिरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्रादिकोंसे अपने [प्रारणान्।
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श्लोक १७६-१७८
पुरुषार्थसिद्ध पायः प्राणोंको [व्यपरोपयति] पृथक् कर देता है, [तस्य] उसके [प्रात्मवध:] आत्मघात [सत्यम्] सचमुच स्याद] होता है।
भावार्थ - जो जीव क्रोध,, मान, माया, लोभके वश अथवा इष्ट-वियोगके खेदके वश, तथा अागामी निदानके वश, अपने प्राणों का अग्नि शस्त्रादिकोंसे घात कर डालते हैं, उन्हें आत्मघातका दोष लगता है । जैसे- पतिके पीछे लीका सती होना, हिमालय में गलना, काशी करवत लेनी आदि। किन्तु संन्यासपूर्वक मरण करने वालोंको आत्मघात का दोष नहीं लगता।
विशेष-सल्लेखनाधर्म गृहस्थ और मुनि दोनोंका है, तथा सल्लेखना व संन्यासमरणका अर्थ भी एक है, इसलिये बारह व्रतोंके पश्चात् सल्लेखनाका निरूपण किया है। इस सल्लेखना व्रतको उत्कृष्ट मर्यादा बारह वर्ष पर्यन्त है; ऐसा श्रीवीरनन्दिकृत यत्याचारमें कहा है।
जब शरीर किसी असाध्य रोगसे अथवा वृद्धावस्थासे असमर्थ हो जावे, देव मनुष्यादिकृत कोई दुनिवार उपसर्ग उपस्थित हुया होवे, किसी महा दुर्भिक्षसे धान्यादि भोज्य पदार्थ दुष्प्राप्य हो गये होवें, अथवा धर्मके विनाश करने वाले कोई विशेष कारण प्रा मिले होवें, तब अपने शरीरको पके हुए पानके समान तथा तैलरहित दीपकके समान अपने आप ही विनाशके सन्मुख जान संन्यास घारण करे। यदि मरण में किसी प्रकारका सन्देह हो, तो मर्यादापूर्वक ऐसी प्रतिज्ञा करे, कि जो इस उपसर्गमें मेरी मृत्यु हो जावेगी, तो मेरे पाहारादिका सर्वधा त्याग है और जो कदाचित् जीवन अवशेष रहेगा, तो आहारादिक को ग्रहण करूंगा, यह संन्यास ग्रहण करनेका क्रम है।
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'इस वाक्य के अनुसार शरीरकी रक्षा करना परम कर्तव्य है,क्योंकि धर्मका माधन शरीरसे ही होता है, इसलिये रोगादिक होनेपर यथाशक्ति औषध करना चाहिये, परन्तु जब असाध्य रोग हो जावे और किसी प्रकारके उपचारसे लाभ न होवे, तब यह शरीर, दुष्टके समान सर्वथा त्याग कर देने योग्य कहा है, और इच्छित फलका देनेवाला धर्म विशेषतासे पालने योग्य कहा है। शरीर मृत्यु के पश्चात् फिर भी प्राप्त होता है, परन्तु धर्म पालनेकी योग्यता पाना अतिशय दुर्लभ है। इस कारण विधिपूर्वक देहके त्यागमें दुःखित न होकर संयमपूर्वक मनो वचन कायके व्यापार प्रात्मा में एकत्रित करना चाहिये, और 'जन्म, जरा तथा मृत्यु शरीरसम्बन्धी हैं, मेरे नहीं हैं" ऐसा चितवन कर निर्ममत्व होकर विधिपूर्वक आहार घटाकर शरीर कृश करना चाहिये, तथा शास्त्रामृतके पानसे कषायों को कृश करना चाहिये, पश्चात् चार प्रकार के संघको' साक्षी करके समाधिमरण में उद्यमवान् होना चाहिये।
अन्तकी आराधनासे चिरकालकी की हुई व्रतनियमरूप धर्माराधना सफल हो जाती है, क्योंकि इससे क्षणभर में बहुत कालसे संचित पापका नाश हो जाता है, और यदि अन्त मरण बिगड़ जावे, अर्थात् असंयमपूर्वक मृत्यु हो जावे, तो पूर्वकृत धर्माराधना निष्फल हो जाती है। यहाँपर यदि कोई पुरुष यह प्रश्न करे कि, "जो अन्त समय समाधिमरण कर लेनेसे क्षणमात्रमें पूर्व पापोंका नाश हो जाता है, तो फिर युवादि अवस्थानों में धर्म करनेकी क्या आवश्यकता है ? अन्त समय संन्यास धारण कर लेनेसे ही सर्व मनोरथ सिद्ध हो जावेंगे," तो इसका समाधान इस प्रकार होता है कि "जो पुरुष अपनी पूर्व
१-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका
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श्रीमद् रामचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[४-मल्लेखना अवस्थामें धर्मसे पराङ मुख रहते हैं, अर्थात् जिन्होंने व्रत नियमादि धर्माराधना नहीं की है, वे पुरुष अन्त कालमें धर्मके सन्मुख अर्थात् संन्यासयुक्त कभी नहीं हो सकते। क्योंकि “चिरन्तनाभ्यासनिबन्धनेरिता' गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः" चिरकालके अभ्याससे प्रेरित को हुई बुद्धि गुण और दोषों में जाती है। जो वस्त्र पहलेसे उज्ज्वल होता है, उसपर मनोवांछित रंग चढ़ सकता है, परन्तु जो वस्त्र पहिलेसे मलीन होता है, उसपर रंग कभी नहीं चढ़ाया जा सकता। अतएव संन्यासमरण वही धारण कर सकता है, जो पहिली अवस्थासे हो धर्म की आराधनामें दत्तचित्त रहा हो । हाँ, कहीं कहीं ऐसा भी देखा गया है कि जिस पुरुषने जन्मभर धर्मसेवा में चित्त नहीं लगाया था, वह भी संन्यासपूर्वक मरण करके स्वर्गादि सुखोंको प्राप्त हो गया। यह काकतालीयन्यायवत् २, अति कठिन है. इसलिये जिनवचनोंके श्रद्धानी पुरुषोंको उक्त शंकाको अपने चित्तमें कभी स्थान न देना चाहिये।
संन्यासार्थी पुरुषको चाहिये, कि जहाँतक बने; जिन भगवानकी जन्मादि तीर्थ-भूमियोंका आश्रय ग्रहण करे और यदि तीर्थ भूमि की प्राप्ति न हो सके, तो मन्दिर अथवा संयमी जनोंके आश्रयमें रहे। संन्यासार्थी तीर्थ के जाते समय सबसे क्षमाकी याचना करे और आप भी मन वचन कायपूर्वक सब प्राणियोंको क्षमा करे । अन्त समय क्षमा करनेवाला संसारका पारगामी होता है,और बैर विरोध रखनेवाला अर्थात् क्षमा न रखनेवाला अनन्त संसारी होता है। संन्यासार्थी पुरुषको पुत्र कलत्रादिक कुटुम्बियोंसे तथा सांसारिक सम्पदामोंसे सर्वथा मोह छोड़ देना चाहिये, परन्तु उत्तम साधक पुरुषोंकी सहायता अवश्य लेनी चाहिये, क्योंकि साधर्मी तथा प्राचार्योंकी सहायतासे अशुभ कर्म यथेष्ट विघ्न करनेको समर्थ नहीं हो सकते । व्रतके अतीवारोंको सामियोंके अथवा प्राचार्य के सन्मुख प्रकट कर निःशल्य हो कर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त शास्त्र में कही हुई विधियोंसे शोधन करना चाहिये।
निर्मल भावरूप अमृतसे सिंचित समाधिमरणके लिये पूर्व तथा उत्तर दिशाकी अोर मस्तक पारोपित करे, यदि श्रावक महाव्रत की याचना करे, तो निर्णायक प्राचार्यको उचित है कि उसे महावत देवे । महाव्रत ग्रहण में नग्न होना चाहिये, अजिकाको भी अन्तकाल उपस्थित होने पर एकान्त स्थान में वलोंका त्याग करना उचित कहा है। साँथरेके समय नाना प्रकारके योग्य आहार दिखाकर भोजन करावे. और जो उसे अज्ञानतावश भोजन में प्रासक्त समझे, तो परमार्थज्ञाता प्राचार्यको चाहिये कि उस अपने प्रभावशाली व्याख्यानके द्वारा इस प्रकार समझावे कि
हे जितेन्द्रिय ! तू भोजन शयनादिरूप कल्पिन पुद्गलोंको अब भी उपकारी समझता है और यह जानता है कि इनमें से कोई पुद्गल से भी हैं । जो मैने भोगे नहीं हैं। यह बड़े आश्चर्यकी बात है। भला सोच तो सही, कि ये मूर्तिमन्त पुद्गल तुझ अरूपी में किसी प्रकार मिल भी सकते हैं। तूने इन्हें केवल इन्द्रियोंसे ग्रहणपूर्वक अनुभवनकर यह जान रक्खा है कि मैं ही इनका भोग करता हूं । सो हे दूरदर्शी!अब इस भ्रान्त बुद्धिको सर्वथा छोड़ दे और आत्मतत्त्वमें लवलीन हो। यह वह समय है, जिसमें जानी जीव शुद्धता में सावधान रहते हैं, और चिन्तवन करते हैं कि मैं अन्य हूं और वे पुद्गल मुझसे सर्व या भिन्न अन्य ही पदार्थ हैं, इसलिये हे महाशय ! पर द्रव्योंसे मोह छोड़ करके अपने प्रात्मामें स्थिर
१-चन्द्रप्रभचरिते प्रथमसग । २ ताड़ वृक्षसे अचानक फलका टूटना और उड़ते हुएकाकको प्राकाशमें ही प्राप्त हो जाना जिस प्रकार कठिन है, उसी प्रकार संस्कारहीन पुरुषका समाधिमरण पाना कठिन है।
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श्लोक - १७८ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
रहने का प्रयत्न कर | यदि किसी पुद्गल में प्रासक्त रहकर मरण वेगा, तो स्मरण रखना, कि तुझे क्षुद्र जन्तु होकर उस पुगनका भक्षण प्रनन्त बार करना पड़ेगा। इस भोजनसे जो तू शरीरका उपकार करना चाहता है, सो किसी प्रकार भी उचित नहीं है, क्योंकि शरीर ऐसा कृतघ्नी है कि वह किमी के किये हुए उपकारको नहीं मानता, अतएव भोजनकी इच्छा छोड़ना ही बुद्धिमत्ता है ।
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इस प्रकार हितोपदेशरूपी प्रमृतधाराके पड़ने से अन्नकी तृष्णा दूर कर कवलाहार बड़ा देना चाहिये तथा दुग्धादि पेय वस्तु बढ़ाकर पश्चात् क्रमसे उष्णोदक (गरम जल ) लेने मात्रका नियम करा देना चाहिये और यदि ग्रीष्मकाल, मरुदेश, तथा पैत्तिक प्रकृतिके कारण तृषाकी बाधा सहन करने में श्रसमर्थ होवे, तो केवल ठंडा पानो रख लेना चाहिये और शिक्षा देनी चाहिये कि हे प्राराधक, आर्य, परमागममें प्रशंसनीय मारणान्तिक सल्लेखना अत्यन्त दुर्लभ वर्णन की गई है, इसलिये तुझे विचारपूर्वक प्रतीचारादिदूषणोंसे इसकी रक्षा करना चाहिये ।
इसके पश्चात अशक्तताकी वृद्धि देखकर मृत्यकी निकटता निश्चय होनेपर प्राचार्यको उचित है कि समस्त संघकी अनुमति से संन्यास में निश्चलता के निमित्त पानीका भी त्याग करा देवे । इस अनुक्रमसे चारों प्रकारके आहारका त्याग होनेपर समस्त संघसे क्षमा करावे, निर्विघ्न समाधिकी सिद्धि के लिये कायोत्सर्ग करे । तदुपरान्त वचनामृत संतर्पण करे अर्थात् संसारसे वैराग्य उत्पन्न करनेवाले कारणोंका उक्त आराधक के कान में मन्द मन्द वाणीसे जप करे, श्रेणिक, वारिषेण, सुभग ग्वालादि पुरुषोंके दृष्टान्त सुनावे, और व्यवहार प्राराधना में स्थिर होकर निश्चय आराधना की तत्परता के लिये इस प्रकार उपदेश करे कि:
हे प्राराधक ! श्रुतस्कंघका “एगो मे सासदो प्रादा" इत्यादि वाक्य, “रणमो अरिहंताणं” इत्यादि पद और 'अर्ह' इत्यादि अक्षर, इनमें से जो तुझे रुचिकर हों, उनका श्राश्रय करके अपने चित्तको तन्मय कर ! हे आर्य, "एगो में सासदो अप्पा" इस श्रुतज्ञानसे अपने आत्माकां निश्चय कर ! स्वसंवेदनसे प्रात्माकी भावना कर ! समस्त चिन्तानोंसे पृथक् होकर प्राणविसर्जन कर ! और यदि तेरा, मन किसी क्षुधा परीषहसे अथवा किसी उपसर्गसे विक्षिप्त हो गया होवे, तो नरकादि वेदनाओंका स्मरण करके ज्ञानामृतरूप सरोवर में प्रवेश कर। क्योंकि, अज्ञानी जीव शरीर में श्रात्मबुद्धि अर्थात् "मैं दुःखी हूं, मैं सुखी हूं, ऐसा सङ्कल्प करके दुःखी हुआ करते हैं, परन्तु भेदविज्ञानी जीव श्रात्मा और देहको भिन्न भिन्न मानकर देहके सुखसे सुखी व दुःख से दुखी नहीं होता, और विचार करता है कि मेरे मृत्यु नहीं है, . तो फिर भय किसका ? मेरे रोग नहीं है, फिर वेदना कैसी ? मैं बालक नहीं हूं, वृद्ध नहीं हूं, तरुण नहीं, हूं, फिर मनोवेदना कैसो ? और हे महाभाग्य ! इस थोड़ेसे शारीरिक दुःखसे कायर हाँके प्रतिज्ञाच्युत न होना । दृढ़ चित्त होकर परम निर्जराकी वांछा करना ! देख, जबतक तू श्रात्माका चिन्तवन करता हुआ, संन्यास ग्रहण करके सांथरेपर स्थित है, तबतक क्षण क्षण में तेरे प्रचुर कर्मो का विनाश होता है । क्या तुभे धीर वीर पांडवोंका चरित्र विस्मृत हो गया, जिन्हें लोहेके प्राभरण श्रग्निसे तप्त करके शत्रुने पहनाये थे, परन्तु तपस्यासे किंचित् भी च्युत न होकर आत्मध्यानसे मोक्षको प्राप्त हुए थे ? क्या तूमे महासुकुमार सुकुमाल कुमारका चरित्र नहीं सुना, जिनका शरीर दुष्टा श्यालनीने थोड़ा थोड़ा करके प्रतिशय कष्ट पहुँचाने के लिये कई दिनमें भक्षण किया था, परन्तु किञ्चित् भी मार्गच्युत न होकर
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श्रीमद् राजचन्द्रर्जुन शास्त्रमालायाम्
[ ४ सल्लेखना जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया था ? ऐसे और भी असंख्य उदाहरण शास्त्रों में मिलेंगे, जिनमें दुस्सह उपसर्गों का सहन करके अनेक साधुग्रोंने स्वार्थ सिद्धि की है, क्या तेरा यह कर्तव्य नहीं है कि उनका
नुकरण करके जीवित घनादिकोंमें निर्वाचक हो, अन्तर बाह्य परिग्रहके त्यागपूर्वक साम्यभावसे निरुपाधिमें स्थिर हो, श्रानन्दामृतका पान करे ? इसके पश्चात् अर्थात् उपरि लिखित रीतिके उपदेशसे कषाय कृश करते हुए रत्नत्रयभावनारूप परिणमनसे पंचनमस्कारमत्र स्मरणपूर्वक प्राणविसर्जन करना चाहिये। यह संन्यासमरणकी संक्षेप विधि है ।
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नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतव्रो यतस्तनुताम् ।
सल्लेखनामपि ततः प्राहुर हिंसाप्रसिद्धयर्थम् ॥ १७६॥
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श्रन्वयार्थी - [ यतः ] क्योंकि [ श्रत्र ] संन्यास मरणसे [ हिंसायाः ] हिंसा के [ हेतवः ] हेतुभूत [ कषायाः ] कषाय [ तनुताम् ] क्षीणताको [ नीयन्ते ] प्राप्त होते हैं, [ ततः ] उस कारण से [ सल्लेखनामपि ] संन्यासको भी प्राचार्य गण [ अहिंसाप्रसिद्ध्यर्थं ] अहिंसा की सिद्धिके लिये [ प्राहुः ] कहते हैं ।
भावार्थ - जहाँ कषाय के प्रवेशसहित मन, वचन, कायके योगोंकी परणति होती है, वहाँ हीं हिंसा है और कषायके कृश करने को सल्लेखना कहते हैं, इस कारण सल्लेखना में कषाय क्षीण होने से हिंसा की सिद्ध होती है ।
इति यो व्रतरक्षार्थं सततं पालयति सकलशीलानि ।
वरयति पतिवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ।। १८० ।।
श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो [ इति ] इस प्रकार [ वतरक्षार्थं ] पंचाणुव्रतों की रक्षा के लिये [ सकलशीलानि ] समस्त' शीलोंको [ सततं ] निरन्तर [ पालयति ] पालता है, [ तम् ] उस पुरुष को [ शिवपदश्री: ] मोक्षपदकी लक्ष्मी [ उत्सुका ] अतिशय उत्कण्ठित [ पतिवरा इव ] स्वयंवर की कन्या के समान [ स्वयमेव ] श्राप ही [ वरयति ] स्वीकार करती है, अर्थात् प्राप्त होती है ।
भावार्थ- स्वयंवर मंडप में जिस प्रकार कन्या श्राप ही अपने योग्य उत्तम पतिका शोध करके उसके कंठमें वरमाला डाल देती है, उसी प्रकार इस लोकमंडपमें मुक्तिरूपी कन्या अपने योग्य व्रतादिसंयुक्त जीवको स्वयं अपना स्वामी बना लेती है अर्थात् वह जीव मुक्त हो जाता है ।
प्रतिचाराः सम्यक्त्वे, व्रतेषु शीलेषु पञ्च पञ्चेति ।
सप्ततिरमी यथोदित शुद्धिप्रतिबन्धिनो हेयाः ॥ १८२ ॥
११- तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत और एक अन्तसल्लेखना । २ - पूर्वकालमें राजादिक वैभवशाली पुरुष अपनी कन्याओं के विवाह के लिये स्वयम्बरमंडप बनाते थे और उसमें देश विदेश के राजाम्रोंको बुलाते थे, उनमें से राजकन्या जिसको अच्छा समझती, उसे वरमाला पहनाकर अपना पति बना लेती थी।
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श्लोक १७४-१८२)
पुरुषार्थसिद्धय पायः। अन्वयार्थी -[ सम्यक्त्वे ] सम्यक्त्वमें [ व्रतेषु ] व्रतोंमें और [ शोलेषु ] शीलोंमें [ पञ्च पञ्चेति ] पांच पांच के क्रमसे [ अमी ] ये [ सप्ततिः ] सतर (जो आगे कहे जाते हैं। [ यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनः ] यथार्थ शुद्धिके रोकनेवाले [ अतिचाराः ] प्रतीचार' [ हेयाः ] त्याग करने योग्य हैं ।
भावार्थ-सम्यग्दर्शनके ५, पाँच अणुव्रोंके पाँच पाँचके हिसाबसे २५,दिग्वतादि सात शीलोंके ३५ और सल्लेखनाके २ ५, इस प्रकार ७० प्रतीचार होते हैं, जिनका निरूपण आगे श्लोकोंमें क्रमसे किया जावेगा। प्रतीचारोंका त्याग परमावश्यक है, क्योंकि इनसे व्रतादिक दूषित होते हैं।
शङ्का' तथैव कांक्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनाम् ।
मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टरतीचाराः ॥१८२॥ अन्वयाथों-[ शङ्का ] सन्देह [ कांक्षा ] वांछा [ विचिकित्सा ] ग्लानि [ तथैव ] वैसे ही [ अन्यदृष्टीनाम् ] मिथ्यादृष्टियोंकी [ संस्तवः ] स्तुति [च ] और [ मनसा ] मनसे [ तत्प्रशंसा ] उन अन्यदृष्टियोंकी प्रशंसा करना, [ सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्दृष्टिके [ प्रतीचाराः ] अतीचार हैं।
भावार्थ-१ सर्वज्ञप्रणीत अनेकान्तात्मक मतमें सन्देह करना, २ इस लोक परलोकसम्बन्धी भोगोंकी इच्छा करनी, ३ अनिष्ट तथा दुर्गधित वस्तुयें देखकर घृणा करनी, ४ पाखंडी विमियोंकी वचनसे स्तुति करनी और ५ उन्हींकी चित्तसे सराहना करनी, ये सम्यक्त्वके पाँच प्रतीचार हैं। अब यहाँपर यह शंका उत्पन्न होती है, कि सम्यक्त्वके तो शंकादिक पाठ मल हैं ही; जिनके प्रभावसे निर्मल सम्यक्त्व प्रसिद्ध होता है । यहाँपर पाँच क्यों कहे ? सो इसका समाधान केवल इतना ही है कि अन्यत्र जो पाठ मल कहे हैं वे सब यदि विचारपूर्वक देखे जावें, तो इन पाँचोंमें ही घटित हो जावेंगे, ऐसा कोई बाकी नहीं रहेगा; जो इन पाँचोंमेंसे किसीमें गर्भित न हो। बुद्धिमानोंको चाहिये कि वे विचारपूर्वक गभित कर देखें । जैसे अन्यदृष्टिकी प्रशंसा करनेमें मूढदृष्टि नामक सम्यक्त्वका प्रतीचार होता है; इस प्रकार अन्य भी जानना चाहिये।
१-अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिय॑तिक्रमो यो विषयाभिलाषः ।
तथातिचार करालसत्वं भङ्गो ह्यनाचारमिह व्रतानाम् ॥ भावार्थ-इन व्रतोंके प्रति कम करनेरूप विकारसे मनशुद्धिमें मलिनताके प्रवेश होनेको अतिक्रम विषयाभिलाषारूप मलिनताके प्रवेशको व्यतिक्रम, इन व्रतोंके चरित्रमें प्रालस्य अर्थात् शिथिलता होनेको प्रतीचार पौर सर्वथा व्रत भङ्ग होनेको अर्थात तोड़ देनेको अनाचार कहते हैं। श्रावकाचारके इस वचनसे चरित्रमें किंचिन्मात्र शिथिलता होनेको प्रतीचार कहते हैं। यह शिथिलता हरएक व्रतमें जितने, भेदरूप होती है, वह क्रमसे बतलाई है। उन प्रत्येक प्रतीचारका उक्त लक्षण भलीभांति घटित होता है, वह विचारपूर्वक घटा लेना चाहिये । अतिक्रम और व्यति कम भी व्रतोंके दूषण हैं परन्तु उनके भेद प्रभेद अतिशय सूक्ष्म होते हैं। इसलिये उनका विवरण इस छोटेसे ग्रन्थ में नहीं किया जा सकता।
२-यहाँ शीलोंमें सल्लेखनाका भी ग्रहण किया है। ३-शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवः सम्यादृष्टेरतीचाराः ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ७, सूत्र २३ )। ४-स्नानादि ब विवर्जित मुनियोंके मलिन शरीरको देखकर ग्लानिसे नाक भौंह सिकोड़नेका भी यहाँ अभिप्राय है।
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श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [ ४-सम्यग्दर्शन और अहिंसाव्रतके प्रतीचार छेदनताडनबन्धाः' भारस्यारोपरणं समधिकस्य ।
पानानयोश्च रोधः पञ्चाहिंसावतस्येति ॥१८३॥ अन्वयाथी-[ अहिंसावतस्य ] अहिंसा व्रतके । छेदनताडनबन्धाः ] छेदना, ताड़न करना, बांधना, [ समधिकस्य ] अतिशय अधिक [ भारस्य ] बोभे.का [प्रारोपणं ] लादना, [च ] और [पानानयोः [ अन्न पानीका [ रोधः ] रोकना अर्थात् न देना [ इति ] इस प्रकार [ पञ्च] पांच प्रतीचार हैं।
भावार्थ-किसी जीवका छेदन अर्थात् उसके हस्त पादादि अङ्ग अथवा नाक, कान आदि उपाङ्ग काटना व छेदना, ताड़न लकड़ी कोडा आदिसे मारना, बंधन स्वेच्छापूर्वक गमन करनेवालोंका रस्सी प्रादि बाँधकर रोक रखना, प्रतिभारारोपण जीवधारी जितना बोझा उठा सके उससे अधिक लाद देना और अन्नपाननिरोध अर्थात् खाने पीनेको न देकर उन्हें भूखे प्यासे रखना, ये अहिंसावतके पाँच प्रतीचार हैं। पर्थात् इनसे व्रतका एकोदेश भंग होकर अहिंसाव्रत में दोष लगता है।
मिथ्योपदेशदान रहसोऽभ्याख्यानकट लेख कृती। न्यासापहारवचनं साकारमन्त्रभेदश्च ।।१८४॥
अन्वयार्थी-[मिथ्योपदेशदानं] झूठा उपदेश देना, [रहतोऽभ्याख्यानकूटलेखकृती] एकान्तको गुप्तबातोंका प्रकट करना, झूठा लिखना, [ न्यासापहारवचनं ] धरोहरके (थातीके) हरण करनेका वचन' कहना [च ] और [ साकारमन्त्रभेदः ] कायकी चेष्टाओंसे जानकर दूसरेका अभिप्राय प्रकट कर देना, ये पांच सत्याणुव्रतके अतीचार हैं।
प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहतादानम् । राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरण च ।। १८५।।
अन्वयाथों-[प्रतिरूपव्यवहारः] प्रतिरूप व्यवहार अर्थात् चोखी वस्तुमें खोटी वस्तु मिलाकर बेचना, [ स्तेननियोगः ] चारीमें नियोग देना अर्थात् चोरी करनेवालोंको सहायता देना, [ तदाहुतादानम् ] चोरके द्वारा हरण की हुई वस्तुका ग्रहण करना, [च ] और [ राजविरोधातिक्रमहीनाधि. कमानकरणे ] राजाके प्रचलित किये हुए नियमोंका उल्लङ्घन करना; नापने तौलनेके गज, वाँट, पाई, तराजू आदिके मान हीनाधिक करना, (एते पञ्चास्तेयव्रतस्य] ये पांच प्रचौर्यव्रतके प्रतीचार हैं।
१-'बन्धबधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः' (त० सू० प्र० ७, सू० २५)। २-'मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूट लेखत्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः' (त० सू० अ० ७, मू० २६)। ३-सीपुरुषोंके एकान्त में किये हुए कार्य। ४-कोई पुरुष कुछ द्रव्य धरोहर रखकर अवधि बीत जानेपर फिर लेनेको प्रावे और धरोहर द्रव्यकी संख्या भलकर थोडी मानने लगे, तो उससे इस प्रकार कहना कि, जितना तू रख गया है ले जा। इस प्रकार जान बुझ करके पूरा द्रब्य न देना, ५-'स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रति रूपकव्यवहाराः' । त० सू• अ०७, सू० २७)।
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ग्लोक १८३-१०८ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः ।
स्मरतीव्राभिनिवेशोऽनङ्गक्रीडान्यपरिणयनकरणम् । अपरिगृहीतेतरयोर्गमने चेत्वरिकयोः पञ्च ॥ १८६॥
अन्वयार्थी - [ स्मरती ग्राभिनिवेशः ] कामसेवनकी प्रतिशय लालसा रखना, [श्रनङ्गक्रीडा ] योग्य अङ्गों के अतिरिक्त अङ्गोंसे कामक्रीड़ा करना, [ अन्यपरिणयनकरणम् ] अन्यका विवाह करना, [ च ] और [ अपरिगृहीतेतरयोः ] विना ब्याही ( अनूढा ) तथा उससे इतर प्रर्थात् ब्याही हुई ( ऊढ़ा ) [ इत्वरिकयोः ] व्यभिचारिणी स्त्रियोंके पास [ गमने ? ] गमन ( एते ब्रह्मव्रतस्य ) ये ब्रह्मचर्यव्रतके [ पञ्च ] पाँच प्रतीचार हैं ।
भावार्थ - व्यभिचारिणी स्त्री दो प्रकारकी होती हैं, एक तो अपरिगृहीता अर्थात् अनब्याही वेश्या दासी आदि, दूसरी परिगृहीता अर्थात् अन्यकी ग्रहण की हुई विवाहिता परकीया, सो इन दोनों प्रकारकी शीलभ्रष्ट स्त्रियों के पास जाना, उनके स्तन कुक्षि जघनादि कामोत्त ेजक प्रङ्गोंका देखना, तथा कुवचनालाप करके कुचेष्टा करना ये ब्रह्मचर्यव्रत के पांच प्रतीचार हैं।
वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् ।
कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रियाः पञ्च ॥ १८७॥
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अन्वयार्थी - [ वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् ] घर, भूमि, सोना, चांदो, धन, धान्य, दास, दासियोंके और [ कुप्यस्य ] सुवर्णादिक घातुओं के अतिरिक्त वस्त्रादिकोंके [मेदयोः ] भेदों [ प ] भी [ परिमारणातिक्रियाः ] परिमाणों का उलङ्घन करना । एते अपरिग्रहव्रतस्य अपरिग्रहवत [ पञ्च ] पांच प्रतीचार हैं ।
1
भवार्थ - दो दो भेदोंके व्रत कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तु क्षेत्रादिक पाठके और कुप्यके दो दो करके पाच भेद करना अर्थात् १ घर भूमि, २ सोना चांदी, ३ धन धान्य, ४ सेवक सेविका, ५ रेशम और पाटके वस्त्र, इन प्रत्येक के परिमाणका उल्लंघन करनेसे पांच प्रतीचार होते हैं ।
ऊध्वंमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्धिराधानम् ।
स्मृत्यन्तरस्य गदिताः पञ्चेति प्रथमशीलस्य ॥ १८८ ॥ |
श्रन्वयार्थी - [ ऊर्ध्वमघस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः ] ऊपर, नीचे और समान
भूमिके किये हुए प्रमाणका व्यतिक्रम करना प्रर्थात् जितना प्रमाण लिया हो उससे बाहिर चले जाना, [ क्षेत्रवृद्धिः ] १ - परविवाहकरणे त्वरिकापरिग्रहीतापरिग्रहीतागमनानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशा: (त०सू०प्र० ७ सू० २ ) २- पुश्चली वेश्यादा सीनां गमनं जघनस्तनवदनादिनिरीक्षणसम्भाषणहस्तभ्रू कटाक्षादिसंज्ञाविधानम्, इत्येवमादिकं निखिलं रागित्वेन दुश्चेष्टितं गमनमित्युच्यते ( श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाः श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत संस्कृतटीकायाम् )
३ - क्षेत्रावास्तु हिरण्य-सुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमणातिक्रमाः ( त० प्र० ७, सू० २६ ) ।
४- ऊर्ध्वास्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्त राधानानि ( त० प्र० ७, सू ३०) ५ - पर्वतादिकोंपर चढ़ना ६- कूपादिकोंमें नीचे उतरना । ७- बिल, तहखाना, गुहादिमें प्रवेश ।
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८२
श्रीमद् रामचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [ ४-दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदंडके सामायिकके परिमाण किये हुए क्षेत्रको लोभादिवश वृद्धि करना और [ स्मृत्यन्तरस्य ] स्मृतिके अतिरिक्त क्षेत्रकी मर्यादाका [माधानम् ] धारण करना, प्रर्थात् याद न रखना [ इति ] इस प्रकार [पञ्च ] पांच प्रतीचार [ प्रथमशीलस्य ] प्रथम शीलके अर्थात् दिग्वतके [ गदिताः । कहे गये हैं ।
प्रेष्यस्य' संप्रयोजनमानयनं शब्दरूपविनिपाती।
क्षेपोऽपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पञ्चेति ॥१८६।। अन्वयाथों-[ प्रेष्यस्य संप्रयोजनम् ] प्रमाण किये हुए क्षेत्रके बाहिर अन्य पुरुषको भेज देना, [पानयनं ] वहांसे किसी वस्तुका मंगाना, [शब्दरूपविनिपातो ] शब्द सुनाना, रूप दिखाकर इशारे करना और [ पुद्गलानां ] कंकड़ पत्थरादि पुद्गलोंका [क्षेपोऽपि ] फेंकना भी [इति ] इस प्रकार [पञ्च ] पांच प्रतीचार [ द्वितीयशीलस्य ] दूसरे शीलके अर्थात् देशव्रतके कहे गये हैं।
कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् ।
असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पञ्चेति ।।१६०॥ मन्वयाथों-[कन्दर्पः ] कन्दर्प या कामके वचन कहना, [ कौत्कुच्यं ] मंडरूप अयुक्त कायचेष्टा, [ भोगानर्थक्यम् ] भोगोपभोगके पदार्थो का अनर्थक्य, [ मौखर्यम् ] मुखरता या वाचालता [चौर [ असमीक्षिताधिकरणं ] विना विचारे कार्यका करना [इति] इस प्रकार [तृतीयशीलस्य] तीसरे शील अर्थात् अनर्थदण्डविरति व्रतके [ अपि ] भी [ पञ्च ] पांच प्रतीचार हैं ।
भावार्थ-राग प्रधिकतासे निष्प्रयोजन अशिष्ट बोलनेको कंदपं, विकाररूप दूषित कायचेष्टा बनानेको कौत्कुच्य, भोगोपभोगके पदार्थ बहुत मोल देकर लेनेको भोगानर्थव्य, व्यर्थ ही यद्वा तद्वा बकनेको मौवर्ष, और प्रयोजन से अधिक विना विचारे कार्य करनेको प्रममौक्षिताधिकरण कहते हैं ।
बचतमनःकायानां' दुःप्रणिधानं त्वनादरश्चैव ।
स्मृत्यनुप्रस्थानयुताः पञ्चेति चतुर्थशोलस्य ॥१६॥ अन्वयार्थी -[ स्मृत्यनुपस्थानयुताः ] स्मृत्यनुपस्थानसहित, [वचनमनःकायानां] वचन, मन और कायकी [ दुःप्रणिपानं ] खोटी प्रवृत्ति, [ तु ] और [ अनावरः ] अनादर [ इति ] इस प्रकार [ चतुर्थशीलस्य ] चौथे शील अर्थात् सामायिक व्रतके [ पञ्च ] पांच [ एव ] ही अतीचार हैं ।
भावार्थ-- समायिक पढ़ते समय अशुद्ध पाठके उच्चारण करनेको वचनदुःप्रणिधान, अन्यपदार्थोकी अोर मनके चलायमान करनेको मनोदुःप्रणिधान, शरीरके चलाचलरूप करनेको कायदुःप्रणिधान, सामायिक क्रिया उत्साहहीन होकर करनेको अनादर और 'यह पाठ मैंने पढ़ा कि नहीं ऐसी मंशयरूप विस्मृतिको स्मृत्यनुपस्थान कहते हैं ।
१-पानयमप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः (त.०७, सू० ३१)२-कन्दर्पकौत्कुन्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि (त०अ०७,तू. ३२)। ३-योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यपस्थानानि (त०म०७,सू०३३)
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श्लोक १८६-१६४
. पुरुषार्थसिद्धघु पायः अनवेक्षिताप्रमानितमादानं' संस्तरस्तथोत्सर्गः।
स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासस्य ॥१२॥ अन्वयाथों-[अनवेक्षिताप्रमाजितमादानं ] विना देखे और विना शोधे ग्रहण करना [ संस्तरः ] बिछौना बिछाना, [ तथा ] तथा [ उत्सर्गः ] मल-मूत्रत्याग करना [ स्मृत्यनुपस्थानम् ] उपवासकी विधि भूल जाना [ च ] और [ अनादरः ] अनादर ये [ उपवासस्य ] उपवासके [पञ्च] पांच अतीचार हैं।
भावार्थ-प्रोषधोपवास व्रतमें पूजनको सामग्री प्रादि विना शोघे तथा विना झाड़े हुए लेनेको अनवेक्षिताप्रमाजितादान, इसी प्रकार देखे विना झाड़े विना बिछौना करनेको अनवेक्षिताप्रमाजितसंस्तर, देखी हुई तथा शोबी हुई भूमिके विना मल-मूत्रोत्सर्ग करनेको प्रनवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग, प्रोषधविधिके विधान भूल जानेको स्मृत्यनुपस्थान और भूख प्यासके क्लेशसे उपवासमें उत्साहहीनता होनेको अनादर कहते हैं।
प्राहो हि सचित्तः सचित्तमिश्रः सचित्तसंबन्धः ।
दुष्पक्वोऽभिषवोपि च पञ्चामी षष्ठशीलस्य ॥१३॥ अन्वयाथों--( हि ] निश्चय करके [ सचित्तः प्राहारः ] सचित्ताहार, [ सचित्तमिश्रः] सचित-मिश्राहार, [ सचित्तसम्बन्धः ] सचित्तसंबंधाहार. [ दुष्पक्वः ] दुष्पक्वाहार [ च अपि ] और [ अभिषवः ] अभिषवाहार, [ प्रमी । ये [ पञ्च ] पांच प्रतीचार [षष्ठशीलस्य] छ8 शील अर्थात् भोगोपभोगपरिमाणवतके हैं।
____भावार्थ-चेतनायुक्त सजीव प्राहारको सचित्ताहार, सचित्तसे मिले हुए प्राहारको (जो पृथक् न किया जा सके ), सचित्तमिश्राहार, सचित्तसे सम्बन्ध किये हुए अर्थात् स्पर्श किये आहारकी सचित्तसम्बन्धाहार, कष्टसे हजम हो सके ऐसे गरिष्ठ प्राहारको दुष्पक्वाहार', और दुग्ध घृतादि रस मिश्रित कामोत्पादक आहारको अभिषवाहार' कहते हैं। इनके करनेसे भोगोपभोग परिमाणवतका एकदेश भंग होता है, अर्थात् उक्त व्रतके ये पाँच प्रतीचार हैं।
परदातृव्यपदेशः सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च।
कालस्यातिक्रमणं मात्सय्यं चेत्यतिथिवाने ॥१६॥ अन्वयायौ -[ परदातृध्यपदेशः ] परदातृव्यपदेश, [ सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च ] सचित्त
१-अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि (तत्त्वार्थ सू० म० ७, सू० ३४) २-सचित्तसंबन्धसन्मिश्राभिषवदुःपक्काहारा (त. म०७, सू० ३५)। ३-भोगोपभोगपरिमाणवतके सचित्ताहार प्रतीचार है, परन्तु सचित्तत्यागवतीके पनाचार है। ४-दुष्पक्काहारका पाचन यथार्थ न होकर वातादि रोग प्रकोप तथा उदर-पीड़ा होती है, जिससे मसंयमकी वृद्धि होती है। ५-पौष्टिक आहारसे इन्द्रियमद बढ़ते हैं। ६-सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः (त.प्र. ७, सू. ३६)।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ ४-उपवास, भोगोपभोग, प्रतिथिसंविभागके प्रतीचार । निक्षेप और सचित्तपिधान, [ कालस्यातिक्रमणं ] कालका अतिक्रम, [च ] और [ मात्सर्य ] मात्सर्य, [इति ] इस प्रकार [ अतिथिदाने ) अतिथिसंविभाग व्रतके पांच प्रतीचार होते हैं।
भावार्थ-किसी कार्यके वश बहाना बनाकर दूसरेसे दान देने के लिये कह जानेको पदातृव्यपदेश, कमल पत्रादि सचित्त वस्तुओं में प्राहार रखनेको सचित्तनिक्षेप, सचित्त कमलादिक पत्रासे प्राहार ढकनेको सचित्तपिधान, अतिथिके प्राहारका समय भूल जानेको कालातिक्रम और दातामोंसे ईर्षा : करनेको अथवा उनकी प्रशंसा न सह सकनेको मात्सर्य कहते हैं ।
जोवितमरणाशंसे' सुहृदनुरागः सुखानुबन्धश्च ।
सनिदानः पञ्चंते भवन्ति सल्लेखनाकाले ।।१६५।। अन्वयार्थी-[ जीवितमरणाशंसे ] जीविताशंसा, मरणाशंसा, [ सुहृदनुरागः ] सुहृदनुराग, [सुखानुबन्धः ] सुखानुबन्ध [च ] और [ सनिदानः ] निदानसहित [ एते ] ये [ पञ्च ] पांच प्रतीचार [ सल्लेखनाकाले ] समाधिमरणके समयमें [ भवन्ति ] होते हैं।
भावार्थ-प्रसार शरीरकी स्थिति में प्रादरवान् होके जीनेकी इच्छा करनेको जीविताशसा, रोगादिककी पीड़ाके भय से शीघ्र ही मरनेकी इच्छा करनेको मरणाशंसा, पूर्व में मित्रोंके साथ की हुई प्रानन्ददायिनी क्रीड़ाके स्मरण करनेको सुहृदनुराग, पूर्वकृत नाना प्रकारके भोगोपभोग स्त्री सुखादिकों के चिन्तवन करनेको सुखानुबन्ध और भविष्यकालके भोगोंके वांछारूप चिन्तवनको निदान कहते हैं ।
इत्येतानतिचारानपरानपि संप्रतक्यं परिवज्यं ।
सम्यक्त्वव्रतशोलेरमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्यांचरात् ।।१६६।। अन्वयायौं - [इति ] इस प्रकार गृहस्थ [ एतान् ] इन पूर्व में कहे हुए [अतिचारान्] अतीचारोंको और [अपरान्] दूसरोंको अर्थात् अन्य दूषणोंके लगानेवाले अतिक्रम व्यतिक्रमादिकोंको [अपि भी [ संप्रतक्यं ] विचार कर. [ परिवर्य ] छोड़ करके, [ अमलैः ] निर्मल [ सम्यक्त्वयतशीलः ] सम्यक्त्व, व्रत और शीलों द्वारा [ अचिरात् ] थोड़े ही समय में [ पुरुषार्थसिद्धिम् ] पुरुषके प्रयोजनकी सिद्धिको [ एति ] प्राप्त होता है ।
भावार्थ-प्रतीचारोंके परिहारसे सम्यकत्व व्रत और शील शुद्ध होते हैं, और फिर उनके शुद्ध होनेपर आत्मा शीघ्र ही अपने इष्ट पदको प्राप्त होता है।
इति देशचारित्रकथनम् ।
1ोता
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१-जीवितरमरणाशंसामित्रानुरागसुखनुबन्धनिदानानि ( त० प्र०७ सू०.३७)।
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श्लोक १९५-१६८ ]
पुख्खार्थसिद्धय पायः । ५-सकलचारित्रव्याख्यान ।
चारित्रान्तर्भावात् तपोपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् ।
अनिहितनिजवीर्यस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तः ॥१६॥ अन्वयाथों - [प्रागमे ] जैनागममें [ चारित्रान्तर्भावात् ] चारित्रके अन्तर्वर्ती होनेसे [ तपः ] तप [ अपि ] भी [ मोक्षाङ्गम् ] मोक्षका अङ्ग [ गदितम् ] कहा गया है, इसलिये [ अनिगूहितनिजवीर्यः ] अपने पराक्रमको नहीं छिपानेवाले तथा [ समाहितस्वान्तः ] सावधान चित्तवाले पुरुषोंके द्वारा [ तदपि ] वह तप भी [ निषेव्यं ] सेवन करने योग्य है ।
भावार्थ- दर्शन, ज्ञान, और चारित्ररूप मोक्षमार्ग बतलाया गया है, और तप यह एक चरित्रका भेद विशेष है, इस कारण यह तप भी मोक्षका एक अङ्ग ठहरा, और इसी कारण शक्तिवान् सावधान पुरुषोंके सेवन करने योग्य है। तपश्चरण करने के लिये दो बातोकी पावश्यकता है, एक तो अपनी शक्ति और दूसरा वशोभूत मन, क्योंकि जो पुरुष अपनी शक्तिको छपाता है और कहता है कि मुझसे तप नहीं होता, उसका तप अङ्गीकार करना असंभव है और जो मन वशीभूत न होवे, तो तप अङ्गीकार - करके भी इच्छा बनी रहेगी और इससे जहाँ इच्छा है, वहाँ तप नहीं है, क्योंकि "इच्छ। मिरोधस्तपः" यह तपका लक्षण है
अनशनमवमौदर्य विविक्तशय्यासनं रसत्यागः ।
कायक्लेशो वृत्तेः सङ्ख्या च निषेव्यमिति तपो बाह्यम् ॥१६॥ अन्वयाथों-[ अनशनम् ] अनशन, [ अवमौदर्य ] ऊनोदर, [ निविक्तशय्यासनं ] विविक्तशय्यासन, [ रसत्यागः] रसपरित्याग, [ कायक्लेशः ] कायक्लेश [च ] और [वृत्त: संख्या वृत्तिकी संख्या [ इति ] इस प्रकार [ बाह्य तपः ] बाह्य तप [ निषेव्यम् ] सेवन करने योग्य है।
___ भावार्थ-तप दो प्रकारका है. एक बाह्यतप दूसरा अन्तरंगतप । जो नित्य नैमितिक क्रिया में । इच्छाके निरोधसे साधन किया जावे, और बाहिरसे दूसरेको प्रत्यक्ष प्रतिभासित होवे उसे बाह्यतप और . जो अन्तरंग मनके निग्रहसे साधा जावे और दूसरोंकी दृष्टि में न आ सके, उसे अन्तरंगतप कहते हैं। : प्रथम बाह्यतपके छह भेद हैं, जिनमें खाद्य, स्वाद्य,लेह्य', पेय' रूप चार प्रकारके प्राहारके त्याग करनेको अनशन, भूखसे कम पाहार करनेको अवमोदय अथवा ऊनोदर, विषयी जीवों के सञ्चार रहित स्थान में सोने बैठनेको विविक्तशय्यासन, दुग्ध, दही, घृत, तेल, मिष्टान्न, लवण इन छह रसों के त्याग . करनेको रसपरिश्याम, शरीरको परीषह उत्पन्न करके पीड़ाके सहन करनेको कायक्लेश' और "अमुक ...
१-अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः (त०प्र०६,सू०१६) २-उदर भरने के लिये हायसे खाने योग्य पदार्थ। -स्वादमात्र ताम्बूलादिक । ४-चाटनेके योग्य प्रवलेह आदिक। ५-पीने योग्य दुग्धादिक । ६-कायक्लेश और परीषहमें इतना भेद है, कि प्रयत्नपूर्वक कष्ट उपस्थित करके सहन । करने को तो कायक्लेश कहते हैं, मौर स्वयं अकस्मात् पाये हए कष्टोंके सहन करनेको परीषह कहते हैं ।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ ५-सकलचारित्र व्याख्यान प्रकारसे अमुक हार मिलेगा, तो भोजन करूँगा अन्यथा नहीं,” इस प्रकार प्रवृत्तिकी मर्यादा करने को वृत्त: संख्या अथवा वृत्तिपरिसंख्या कहते हैं ।
प्रथम तपसे रागादिक जीते जाते हैं, कर्मोंका क्षय होता है, घ्यानादिककी सिद्धि होती है, दूसरे निद्रा नहीं प्राती, दोष घटते हैं, सन्तोष स्वाध्यायकी प्राप्ति होती है, तीसरेसे किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित नहीं होती, ब्रह्मचर्य का पालन होता है, ध्यानाध्ययनकी सिद्धि होती है, चौथेसे इन्द्रियों का दमन होता है, निद्रा प्रालस्यका शमन होता है, स्वाध्याय-सुखकी सिद्धि होती है, पाँचवेंसे सुखकी अभिलाषा कृश होती है, रागका प्रभाव होता है, कष्ट सहन करनेका अभ्यास होता है, प्रभावनाकी वृद्धि होती है, और छट्ट तपसे तृष्णाका विनाश होता है ।
* विनयो' वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः । स्वाध्यायोse ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरङ्गमिति ॥ १६६ ॥
श्रन्वयार्थी - [ विनयः ] विनय, [ वैयावृत्यं ] वैयावृत्य, [ प्रायश्चित्त] प्रायश्चित्त [तथैव च ] और तैसे ही [ उत्सर्गः ] उत्सर्ग, [ स्वाध्यायः ] स्वाध्याय, [ श्रय ] पश्चात् [ ध्यानं ] ध्यान, [ इति ] इस प्रकार [ अन्तरङ्गम् ] अन्तरङ्ग [ तपः ] तप [ निषेध्यं ] सेवन करने योग्य [ भवति ] है ।
मावार्थ - अन्तरङ्ग तपके छह भेद हैं, जिनमें श्रादरभावको विनय कहते हैं। यह विनय दो प्रकारका है - १ मुख्यविनय २ उपचार विनय । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको पूज्यबुद्धिसे आदरपूर्वक धारण करना यह मुख्यविनय है, और इनके धारण करनेवाले प्राचार्यादिकोंको श्रादरपूर्वक नमस्कारादि करना यह उपचार विनय है। इन प्राचार्यादिकोंकी भक्तिके वश परोक्षरूप में उनके तीर्थ क्षेत्रादिकों की वन्दना करना यह भी उपचार विनयका भेद है। पूज्य पुरुषोंकी सेवा चाकरी करनेको वैय्यावृत्य कहते हैं । उसके भी दो भेद हैं- एक कायचेष्टाजन्य जैसे हाथसे पदसेवन करना दूसरां परवस्तुजन्य जैसे भोजनके साथमें श्रौषधादिक देकर साधुत्रोंको रोग पीड़ासे मुक्त करना, प्रमादसे उत्पन्न हुए दोषों को प्रतिक्रमणादि पाठ अथवा तप व्रतादि अङ्गीकार करके दूर करनेको प्रायश्चित्त कहते हैं, धन धान्यादिक बाह्य तथा क्रोध मानादि अन्तरङ्ग परिग्रहों में अहंकार ममकाररूप बुद्धिके त्याग करनेको उत्सर्ग कहते हैं | ज्ञानभावनाके लिये श्रालस्य रहित होकर श्रद्धानपूर्वक जैन सिद्धान्तोंका स्वतः पढ़ना, बारम्बार अभ्यास करना, धर्मोपदेश देना, और दूसरोंसे सुनना, इसे स्वाध्याय कहते हैं, और समस्त चिन्ताओंका त्यागकर धर्ममें तथा म्रात्मचिन्तवन में एकाग्र होने को ध्यान कहते हैं ।
प्रथम अन्तरङ्ग तपसे मानकषायका विनाश होकर ज्ञानादि गुणोंकी प्राप्ति होती है, दूसरे मे गुणानुराग प्रकट होकर मानका प्रभाव होता है, तीसरेसे व्रतादिकों की शुद्धता होकर परिणाम निःशल्य हो जाते हैं, तथा मानादिक कषाय कृश होते हैं, चौथेसे निष्परिग्रहत्व प्रकट होकर मोह क्षीण होता है, पाँचवें बुद्धि स्फुरायमान होकर परिणाम उज्ज्वल रहते हैं, सवेग होता है, धर्मकी वृद्धि होती है, और छट्ट से मन वशीभूत होकर अनाकुलताकी प्राप्तिसे परम प्रानन्दमें मग्न हो जाता है।
१ --प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ( त० अ० सू० २० ) ।
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लोक १६-२.३)
पुरुषार्थसिद्धय पायः । जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् ।
सुनिरूप्य निजां पदवों शक्ति च निषेव्यमेतदपि ॥२०॥... अन्वयाथों-[ जिनपुङ्गवप्रवचने ] जिनेश्वरके सिद्धान्तमें [ मुनीश्वराणां ] मुनीश्वर अर्थात् सकलव्रतियोंका [ यत् ] जो [ माचरणम् ] पाचरण । उक्तम् ] कहा है, सो [ एतत् ] यह [अपि] भी गृहस्थोंको [ निजां ] अपनी [ पदवीं ] पदवी [च [ और [ शक्ति ] शक्तिको [ सुनिरूपब ] भले प्रकार विचार करके [ निषेव्यम् ] सेवन करने योग्य कहा है।
भावार्थ-इस ग्रन्थमें मुख्यतासे गृहस्थाचारका वर्णन किया गया है, और जो थोड़ा बहुत यतियोंका आचरण वर्णन किया है, वह गृहस्थाचारके प्रयोजनसे ही किया है, इसलिये गृहस्थोंको चाहिये कि अपनी योग्यता और शक्तिका विचार करके उसका ग्रहण करें, क्योंकि मुनीश्वरोंकी संयमादि क्रिया एकोदेश अर्थात् कुछ अंशोंमें गृहस्थपदमें भी कर्तव्य है, सर्वदेश केशलुचनादि क्रियायें मुनीश्वरपदके ही योग्य हैं, गृहस्थोंके नहीं।
इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् ।
प्रत्याख्यान वषुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्त्तव्यम् ॥२०१॥ अन्वयाथों-[ समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम्] समता, स्तव, वन्दना प्रतिक्रमण [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [च ] और [ वपुषो व्युत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [ इति ] इस प्रकार [ इदम् ] ये [ आवश्यकषट्क ] छह आवश्यक [ कर्तव्यम् ] करना चाहिये।
भावार्थ-सम्यक भावोंके करनेको समता, तीर्थकरोंके गुणोंके कीर्तनको स्तव. उनके सम्मुख गिरादि अङ्गोंके नम्रीभूत करनेको बन्दना, प्रमादकृत पूर्वदोषोंके दूर करनेको प्रतिक्रमण, त्यागभावोंसे आगामीकालसम्बन्धी प्रास्रवक रोकनेको प्रत्याख्यान, और कायके त्याग करने अर्थात् पाषाणकी मूर्तिके समान निष्कम्प अचल होकर सामायिक में स्थित होनेको कायोत्सर्ग कहते हैं। ये छह क्रियायें पावककी अत्यन्त आवश्यक हैं, इसीसे इनका नाम षट् अावश्यक क्रिया है।
सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य ।
मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम् ॥२०२॥ अन्वयार्थी-[ वपुषः ] शरीरका [ सम्यग्दण्डः ] भले प्रकार अर्थात् शास्त्रोक्त विधिसे वश करना [ तथा ] तथा [ वचतस्य ] वचनका [ सम्यग्दण्डः ] भले प्रकार अवरोधन करना [च ] पौर [ मनस: ] मनका [ सम्यग्दण्ड: ] सम्यक्तया निरोधन करना इस प्रकार [ गुप्तीनां त्रितयम् ] गुप्तियोंके त्रिकको अर्थात् तीन गुप्तियोंको [अवगम्यम् ] जानना चाहिये।
भावार्थ- ख्याति लाभ पूजांदिकी वांछाके बिना मनोवचनकायकी' स्वेछापोंके रोक लेनेको गुप्ति कहते हैं। इन्हें साधारणतः मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति कहते हैं ।
सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक ।
सम्यग्ग्रहनिक्षेपो व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः ॥२०३।। १-सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः (त०म०६, सू०४)। २-ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितमः ( त० अ०६, सू०५)।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ ५-तीनगुप्ति, पांच समिति अन्वयायौं -[ सम्यग्गमनागमनं ] सावधान होकर भले प्रकार गमन पौर प्रागमन, [सम्यग्भाषा ] उत्तम हितमितरूप वचन, [सम्यक् एषणा] योग्य आहारका ग्रहण, [सम्यग्ग्रहनिक्षेपौ] पदार्थका यत्नपूर्वक ग्रहण और यत्नकपूर्वक क्षेपण अर्थात् धरना [ तथा ] और [सम्यग्व्युत्सर्गः] प्रासुक भूमि देखकर मल मूत्रादिक त्यागना [ इति ] इस प्रकार ये पांच [ समिति ] समिति हैं।
भावार्थ-प्राण-पीड़ा-परिहार करनेमें पाँच समिति उत्तम उपाय हैं। इनके ईर्यासमिति, भाषांसमिति, एषणासमिति, पादाननिक्षेपणसमिति प्रौर उत्सर्गसमिति ये पाँच प्रचलित नाम हैं। श्लोक में इन्हीं मामोंके वाचक अन्य शब्द दिये गये हैं। मुनी और श्रावक दोनोंको इनकी पालना यथोचित करनी चाहिये।
धर्म' सेव्यः क्षान्तिद्दुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् ।
पाकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥२०॥ अन्वयाथी -[क्षान्तिः ] क्षमा, [ मृदुत्वम् ] मृदुपना अर्थात् मार्दव, [ ऋजुता] सरलपना अर्थात् प्रार्जव, [ शौचम् ] शौच, [ प्रथ ] पश्चात् [ सत्यम् ] सत्य, [च ] तथा [प्राकिञ्चन्यं ] प्राकिंचन, [ ब्रह्म ] ब्रह्मचर्य, [1] पौर [ त्यागः ] त्याग, [च ] मोर [ तपः ] तप, [च ] और [ संयमः ] संयम [ इति ] इस प्रकार [ धर्मः ] दस प्रकारका धर्म [ सेव्यः ] सेवा करने के योग्य है।
भावार्थ-क्रोध कषायके कारण परिणामोंके कलुषित न होने देनेको क्षमा, जात्यादि अष्ट मदके न करनेको मार्दव, मनोवचनकायकी क्रियानों के वक्र न रखनेको तथा कपटके त्यागको प्रार्जव, अंत:करणमें लोभ गृद्धताके न्यून करनेको तथा बाह्य शरीरादिक में पवित्रता रखनेको शौच, यथार्थ वचन कहनेको सत्य, परिग्रहके अभावको तथा शरीरादिकमें ममत्व न रखनेको प्राकिंचन, कर्मक्षय करनेके लिये अनशनादि करनेको तथा इच्छाके निरोध करनेको तप, दूसरे जीवोंको दयाभाव करके ज्ञान माहारादि दान देनेको त्याग, इन्द्रियनिरोधन तथा त्रस स्थावर जीवोंकी रक्षाको संयम, और प्रात्मामें तल्लीन रहने तथा स्त्री-संभोगके त्याग करनेको ब्रह्मचर्य, कहते हैं। ये देशों धर्म अपनी पपनी योग्यतानुसार मुनि और श्रावक दोनोंको धारण करना चाहि ।।
प्रध्र वमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमाञवो जन्म । :
लोकवृषबोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्ष्याः ।।२०५॥ अन्वयाथों [प्रध्र वम् ] अध्र व [ अशरणम् ] अशरण, [ एकत्वम् ] एकत्व, [अन्यता पन्यत्व, .[ अशौचम् ] अशुचि, [प्रास्रवः ] आस्रव, [जन्म ] संसार, [लोकवृषबोधिसंवर. निर्जराः ] लोक, धर्म, बोधिदुर्लभ, संवर और निर्जरा । एता द्वादशभावना ) ये बारह भावनायें [ सततम् ] निरन्तर [ अनुप्रेक्ष्याः ] बार बार चिन्तवन तथा मनन करना चाहिये।
___ भावार्थ-मुमुक्ष (मोक्षाभिलाषी) जनोंको उपयुक्त बारह भावनायें अथवा द्वादशानुप्रेक्षापोंका चिन्तवन निरन्तर करना चाहिये । ये भावनायं परम (उत्कृष्ट) वैराग्यको प्राप्त करनेवाली हैं । अनुप्रेक्षा
१-उत्तमक्षणमार्दवानबसत्यशौचसंयमतपस्त्यानाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ( त० म०६, सू० ६) ।
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इनोव २०४-२०५ ) पुरुषार्थसिवय पायः।
८६ शब्दका अर्थ बार बार चितवन वा मनन करना है, यह शब्द प्रत्येक नामके साथ संयोजित कर देना चाहिये । यथा:
१- अध्र वानुप्रेक्षा'-इस संसारमें शरीर सम्पदादि यावन्मात्र पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, वे सब ध्र व नहीं हैं, जलके बुबुदेके समान तथा मेघोंके पटलके समान अनव स्थित हैं। खल पुरुषोंकी मैत्रीके समान अस्थिर हैं, गिरती हुई नदीके प्रवाहके समान क्षणविनश्वर हैं।
२-अशरणानुप्रेक्षा२- जैसे निर्जन वनमें सिंहसे पकड़े हुए हरिणके बच्चेको कोई भी शरण नहीं है अथवा कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं है, उसी प्रकार इस संसाररूपी गहन वनमें मृत्युसे पकड़े हए जीवको कोई शरण नहीं है।
अथवा' जैसे अपार समुद्र में चलते हुए जहाजपर बैठे हुए पक्षीको जहाज छट जानेसे कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार इस संसार-समुद्र में जीवको कोई शरण नहीं है।
__यदि सुरेन्द्रादिक देव भी मृत्युसे रक्षा पानेमें समर्थ होते, तो फिर वे सम्पूर्ण भोगोंसे परिलिप्त म्वर्गवासको क्यों छोड़ते ? कभी नहीं।
३-संसारानुप्रेक्षा- यह जीव पंचपरावर्तनरूप" संसारमें नाना प्रकारकी कुयोनियों में भ्रमण करता है, कर्मरूपी यंत्रकी प्रेरणासे कभी स्वर्ग में जाता है, कभी नरकमें जाता है, और कभी निगोदादिककी महादुःखमय योनिमें जा पड़ता है । देखा जाता है, कि जो पुरुष पूर्वजन्ममें पिता था, वह इस
१-याहग्बोधचरित्ररत्ननिचयं मुक्त्वा शरीरादिकाः । न स्थेयाभ्रतडित्सुरेन्द्रधनुरम्भोबुबुदामाः क्वचित् ।। nवं चिन्तयतोऽभिषङ्गविगमं स्याद् भुक्तमुक्तासने । यद्वत्तद्विलयेऽपि नोचितमिवं संशोचनं श्रेयसे ।। (ग्रन्थान्तरे)
२-सीहस्स कमे पडिद सारंगं जह ण रक्खदे कोवि। तह मिच्चुरणा य गहिदं जीवं पि रण रक्खदे कोविं ॥२४॥ सिंहस्य क्रमे पतितं सारङ्ग यथा न रक्षति कोपि ।
तथा मृत्युना च गृहीतं जीवमपि न रक्षति कोपि ॥२४॥-स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा 1 -- नोदयेऽथंनिचये हृदये स्वकार्ये सर्वः समाहितमतिः पुरतः समस्ते । जाते त्वपायसमयेऽम्बुपती पतत्रेः पोतादिव द्रुतवतः शरणं न तेऽस्ति ।-यशस्तिलकचम्पू
४ -अप्पारणं पिचवंतं जइ सक्कदि रक्खि सूरिंदो वि।
तो कि छंडदि सग्मं सव्वुत्तम-भोय-संजुस ॥२६॥ मात्मानमपि च्यवन्तं यदि शक्नोति रक्षितु सुरेन्द्रोपि ।
तत् किं त्यजति स्वर्ग सर्वोत्तमभोगसंयुक्तम् ।।-स्वा. का. ५ - द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भवपरावर्तन और भावपरावर्त्तन ।
६-पुत्तो वि भानो जानो सो चिय मोनो वि देवरो होदि ।
माय होदि सवत्ती जणणो वि य होदि भत्तारो ॥६४॥ एयम्मि भवे एवे संबंधा होंति एय-जीवस्स।
अण्ण-मवे किं भण्णइ जीवाणं धम्म-रहिवारणं ॥६५॥ पुत्रोऽपि भ्राता जातः स एव भ्रातापि देवरः भवति । भाता भवति सपत्नी जनकः अपि च भवति भर्ता ॥३४॥ एकस्मिन् भवे एते सम्बन्धाः भवन्ति एकजीवस्य । अन्यभवे किं भण्यते जीवानां धर्मरहितानाम ॥६५॥
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६० श्रीमद् रामचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[५-द्वादशानुप्रेक्षा जन्ममें पुत्र होता है. सेवक स्वामी होता है, स्त्री माता होती है और माता स्त्री होती है, और तो क्या आप ही मरकर अपने वीर्यसे अपना ही पुत्र होता है, फिर ऐसे संसारमें विश्वास करना कैसा ? संसारमें कहीं भी सुख नहीं है। किसीके' धन धान्य सेवक हस्ती घोटकादि समस्त वैभवकी सामग्री है, परन्तु पुत्र न होनेसे अत्यन्त दुखी है, जिसके पुत्री पुत्रादिक हैं, वह लक्ष्मीके न होनेसे दुखी है, जिसके सम्पत्ति और संतति दोनों हैं, वह शरीरसे नीरोगी न रहनेके कारण दुखी है, कोई स्त्रीकी अप्राप्तिसे दुखी है, तथा जिसके स्त्री है, वह उसके कठोर स्वभावसे दुखी है, किसीका पुत्र कुमार्गगामी है, किसी की पुत्री दुश्चरित्रा है, सारांश संसार में कोई भी सुखी नहीं है ।
४-एकत्वानुप्रक्षा-यह जीव सदाका अकेला है, परमार्थदृष्टिसे इसका मित्र कोई नहीं है. अकेला पाया है, अकेला दूसरी योनिमें चला जायगा। अकेला ही बूढा होता है। अकेला ही जवान होता है, और अकेला ही बालक होकर क्रीड़ा करता फिरता है । अकेला ही रोगी होता है, अकेला ही दुखी होता है. अकेला ही पाप कमाता है, और अकेला ही उसके फलको भोगता है, बंधु वर्गादिक कोई भी स्मशानभूमिसे प्रागेके साथी नहीं है, एक धर्म ही साथ जानेवाला है।
५-अन्यत्वानुप्रेक्षा–यद्यपि इस शरीरसे मेरा अनादि कालसे सम्बन्ध है, परन्तु यह अन्य है और मैं अन्य ही हूं। यह इन्द्रियमय है, मैं अतीन्द्रिय हूं, यह जड़ हैं, मैं चैतन्य हूं। यह अनित्य है, मैं नित्य हूं। यह आदि अन्त संयुक्त है, मैं अनादि अनन्न हं। सारांश, शरीर और मैं सर्वथा भिन्न हूं। इसलिये जब अत्यन्त समीपस्थ शरीर भी अपना नहीं है, तो फिर स्त्री कुटुम्बादिक अपने किस प्रकार हो सकते हैं ? ये तो प्रत्यक्ष ही दूसरे हैं ।
६-अशुचित्वानुप्रेक्षा-यह शरीर अतिशय अपवित्रताका योनिभूत और बीभत्सयुक्त है। माता पिताके मलरूप रज और वीर्यसे इसकी उत्पत्ति है, इसके संसर्गमात्रसे अन्य पवित्र सुगन्धित पदार्थ महा अपवित्र तथा घिनावने हो जाते हैं। शरीर इतना निंद्य पदार्थ है, कि यदि इसके ऊपर त्वचाजाल नहीं होता, तो इसकी ओर देखना भी कठिन हो जाता। विषयाभिलाषी जीव यद्यपि इसे ऊपरसे नाना प्रकारके वस्त्राभूषणों तथा सुगन्धि द्रव्योंसे
१-कस्स वि रणत्थि कलत्त अहव कलत्तण पुत्त-संपत्ती।
अह तेंसि संपत्ती तह वि सरोश्रो हवे देहो ॥५१॥ अह पोरोमो देहो तो धरण-धण्णाण णेयसंपत्ती।
ग्रह धरण-धण्णं होदि हु तो मरणं झत्ति ढुक्केदि ॥२॥ ..... . कस्स वि दुट्ट-कलत्त कस्स वि दुव्वसा-वसरिणो पुत्तो।
कस्स वि अरि-सम-बंधू कस्स वि दुहिदा वि दुच्चरिया ॥५३॥ कस्यापि नास्ति कलत्रं प्रथवा कलत्रं न पुत्रसम्प्राप्तिः । अथ तेषां सम्प्राप्तिः तथापि सरोगः भवेत् देहः ॥५१।। अथ नीरोगः देहः तदा धनधान्यानां नैव सम्प्राप्तिः । अथ धनधान्यं भवति खलु तदा मरणं झटिति ढौकते॥५२॥
कस्यापि दुष्टकलत्रं कस्यापि दुर्व्यसनव्यसनिकः पुत्रः ।
कस्यापि अरिसमबन्धुः कस्य अपि दुहितापि दुश्चरिता ।। ५३।। (स्वा० का०) ....: २-देहात्मकोऽहमिति चेतसि मा कृथास्त्वं, त्वत्तो यतोऽस्य वपुषः परमो विवेकः ॥ त्वं धर्मशर्मवसतिः परितोऽवसायः, काय: पूनर्जड़तया गतधीनिकायः ॥ (य० ति च०१२३)
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श्लोक २०५ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः
६ १
चमकीला बनाया करते हैं; परन्तु यह' भीतर से सम्पूर्ण कुथित जीवोंका पिंड, कृमि समूहसे लिप्त, प्रतीव दुर्गंधित मल मूत्र श्लेष्मादि मलिन पदार्थोंका घर है, जिस प्रकार मलनिर्मित घड़ा धोने से किसी प्रकार पवित्र नहीं हो सकता उसी प्रकार यह शरीर स्नान विलेपनादिसे कभी विशुद्ध नहीं हो सकता, संसार यदि इसके पवित्र करनेका कोई उपाय है तो वह यही है, कि सम्यग्दर्शन की भावना निरन्तर की जावे ।
७- श्रात्रवानुप्रेक्षा- पाँच मिथ्यात्व २, बारह प्रव्रत, पच्चीस कषाय", और पन्द्रह योग* इस प्रकर सत्तावन द्वारोंसे जीवके शुभाशुभ कर्मोंका आगमन होता है, यही प्रस्रव है । यह शुभ और शुभरूप दो प्रकारका है। शुभयोगजन्य कर्मों के प्रास्रवको शुभास्रव और अशुभयोगजन्य कर्मोंके प्रसवको शुभाव कहते हैं । इस प्रास्रवसे बंध होता है, श्रौर बंध संसारका मूलकारण है, इसलिये मोक्षाभिलाषी नको इससे विमुख रहना चाहिये, इस प्रकार भावनापूर्वक प्रास्रवके' स्वरूपका चिन्तवन करने को प्रासवानुपेक्षा कहते हैं ।
८- संवरानुप्रेक्षा- " श्रास्रवनिरोधः संवरः " अर्थात् कर्मोंके प्रास्रवके रोकनेको संवर कहते हैं, इस संवर के कारणभूत पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशलाक्षणिक धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, और बावीस पर षहोंके चिन्तवन करनेको संवरानुप्रेक्षा कहते हैं ।
६- निर्जरानुप्रेक्षा - पूर्वसंचित कर्म समूहके उदय में म्राकर तत्काल ही निर्जर जाने प्रर्थात् झड़ निरा कहते हैं । यह दो प्रकाकी होती है, एक सविपाकनिर्जरा दूसरी श्रविपाक निर्जरा । पूर्वसंचित की स्थिति पूर्ण होकर उनके रस (फल) देकर स्वयं झड़ जानेको सविपाकनिर्जरा कहते हैं, श्रौर तपश्चर्या परीषह विजयादिके द्वारा कर्मोंके स्थिति पूरे किये विना ही झड़ जानेको श्रविपाकनिर्जरा कहते हैं । ग्राम्रफलका वृक्ष में लगे हुए काल पाकर स्वयं पक जाना सविपाकनिर्जराका और पदार्थ विशेषमें
१ - सयल - कुहियारण पिंडं किमि-कुल कलियं श्रपुव्व- दुग्गंधं । मल-मुत्ताणं गेहं जाणेहि श्रसुइमयं ॥ ८३ ॥
सकलकुथितानां पिण्डं कृमिकुलकलितमपूर्व दुर्गन्धम् ।
मलमूत्राणां च गेहं देहं जानीहि अशुचिमयम् ॥ ८३ ॥ ( स्वा० का० प्रे० )
२- एकान्तमिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, विनयमिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, प्रज्ञानमिथ्यात्व । ३ - पाँच इन्द्रियजन्य तथा एक मनोजन्य असंयम और छह कायके जीवोंकी प्रदया । ४ - प्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ, भौर संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, ये १६ कषाय और हास्य, रति, भरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष, नपुंसक ये 8 नो कषाय, ५-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग, श्रदारिककाययोग, श्रदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, श्राहारक काययोग, प्राहारकमिश्रकाययोग, कार्मारणकाययोग ।
६-मण-वयरण - कायजोया जीवपयेसारण फंदरण-विसेसा ।
मोहोर जुत्ता विजुदा वि य प्रासवा होंति ॥८८॥
मनोवचन काययोग जीव प्रदेशानां स्पन्दन विशेषाः ।
मोहोदयेन युक्ताः वियुताः अपि च श्रास्रवाः भवन्ति ॥ ८८ ॥ स्वा० का०प्रे०
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६२
श्रीमद् राजचन्द्रमशास्त्रमालायाम्
[५- द्वादशा प्रेक्षा
दबाकर गर्मीके द्वारा पकाया जाना प्रविपाकनिर्जराका उदाहरण है। सविपाकनिर्जरा सम्पूर्ण समारी जीवोंके होती है, परन्तु अविपाकनिर्जरा' सम्यग्दृष्टि सत्पुरुषों तथा व्रतधारियों के ही होती है। निर्जराके स्वरूपका इस प्रकार चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
१०-लोकानुप्रेक्षा-दशों दिशागत शन्यरूप अनन्त प्रलोकाकाश है। इस प्रलोकाकाशके बहुमध्यवर्ती देश में पुरुषोंके आकार (सदृश) लोक स्थित है, यह लोक अनादिनिधन स्वयंसिद्ध रचनाके द्वारा स्थिर है। इसका न कोई कर्ता है और न कोई हर्ता है। इस पुरुषाकार लोकका उरुजंघादिदेश प्रघोलोक है । कटितटप्रदेश मध्यलोक है; उदर प्रदेश माहेन्द्र म्वर्गान्त है, हृदयप्रदेश ब्रह्म ब्रह्मोतर स्वर्ग है, स्कन्ध प्रदेश प्रारणाच्युत स्वर्ग है, महाभुजायें दोनों ओरकी मर्यादा हैं, कण्ठदेश नवप्रैवेथिक है, दाँढीदेश अनुदिशि है, ललाटदेश सिद्धक्षेत्र है और मस्तक सिद्धस्थान है । इस प्रकार पुरुषाकार लोककी पाकृति ध्यान में स्थितकर बारम्बार चिन्तवन करमेको लोकानुप्रेक्षा कहते हैं ।
१५-बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-इस घोर दुःखरूप संसारमें निगोद राशिमे निकलकर त्रस जन्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। त्रस जन्ममें भी पंचेन्द्रिय महासमुद्र में गिरी हुई वज्रकणिकाकी प्राप्ति के तुल्य महादुर्लभ है, पंचेन्द्रियमें भी मनुष्य होना सब गुणोंमें कृतजता गुणकी नाई अति दुर्लभ है । एक मनुष्यपर्यायके पूर्ण होनेपर उसका पुनः प्रप्त करना मुख्यमार्गमें पड़े हुए रत्नके समान अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म म भा उत्तम कुल, उत्तम देश इन्द्रियोंकी पूर्णता, आरोग्यता, और सम्पत्ति पाना भस्मीभूत वृक्षकी भस्मसे वृक्षकी फिरसे उत्पत्तिके समान उत्तरोत्तर दुर्लभ है । अन्त में जाकर परम अहिंसामयी धर्म, धर्म में उत्तम श्रद्धा, गृहस्थधर्म, यतिधर्म तथा समाधिमरण पाना तो अतिशय दुर्लभ है। इस प्रकार रत्नत्रय रत्नके चिन्तवन करनेको बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं, अथवा परवस्तुकी प्राप्ति जो अपने वशमें नहीं है, वह होवे अथवा न होवे, परन्तु अपना स्वभाव आपमें ही है, कहींसे लाना नहीं है: उसकी प्राप्ति दुर्लभ क्यों मानना चाहिये ? इस प्रकारके चिन्तवनको भो दुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं।
१२-धर्मानुप्रेक्षा-यह सर्वज्ञप्रणीत जैनधर्म अहिंसालक्षणयुक्त है । सत्य, शौच ब्रह्मचर्यादि इसके अङ्ग हैं। इनकी अप्राप्तिसे जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करता है, पापके उदयसे दुःखी होता है, परन्तु इसकी प्राप्तिसे अनेक सांसारिक सम्पदामोंका भोग करके मुक्ति प्राप्तिसे सुखी होता है. इस प्रकार चिन्तवन करनेको धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं ।
क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः । दंशो मशकादीनामाकोशो व्याधिदुःखमङ्गमलम् ।।२०६॥
१-इसके भी दो भेद हैं, एक शुभानुबन्धा और दूसरी निरनुबन्धा, जिसमें स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है, उसे शुभानुबन्धा और जिससे मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है, उम निरन्बन्धा कहते हैं। २-जैनधर्मका पुरुषाकार लोक जाननेके लिये तिल्लोयपण्णत्ति,धवलसिद्धान्त ग्रन्थ, त्रिलोकसार, जम्बूदीपप्रज्ञप्ति, मूर्यप्रजप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति प्रादि महान पन्थ देखना चाहिए।
३-क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशमशकनान्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याकोशबघयाचनालाभारोगतृणस्पर्शासक परकारप्रजाजानादर्शनानि ( त० म० अ० ६ सू. ६)
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लोक २०६-२००]
पुरुषार्थसिद्धय पायः । स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शन तथा प्रज्ञा । सरकारपुरस्कारः शय्या चा वधो निषद्या स्त्री ।।२०७।। द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततम् ।
संक्लेशमुक्तमनसा सक्लेशनिमित्तभीतेन ॥२०८।। विशेषकम् । अन्वयाथों - [ संवलेशमुक्तमनसा ] संक्लेशरहित चित्तवाले' और [ संक्लेशनिमित्तमातेन ] संक्लेश निमित्तसे प्रर्थात् सस रसे भयभीत साधु करके [सततम् निरन्तर ही [क्षुत्] क्षुधा, [तृष्णा तृषा, [हिमम्] शीत, [ उपरण ] उष्ण. [ नग्नत्वं ] नग्नता, [ याचना ] प्रार्थना, [ अरति ] अरति, [अलाभः ] अलाभ, [ मशकादीनां दंशः ] मच्छरादिकोंका काटना [प्राक्रोशः ] कुवचन, [व्याधिदु:खम्] रोगका दुःख, [अङ्गमलम्] शरीरका मल, [तृणादीनां स्पर्शः] तृणादिकका स्पर्श [अज्ञानम्] प्रज्ञान, [ प्रदर्शनं ] प्रदर्शन, [ तथा प्रज्ञा ] इसो प्रकार प्रज्ञा, [ सत्कारपुरस्कारः ] सत्कार, पुरस्कार, [ शय्या ] शयन, [चर्या ] गमन, [वधः ] वध, [निषद्या ] बैठना, [च ] और [ स्त्री ] स्त्री [ ऐते ] ये [ द्वाविंशतिः ] बावीस [ परीषहाः ] परीषह [ अपि ] भी [परिषोढव्याः] सहन करने योग्य हैं।
भावार्थ-उपर्युक्त बावीस परीषहोंका जीतना मुनियोंका परम कर्तव्य है। इन परीषहों अर्थात् उपसर्गों के सहनेसे मुनि अपने मार्ग में निश्चल रहता है, और क्षण क्षणमें अनन्त कर्मोंकी निर्जरा करता है । परीषहोंके सहनमें किसी प्रकार कायरता धारण नहीं करना चाहिये और यदि चित्त किसी प्रकार कायर होनेके सम्मुख होवे तो वस्तुके यथार्थ स्वरूपको विचारकर (जैसा प्रत्येक परीषहके वर्णनमें बतलाया जावेगा) उसे उसी समय सुदृढ़ करना चाहिये । परीषहोंका जय किये विना चित्तकी निश्चलता नहीं होती, चित्तकी निश्चलता विना ध्यानावस्थित नहीं हो सकता। ध्यानावस्थित हुए धिना कम दग्ध नहीं हो सकते और कर्मोके दग्ध हुए विना मोक्षकी प्राप्ति असंभव है। अतएव मोक्षाभिलाषी और संसार-दुःखसे भयभीत मुनियोंका पूर्णरूपसे औरगृहस्थोंका यथाशक्ति परीषह जय करना परम कर्तव्य है।
१-क्षुधापरीषहजय-भूख की वेदना होनेपर उसके वशवर्ती न होकर दुःख सह लेनेको कहते है। जिस समय मुनिको क्षुधाकी तीव्र वेदना होवे, उस समय उन्हें सोचना चाहिये, कि हे जीव ! तूने अनादि कालसे संसार परिभ्रमणकरके अनन्त पुद्गल समूहोंका भक्षण किया तो भी तेरी भूख न गई ! तुने नरक गनिमें सी तीव्र क्षधावेदना सही है, कि जिसको मुनकर चकित होना पड़ता है। अर्थात् तुझे वहाँ मुमेरु पर्वतके बराबर अन्नराशि भक्षण करने योग्य क्षुधा थी, परन्तु एक कणम त्र भी नहीं मिलता था ! मनुष्य तिर्यञ्चगति में बंदीगृहमें पड़े पड़े तूने अनन्त बार क्षधा सहन की है, फिर अब मुनिव्रतको ग्रहण करके अत्यन्त स्वाधीन वृत्तिको धारण करते हुए भी तू इस अल्प वेदनासे कायर होता है ? देख, अन्य मुनीश्वर पक्षोपवास मासोपवास कर रहे हैं, उन्हें झुधाका दुःख नहीं है, फिर तुझे क्यों होना चाहिये ? अब अनन्त बार किये हुए भोजनकी लालसा छोड़कर ज्ञानामृतका भोजन करना नाहिये । इत्यादि विचारकर क्षुधाजनित दुःखको सह लेना सो क्षध परीषहजय है ।
१-अर्थात् जिसके चित्तमें क्लेश नहीं है।
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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम
[५-बाईस परीषह १२-तृषापरोषहजय-प्यासकी असह्य वेदना होनेपर उसके वशीभूत होकर जल-पानादि न करके दुःख सह लेने को कहते हैं । उष्णताकी पुज ग्रीष्मऋतुमें पहाड़के शिखरपर आरूढ़ मुनिको उपवासोंकी तीव्र उष्णतासे जिस समय तृषावेदना होती है, उस समय वे विचारते हैं:-हे जीव ! तूने संसारमें अनेक बार जन्म धारण करके अनेक बार अनेक गतिमें अतिशय दुःसह तृषा वेदनाका सहन किया है, फिर इस थोडीसी वेदनासे कायर क्यों होता है ? मुनिकी स्वतंत्र सिंहवृत्तिका आचरण करके कायर होना लज्जाकी बात है । जगतपुज्य इस मुनि अवस्थामें दुर्लभ ज्ञान-पोयूषका पान कर ।
३-शीतपरीषहजय-शीतका कष्ट सहन करनेको कहते हैं। जिसमें हवाके एक झोंकेसे जगतके जीवोंकी शरीरयष्टि थर-थर कांपने लगती है, सरोवरोंके जल जिसके डरसे पत्थर (बर्फ) हो जाते हैं । हरित वृक्षोंके समूह तथा कमल-वन जिस समय तुषारसे जल जाते हैं। तेल, अग्नि, ताम्बूलादि उष्ण पदार्थों का सेवन करते हुए भी मनुष्य घरमेंसे बाहिर नहीं हो सकते, ऐसी हेमन्तऋतुमें सरित सरोवरादि जलाशयोंके किनारे कायोत्सर्ग अथवा पद्मासनस्थित मुनिवरोंको जव शीत सताता है, तब वे विचार करते हैं:-हे जीव ! तूने छ8 सातवें नरक प्रदेशकी उस महाशीत वेदनाको सहन किया है, जिसकी तुलना करनेसे यह उपस्थित वेदना सुमेरुके सम्मुख एक अणुके तुल्य है। यदि तू इस महा मुनिवृत्तिको धारणकर इसे जीत लेगा, तो सदा के लिये इससे छटकारा हो जावेगा। नहीं तो फिर इससे भी दुस्सह शीत अनन्त संसारमें अनन्त बार सहना पड़ेगा।
४-उष्णपरीषहजय-उष्णताका संताप सहने को कहते हैं। जिसमें समस्त संसार तप्त तवेके समान हो जाता है, यावन्मात्र जीव व्याकुल हो जाते हैं जगलके महाहिंसक पशु सिंह और हरिण न्याकुलताके कारण वैरभावको छोड़कर एक स्थानमें पड़े रहते हैं, जलाशयोंके जल सूख जाते हैं, गर्म लूकोंके (लूये) चलनेसे वृक्ष कुम्हला जाते हैं, ऐसे प्रचण्ड ग्रीष्मकाल में मुनिजन पर्वतोंकी उच्च शिखरों की शिलानोंपर स्थित होते हैं और ज्ञानामृतकी शीतलतासे उष्ण वेदनाका शमन करते रहते हैं।
५-नग्नपरीषहजय-रेशम, ऊन, सूत, घास, वृक्ष, चर्मादिकके किसी प्रकारके वस्त्र न रखकर दशों दिशाओंके वस्त्र धारणकर भयंकर वन में एकाकी नग्न रहनेको पौर कायसम्बन्धी विकारोंके न होने देनेको कहते हैं।
६-याचनापरीषहजय-किसीसे किसी भी प्रकारकी याचना न करनेको कहते हैं। याचनासे समस्त संसारी जीव दीन हो रहे हैं । महावैभव तथा ऋद्धिसम्पन्न इन्द्र भी अभिलाषावश रंक हो रहे हैं, परन्तु मुनि अयाचीक व्रतके धारण करनेवाले हैं। वे किसीसे भोजन धर्मापकरणादि वस्त्र तो क्या तीर्थंकरदेवसे मोक्ष भी नहीं मांगते । इसीसे वे सर्वोत्कृष्ट हैं।
७-अरतिपरीषहजय-संसारके समस्त इष्ट अनिष्ट पदार्थों में संसारी जीव राग द्वेष मानते हैं । ऐसा न करके मन्दिर और वन, शत्रु और मित्र, कनक और पाषाण, सबमें समता भाव धारण करने को तथा रति अरति रूप परिणाम न करनेको अरतिपरीषहजय कहते हैं ।
८-अलाभपरीषहजय- अनेक उपवासोंके अनन्तर नगरमें भोजनार्थ जानेपर निर्दोष माहारादि न मिलनेसे खेदित न होनेको कहते हैं ।
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श्लोक २०८
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
६- दंशमशका परीषहजय - भयंकर वनमें नग्न शरीर पाकर नाना ऋतुके नानाप्रकारके डांस, मच्छर, पिपीलिका, मक्खी, कानखजूरे, सर्पादि जीव लिपट जाते हैं, उनकी व्ययासे खेदित न होकर ध्यानावस्थित रहने को कहते हैं ।
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१० - श्राक्रोशपरीषहजय - मुनिकी महादुर्धर नग्न दिगम्बरावस्थाको देखकर दुष्ट जन नाना प्रकारके कुवचन कहते हैं । पाखंडी और ठग, निर्लज्ज आदि कहकर गालियां देते हैं । ऐसे समय में किञ्चिन्मात्र भी क्रोधित न होकर महाक्षमा धारण करने को कहते हैं ।
.११ - रोग परीषहजय - इन क्षणस्थायी शरीर में उदरविकार, रक्तविकार, चर्मविकार, तथा वायु पित्त कफ जनित विकार आदि अनेक विकार उत्पन्न होते हैं । उनके उत्पन्न होनेपर ' खदित न होके तज्जनितपीड़ा सहन करते हुए स्वतः रोग शमन के उपाय न करनेको रोगपरिषहजय कहते हैं ।
१२ - मलपरीषह जय - संसारके जीवोंके शरीर में पमीना ग्राकर रंचमात्र भी रज बैठ जावे, तो वे खेद करते हैं और स्नानादि सुखनिमित्तक उपाय करते हैं, ऐसा न करके ग्रीष्मकी धूपसे प्रवाहित पसीनेपर अनन्त रज बैठ जानेपर अर्थात् शरीरके महा मलनि हो जानेपर भी स्नान विलेपनादि नहीं करके चित्त निर्मल रखनेको मलपरीषहजय कहते हैं। इस परीषहका जय करते समय मुनि चिन्तवन करते हैं, कि हे जीव ! यद्यपि यह शरीर इतना मलिन है, कि सारे समुद्रके जलसे धोया जावे तो भी पवित्र न होवे, परन्तु तू महा निर्मल प्रमूर्तिक शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, तुझसे मूर्तिक मलिन पदार्थों का संसर्ग ही नहीं हो सकता, अतएव देह-स्नेह छोड़ करके आपमें स्थिर हो ।
१३- तृरणस्पर्शपरीषहजय - जगत् के जीव जरासी फाँसके लग जानेपर दुखी होते हैं, और उसके " निकालने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा न करके तृण, कंटक, कंकर, फाँस, प्रादि शरीर में चुभ जानेपर खेद- खिन्न न होनेको और उनके निकालने का उपाय न करनेको तृणस्पर्शपरीषहजय कहते हैं !
१४ - श्रज्ञानपरीषहजय - ज्ञानावरणीयकर्म के उदयसे चिरकाल तपश्चर्या करनेपर भी श्रुतज्ञान न होनेपर स्वत: खेद न करनेको और ऐसी अवस्था में अन्य जनोंसे, अज्ञानी प्रादि मर्मभेदी वचन सुनकर दुःखित न होने को प्रज्ञानपरीषहजय कहते हैं ।
१५ - प्रदर्शन परीषहजय - संसारीजीव समस्त कार्य प्रयोजन रूप करते हैं और प्रयोजनमें थोड़ी भी न्यूनता देखने पर क्लेशित होते हैं । ऐसा न करके बहुकाल उग्रतप करनेपर यदि किसी प्रकार के ऋद्धि; सिद्धि आदि प्रकट करने वाले अतिशय प्रकट न हुए हों, तो संगमके फल में रंचमात्र भी शंका न करके खेद - खिन्न न होकर अपने मार्गमें स्थित रहनेको और सम्यग्दर्शनको दूषित न करनेको प्रदर्शन परीषहजय कहते हैं ।
१६ - प्रज्ञापरीषहजय - बुद्धिका पूर्ण विकास होनेपर किसी प्रकारके मान न करनेको कहते हैं । १७- सत्कारपुरस्कारपरोषहजय-देव, मनुष्य, तिर्यञ्चादि सब ही जीव अपना आदर सत्कार चाहते हैं, श्रादर करनेवालेको अपना मित्र औौर न करनेवालेको शत्रु समझते हैं, ऐसा न करके सुरेन्द्रा
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भीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम
[५-बाईस परीषह दिक महद्धिक देवोंसे सत्कार करनेपर प्रौर अविवेकी क्षुद्र जीवोंसे तिरस्कृत होनेपर हर्ष विषाद न करके समान भाव धारण करनंको सत्कार पुरस्कार परीषहजय कहते हैं।
१८-शय्यापरीषहजय-खुरदरी, पथरीली काँटोंसे भरी हुई भूमिमें शयन करके दुखी न होनेको कहते हैं।
१९-च-परीषहजय-किसी प्रकारकी सवारीकी इच्छा न करके मार्गके कष्टको न गिनकर भूमिशोधन करते हुए गमन करनेको कहते हैं।
२०-बधबंधनपरीषहजय- दुष्ट मनुष्योंद्वारा बधबंधनादि दुःख उपस्थित होनेपर उन्हें समता पूर्वक सहन करनेको कहते हैं।
२१-निषद्यापरीषह जय-निर्जन वनोंमें. हिंसक जीवोंके निवास स्थानोंमें, व्यन्तरादि देवोंके स्थानोंमें, अंधकारयुक्त गुफाओं में, और स्मशानभूमियोंमें रहकर भी दुःख न माननेको कहते हैं।
२२-स्त्रीपरीषहजय-महासुन्दर, स्त्रियोंकी हाव भाव भ्र कटाक्षादि चेष्टाओंसे पीड़ित न होनेकी कहते हैं।
इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन ।
परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता । २०६ ॥ अन्वयार्थी-[इति] इस प्रकार [एतत्] पूर्वोक्त [रत्नत्रयम्] सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्वचारित्ररूप रत्नत्रय [ विकलम् ] एक देश [ अपि ] भी [ निरत्ययां ] अविनाशी [ मुक्तिम् ] मुक्तिको [ अभिलषता ] चाहनेवाले [ गृहस्थेन ] गृहस्थ के द्वारा [ अनिशं ] निरन्तर [ प्रतिसमयं ] समय समयपर [ परिपालनीयम् ] परिपालन करने योग्य है।
भावार्थ-इस मोक्ष प्रतिपादक ग्रन्थमें अभीतक सकल और विकलरूप दो प्रकारके रत्नत्रयका स्वरूप वर्णन किया गया है', अब कहते हैं, कि सकलरत्नत्रय मुनिका धर्म है, और विकलरत्नत्रय गृहस्थका धर्म है, परन्तु साक्षात् परम्पराको अपेक्षा ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं, बन्धके कारण नहीं हैं । इसलिये मोक्षाभिलाषी गृहस्थको सकल न सध सके, तो विकलरत्नत्रयका सेवन करना चाहिये ।
बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य ।
पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ॥ २१०।। अन्वयार्थी-[च ] और यह विकलरत्नत्रय [नित्यं] निरन्तर [ बद्धोद्यमेन ] उद्यम करने में तत्पर ऐसे मोक्षाभिलाषी गृहस्थद्वारा [बोधिलाभस्य] रत्नत्रयके लाभके [समयं] समयको [लब्ध्वा] प्राप्त करके तथा[ मुनीनां] मुनियोंके [पदम्] चरण [अवलम्ब्य] अवलम्बन करके [सपदि] शीघ्र ही [ परिपूर्णम् ] परिपूर्ण [ कर्तव्यं ] करने योग्य है।
भावार्थ-विवेकी जीव गृहस्थाचारमें रहकरके भी सांसारिक भोग-विलासोंसे विरक्त तथा
१-प्रथम तीस कारिकानोंमे दर्शन प्रकरण, फिर छह श्लोकोंमें ज्ञानाधिकार, एकसौ आठ प्रार्या छन्दों में देशचारित्र और पश्चात बारह प्रार्या छन्दोंमें सकलचारित्रका स्तवन है। इसप्रकार २०८ कारिकाओंमें रत्नत्रयका स्वरूप वणित है।
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श्लोक २०६-२१४ ]
पुरुषार्थसिद्धय् पायः ।
मोक्षमार्ग में गमन करने में उद्यमवन्त कहते हैं, उन्हें चाहिये कि वैराग्य प्राप्तिका अवसर पाकर मुनिपद धारण कर लेवें, और पूर्वसाधित अपूर्ण रत्नत्रयको पूर्ण कर लेवें ।
समग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः ।
स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ।। २११ ।।
श्रन्वयार्थी" - [ श्रसमग्रं ] सम्पूर्ण [ रत्नत्रयम् ] रत्नत्रयको [ भावयतः ] भावन करनेवाले पुरुषके [ यः ] जो [ कर्मबन्धः ] शुभकर्मका बंध [ श्रस्ति ] है, [ स ] सो बंध [ विपक्षकृतः ] विपक्ष - कृत या बंघरागकृत' होनेसे [ श्रवश्यं ] प्रवश्य ही [ मोक्षोपायः ] मोक्षका उपाय है, [ बन्धनोपायः ] बंघका उपाय [न] नहीं।
भावार्थ - विकलरत्नत्रय में शुभभाव के प्रादुर्भाव से जो पुण्य प्रकृतिका बंध होता है, वह मिथ्यादृष्टिकी नाई संसारका कारण नहीं है, किन्तु परम्परासे मोक्षका कारण है ।
शेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। २१२ ।।
६७
येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तू रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। २१३ ।।
येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। २१४ ।।
[ त्रिभिविशेषकस् ]
श्रन्वयार्थी - [ श्रस्य ] इस ग्रात्मा के [ येनांशेन ] जिस अंशसे [ सुदृष्टि: ] सम्यग्दर्शन है, [ तेन ] उस [ [ अंशेन ] श्रंशसे [ बन्धनं ] बन्ध [ नास्ति ] नहीं है, [तु ] तथा [ येन ] जिस [ श्रंशेन ] अंशसे [ अस्य ] इसके [ रागः ] राग है, [ तेन ] उस [ श्रंशेन ] अंशसे [ बन्धनं ] बन्ध [ भवति ] होता है । [ येन ] जिस [ श्रंशेन ] अंशसे [ अस्य ] इसके [ ज्ञानं ] ज्ञान है, [ तेन ] उस [ अंशेन ] अंशसे ] बन्धनं ] बन्ध [ नास्ति ] नहीं है [ तु ] और [ येन ] जिस [ श्रंशेन ] अंशसे [ रागः ] राग है, [ तेन ] उस [ श्रंशेन ] अंशसे [ अस्य ] इसके [ बन्धनं ] बन्ध [ भवति ] होता है। [येन ] जिस [ श्रंशेन ] श्रंशसे [ अस्य ] इसके [ चरित्रं ] चारित्र है, [ तेन ] उस [ श्रंशेन ]
से [ बन्धनं ] बन्ध [ नास्ति ] नहीं है, [ तु ] तथा [ येम ] जिस [ श्रंशेन ] प्रंशसे [ रागः ] राग है, [ तेन ] उस [ श्रंशेन ] अंशसे [ श्रस्य ] इसके [ बन्धनं ] बन्ध [ भवति ] होता है ।
१ - रत्नत्रयकृत नहीं । १३
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- श्रीमद् रामचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम [५-प्रात्माका रागसे बंध भावार्थ-यात्मविनिश्चयप्रकाशक प्रात्मपरिज्ञानसे आपके द्वारा आपमें ही स्थिर होना इसका नाम अभेद (सकल) रत्नत्रय है, फिर इस प्रकारकी बुद्धि परिणतिमें बंधका अवकाश कहाँ ? बंध तो तब होता है, जब इस परणतिसे विपरीत होकर परिणमन करता है । अर्थात् इससे यह सिद्धान्त सिद्ध हुमा, कि जिन अंशोंसे यह प्रात्मा अपने स्वभावरूप परिणमन करता है, वे अंश सर्वथा बंधके हेतु नहीं हैं; किन्तु जिन अंशोंसे यह रागादि विभावरूप परिणमन करता है, वे ही अंश बंधके हेतु हैं ।
योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात् ।
दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ॥२१५।। अन्वयाथों-[ प्रदेशबन्धः ] प्रदेशबन्ध' [योगात्] मन, वचन, कायके व्यापारसे [तु] तथा [ स्थितिबन्धः ] स्थितिबन्ध [ कषायात् ] क्रोधादिक कषयोंसे [भवति ] होता है, परन्तु [ दर्शनबोधचरित्रं ] सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय [ न ] न तो [ योगरूपं ] पोगरूप हैं [च ] और न [ कषायरूपं ] कषायरूप ही हैं।
भावार्थ-संसारी आत्माकी मन, वचन, कायकी हलन-चलनरूप क्रियाको योग कहते हैं । इस योगकी क्रियासे पासवपूर्वक प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है, और राग द्वेष भावोंकी परणतिको कषाय कहते हैं । इसके अनुसार स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध होता है । यथा-सयोगकेवलीके योगक्रिया से सातावेदनीका समयस्थायीबन्ध है, स्थितिबन्ध नहीं है। क्योंकि उनके कषायका सद्भाव नहीं है। प्रतएव सिद्ध हुपा कि योगकषाय ही बन्धके कारण हैं, सो रत्नत्रय न तो योगरूप ही है, और न कषायरूप ही है, फिर बन्धका कारण कैसे हो सकता है ?
ऊपर कह चुके हैं कि, जीवके प्रदेशों में हलन चलनरूप क्रियाविशेषको योग कहते हैं इन योगदारोंसे कर्मोंका पात्रव होता है, और पश्चात कर्मके योग्य पुद्गलोंके ग्रहणसे जीव और कर्मपुद्गलोंके
कक्षेत्रवगाहरूप स्थित होनेको बन्ध कहते हैं। यह बंध चार प्रकारका है-स्थितिबंध, अनुभाग उन्ध, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंध । बन्धोंके उक्त भेदोभेद जाननेके पहिले हमको चाहिये, कि कर्मपुद्गलोंको जिनसे कि बन्ध होता है, अच्छी तरह जान लें। ये कर्म पुद्गल आठ प्रकारके हैं -१ ज्ञानावरणी', २ दर्शनावरणी, ३ वेदनी' ४ मोहनी, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और ८ अन्तराय । ज्ञानावरणीकर्मका स्वभाव परदेके समान है। जिस प्रकार परदा पड़ जानेसे पदार्थको यथार्थ नहीं देखने देता, उसी प्रकार जानावरणी कर्म पुद्गल प्रात्माके प्रदेशोंसे सम्बन्ध करके तत्त्वज्ञान नहीं होने देता। वर्शनावरणीका स्वभाव द्वारपाल के समान है, अर्थात जिस प्रकार द्वारपाल परका दर्शन नहीं होने देता, इसी प्रकार दर्शनावरणीकर्मपुद्गल आत्मासे सम्बन्ध करके प्रात्मा श्रद्धान नहीं करने देता, वेदनीका स्वभाव शहद नपेटी तीक्ष्ण असिधारके समान है, अर्थात् जैसे छरी चाटमेसे मीठी लगती है, परन्तु अन्तमें जीभका
१-प्रदेशबन्धसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध दोनोंका ग्रहण किया है। २-स्थितिबन्धसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध दोनोंका ग्रहण किया है। ३-'कायवाङ्गमनःकर्मयोगः' इति वचनात् ।
४-इनमें से चार कर्मोकी घातियाकर्म और आयु नामादि चारकी अघातियाकर्म संज्ञा है, क्योंकि पातियाकर्मोका क्षय होचकनेपर अघातियाकर्म बलहीन हो जाते हैं।
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श्लोक २१५-१६ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
छंदन करती है, उसी प्रकार वेदनीयकर्म थोड़े समय के लिये साता दिखाकर अन्तमें असाता से पीड़ित रहता है। मोहनीयका स्वभाव मदिरा शराब ) के समान है, अर्थात् जिस प्रकार मदिरा जीवोंको सावधान कर देती है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म म्रात्माको संसार में पागल सा बना देता है । आयुका स्वभाव खोड़े के समान है, जैसे खोड़ेमें ( काठमें ) चोर प्रादिका पाँव अटका देते हैं, और जिस प्रकार काठके रहते चोर श्रादि निकल नहीं सकते, उसी प्रकार प्रयुकर्म के पूर्ण हुए विना नरकादिकसे नहीं निकल सकते । नामका स्वभाव चित्रकारके समान है अर्थात् जिस प्रकार चित्रकार नाना प्रकारके श्राकार बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म प्रात्मासे सम्बन्ध करके नाना प्रकार मनुष्य तिर्यञ्चादि बनता है । गोत्रका स्वभाव कुम्भकारके समान है, प्रर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार छोटे बड़े नाना प्रकार के बर्तन बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म उच्च नीच गोत्रों में उत्पन्न करता है और अन्तिम अन्तरायका स्वभाव उस राजभंडारीके समान है, जो राजाके दिलानेपर भी किसीको दान नहीं देता, जैसे भंडारी भिक्ष ुकोंको लाभ नहीं होने देता, वैसे अन्तरायकर्म दान लाभादिमें प्रन्तराय डाल देता है ।
आठों कर्मोंका स्वरूप भलीभाँति हृदयाङ्कित करके अब जानना चाहिये, कि कर्मोंका उपर्य ुक्त स्वभावके सहित जीवके सम्बन्ध होने को प्रकृतिबन्ध कहते हैं । पृथक् पृथक् कर्मपरमाणुमों का पृथक् पृथक् मर्यादाको लिषे स्थिति होने को स्थितिबन्ध कहते हैं। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनी और प्रन्तराय कर्मों की स्थिति तीस कोड़ा कोड़ीसाग रकी तथा मोहनीयके दो भेद दर्शन मोहनीय, चारित्रमोहनीय, इनमें से दर्शन मोहनीय सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा चारित्रमोहनीयकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरकी और नामगोत्रकर्मकी बीस कोडाकोड़ी सागरकी और प्रायुकमंकी तेतीस ' सागरकी होती है । यह सम्पूर्ण कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, और जघन्य स्थिति अर्थात् कमसे कम मर्यादा वेदनीयकी बारह मुहूर्त तथा नाम गोत्रकी आठ मुहूर्त की है । अवशेष सबकी प्रन्तमुहूर्त की है ।
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उपर्युक्त प्राठों कर्मो के विपाक होनेको अर्थात् उदयमें श्राकार रस देनेको अनुभागबन्ध कहते हैं। यह विपाक शुभविपाक और प्रशुभविपाक ऐसे दो भेदरूप है। नीम, कांजी विष और हालाहल इन चारोंकी कटुता तथा गुड़, खांड़ मिश्री, प्रमृतकी मधुरता जिस प्रकार उत्तरोत्तर अधिक है, उसी प्रकार शुभविपाकका और शुभविपाकका रस भी उत्तरोत्तर अधिक होनेसे अनेक भेदरूप होता है ।
आत्मा के प्रसंख्य प्रदेश हैं । इन श्रसंख्य प्रदेशों में से एक एक प्रदेशपर अनन्तानन्त कर्म्मवर्गणाओ के श्रर्थात् बंधजीव के प्रदेशों, और पुद्गल के प्रदेशोंके एक क्षेत्रावगाही होकर स्थिर होनेको प्रदेशबन्ध कहते हैं । यह चारों प्रकार के बंघका संक्षित स्वरूप है । इन्हीं चारोंमेंसे प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध योगोंसे और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायों से होता है ।
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ।। २१६ ।।
१ - तेतीस सागरसे अधिक आयु किसी भी जीवकी किसी भी गतिमें नहीं है ।
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भीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [५-चार प्रकार के बंधका स्वरूप अन्वयाथौं- [प्रात्मविनिश्चतिः ] अपनी प्रात्माका विनिश्चिय [ दर्शनम् ] सम्यग्दर्शन, [प्रात्मपरिज्ञानम्] आत्माका विशेष ज्ञान [बोधः] सम्यग्ज्ञान, और [प्रात्मनि] आत्मामें [स्थितिः] स्थिरता [चारित्रं] सम्यक्चारित्र [इष्यते] कहा गया है, तो फिर [ एतेभ्यः 'त्रिभ्यः' ] इन तीनोंसे [ कुतः ] कैसे [ बन्धः ] बंध [ भवति ] होता है।
भावार्थ-चेतनालक्षणयुक्त अनन्तगुणात्मक प्रात्माका, स्वतत्त्वविनिश्चियरूप चेतनापरिणाम सम्यग्दर्शन है, विनिश्चत पात्मा परिचयरूप चेतनापरिणाम सम्यग्ज्ञान है और उक्त परिचित आत्मामें निराकुल स्थिरतारूप चेतनापरिणाम सम्यकचारित्र्य है । इस प्रकार अभेदरत्नत्रयी प्रात्मस्वभावसे बंध होनेकी संभावना कैसे की जा सकनी है ? नहीं की जाती। क्योंकि भिन्न वस्तुसे बंध होता है, अभेदरूपसे नहीं।
सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः । योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदा सोऽपि दोषाय ॥ २१७ ।।
अन्वयाथों-- [अपि ] और [तीर्थकराहारकर्मणो] तीर्थंकर प्रकृति और आहार प्रकृतिका [ यः ] जो [ बन्धः ] बन्ध [सम्यक्त्वचरित्राभ्यां ] सम्यक्त्व और चारित्रसे [ समये ] प्रागममें [उपदिष्टः ] कहा है. [ सः ] वह [ अपि ] भी [ नयविदां ] नयवेत्ताओंको [ दोषाय ] दोषके लिये [ न ] नहीं है।
भावार्थ-तीर्थंकर प्रकृतिका बंध चतुर्थ गुणस्थानसे आठवें गुणस्थानके छ8 भागतक तीनों सम्यक्त्वोंसे होता है और आहारप्रकृतिका बंध चारित्रसे होता है, यद्यपि ऐसा श्रुतकेवलीप्रणीत शास्त्रोंमें नियम है, तो भी नयविभागके ज्ञाता इस कथनको अविरुद्ध समझते हैं। क्योंकि अभूतार्थनयकी अपेक्षा वो सम्यक्त्व और चारित्र बंधके करने वाले होते हैं, परन्तु भूतार्थनयकी अपेक्षा सम्यक्त्वचारित्र बंधके कर्ता नहीं होते। बंधके कर्ता पूर्वोक्त योग कषाय ही हैं। और भी:
सम्यक्त्व दो प्रकारका है एक सरागसम्यक्त्व और दूसरा वीतरागसम्यक्त्व । सरागसम्यक्त्व किचित् रागभावयुक्त और वीतरागसम्यक्त्व रागभावसे विमुक्त है, सुतरां तीर्थ कर व आहारकप्रकृतिका बध सरागसम्यक्त्व में राग भावके मेलसे होता है, वीतराग सम्यक्त्वमें नहीं।
सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारबन्धको भवतः ।
योगकषायो नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥ २१८ ।। अन्वयाथों-[ यस्मिन् ] जिसमें [ सम्यक्त्वचरित्रे सति ] सम्यक्त्व और चारित्रके होते हुए [ तीर्थकराहारबन्धको ] तीर्थकर और पाहारकप्रकृति के बंध करनेवाले [ योगकषायौ ] योग और कषाय [ भवतः ] होते है, [ पुनः ] और [ असति, न ] नहीं होते हुए नहीं होते हैं, अर्थात् सम्यक्त्व चारित्रके विना बंधके कर्ता योग कषाय नहीं होते [ तत् ] वह सम्यक्त्व और चारित्र [ अस्मिन् ] इस बधमें [ उदासीनम् ] उदासीन है।
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लोक २१७-२२१ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
१०१
मावार्थ – सम्यक्त्व और चारित्र विद्यमान योग- कषायोंसे तीर्थ कर श्रौर प्राहारक प्रकृतिके बंधक हैं, क्योंकि सम्यक्त्व चारित्र के विना यह बंध नहीं होता; परन्तु स्मरण रहे कि सम्यक्त्व तथा चारित्र इस बंधन तो कर्त्ता ही हैं, और न श्रकर्त्ता ही हैं, उदासीन हैं। जैसे महामुनियों के समीपवर्ती जातिविरोधी जीव अपना अपना वैर-भाव छोड़ देते हैं, परन्तु जानना चाहिये कि महामुनि इस वैरभाव त्यागरूप कार्यके न तो कर्त्ता ही हैं और न प्रकर्त्ता । कर्त्ता इस कारण नहीं हैं, कि वे योगारूढ़ उदासीन वृत्तिके धारक बाह्यकार्योंसे पराङमुख हैं । प्रकर्त्ता इस कारण नहीं हैं, कि यदि वे न होते, तो उक्त जीव - विरोध त्यागी भी नहीं होते, अतएव कर्त्ता प्रकर्त्ता न होकर उदासीन हैं, इसी प्रकार तीर्थ कर श्राहारकप्रकृतिबंधरूप कार्य में सम्यक्त्वचारित्रको जानना चाहिये ।
ननु कथमेवं सिद्धयति देवायुःप्रभृतिमत्प्रकृतिबन्धः । सकलजन सुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥ २१६ ॥
अन्वयार्थी - [ ननु ] शंका- कोई पुरुष शंका करता है कि [ रत्नत्रयधारिणां ] रत्नत्रयधारी [ मुनिवराणाम् ] श्रेष्ठ मुनियोंके [ सकल जनसुप्रसिद्धः ] समस्त जनसमूह में भलीभाँति प्रसिद्ध [ देवायुः प्रकृतिबन्धः ] देवायु आदिक उत्तम प्रकृतियोंका बन्ध [ एवं ] पूर्वोक्त प्रकार से [ कथम् ] कैसे [ सिध्यति ] सिद्ध होगा ?
भावार्थ - रत्नत्रयधारी मुनियोंके देवायु श्रादिक पुण्य प्रकृतियोंका बन्ध होता है, यह सब लोग अच्छी तरहसे जानते हैं, परन्तु अब आप जब रत्नत्रयको निर्बंन्ध सिद्ध कर चुके हैं, तब यह बतलाइये के इनके बंधका कारण क्या कोई और हैं अथवा यही रत्नत्रय है ? शिष्यका यह प्रश्न है ।
रत्नत्रयमिह हेतु निर्धारणस्यैव भवति नान्यस्य ।
प्रात्रवति यत्त पुण्यं शुभोवयोगोऽयरपराधः ।। २२० ।।
ܒ
प्रन्वयार्थी - [ इह ] इस लोक में [ रत्नत्रयम् ] रत्नत्रयरूप धर्म [ निर्वाणस्य एव ] निर्वाणका ही [ हेतु ] हेतु [ भवति ] होता है. [ अन्यस्य ] अन्य गतिका [ न ] नहीं, [तु ] और [ यत् जो रत्नत्रय में पुष्यं श्रास्रवति ] पुण्यका प्रास्रव होता है, सो [ अम् ] यह [ अपराधः ] अपराव [भोपयोगः ] शुभोपयोगका है ।
भावार्थ- पूर्व की प्रार्या में किये हुए प्रश्नका उत्तर है कि गुणस्थानोंके अनुसार मुनिजनोंके जहाँ रत्नत्रयकी श्राराधना है, वहाँ देव, गुरु, शास्त्र, सेवा, भक्ति, दान, शील, उपवासादि रूप शुभोपयोगका भी अनुष्ठान है । यही शुभोपयोगका अनुष्ठान देवायु प्रमुख पुण्यप्रकृति बंधका कारण है, अर्थात् इस पुण्यप्रकृतिबन्ध में शुभोपयोगका अपराध है, रत्नत्रयका नहीं । सांरांश - रत्नत्रय पुण्यप्रकृतिबन्धका भी कारण नहीं है ।
एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि ।
इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः ॥ २२१॥
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श्रीमद् राजचन्द्रर्जनशास्त्रमालायाम् [ ५- सम्यक्त्व भौर चारित्र बंधके कर्ता नहीं किन्तु उदासीन अन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ एकस्मिन् ] एक वस्तु में [ श्रत्यन्तविरुद्वकार्ययोः ] अत्यन्त विरोधी दो कार्यों के [ अपि ] भी [ समवायात् ] मेलसे [ तादृशः श्रपि ] वैसा ही [ व्यवहारः ] व्यवहार [ रूढिम् ] रूढिको [ इतः ] प्राप्त है, [ यथा ] जैसे [ इह ] इस लोक में "[ घृतम् घी [ दहति ] जलाता हैं" [ इति ] इस प्रकारकी कहावत है ।
१०२
भावार्थ - जैसे अग्नि दाहकरूप कार्यमें कारण है, और घृत अदाहरूप कार्यमें कारण है परन्तु जब इन दोनों अत्यन्त विरोधी कार्योंका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है; तब कहा जाता है, कि इस पुरुषको घुतने जला दिया । इसी प्रकार शुभोपयोग पुण्यबंधरूप कार्य में कारण है प्रौर रत्नत्रय मोक्षरूप कार्य में कारण है, परन्तु जब गुणस्थानकी चढ़न परिपाटीमें दोनों एकत्र होते हैं, तब व्यवहारसे संसार में कहा है कि रत्नत्रय बन्ध हुआ । यदि यथार्थ में रत्नत्रय बन्धका कारण मान लिया जावेगा तो मोक्षका सर्वथा प्रभाव ही हो जावेगा ।
सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ।।२२२ ।।
अन्वयार्थी - [ इति ] इस प्रकार [ एषः ] यह पूर्वकथित [ मुख्योपचाररूपः ] निश्चय और व्यवहाररूप [ सम्यक्त्वबोध चारित्रलक्षणः ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान मौर सम्यक्चारित्र लक्षणवाला [ मोक्षमार्गः ] मोक्षका मार्ग [ पुरुषम् ] ग्रात्माको [ परं पदं ] परमात्माका पद [ प्रापयति ] प्राप्त करता है ।
मावार्थ - अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टांग सम्यग्ज्ञान और मुनियोंके महाव्रतरूप आचरणको व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं, तथा अपने श्रात्मतत्त्वका परिज्ञान और आत्मतत्त्वमें ही निश्चल होनेको निश्चय रत्नत्रय कहते हैं। यह दोनों प्रकारका रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है। जिसमेंसे निश्चल रत्नत्रय समुदाय साक्षात् मोक्षमार्ग है, और व्यवहार रत्नत्रय परम्परा मोक्षमार्ग है । पथिकके ( बटोहीके) उस मार्गको जिससे कि वह अपने प्रभीष्ट देशको क्रमसे स्थान स्थानपर ठहरके पहुँचता है, परम्परामार्ग, और जिससे अन्य किसी स्थान में ठहरे विना सीधा ही इष्ट देशको पहुँचता है, उसे साक्षात् मार्ग कहते हैं ।
नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपघातः ।
गगनमिव परमपुरुष: परमपदे स्फुरति विशदतमः ।। २२३॥
अन्वयार्थी - [ नित्यम् प्रपि ] सदा ही [ निरूपलेपः ] कर्मरूपी रजके लेपसे रहित [स्वरूपसमवस्थितः ] अपने अनन्त दर्शन ज्ञानस्वरूप में भले प्रकार ठहरा हुआ [ निरुपघातः ] उपघातरहित ' [विशदतमः ] अत्यन्त निर्मल [ परमपुरुषः ] परमात्मा [ गगनम् इव ] आकाशकी तरह [ परमपदे ] लोकशिखर स्थित मोक्षस्थान में [ स्फुरति ] प्रकाशमान होता है ।
१- स्वभाव से किसी के द्वारा घात नहीं किया जाता ।
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श्लोक २२२-२२५ ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः भावार्थ-जिस प्रकार प्राकाश रजयुक्त नहीं होता, सदा अपने स्वभावमें स्थित रहता है, किसके द्वारा घाता नहीं जा सकता और अत्यन्त निर्मल होता है, उसी प्रकार या अपनी निरावरण निरवसान अनन्त शक्तिसे विराजमान स्वभावप्रात हाना है और प्रनन्तकाल तक सा है।
कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा ।
परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव ।। २२४ ॥ अन्वयाथों-[कृतकृत्यः ] कृतकृत्य [ सकलविषयविषयात्मा ) समस्त पदार्थ हैं विषयभूत जिनके अर्थात् सब पदार्थों के ज्ञाता [परमानन्दनि मग्नः] विषयानन्दसे रहित ज्ञानानन्दमें अतिशय मग्न [ज्ञानमयः ] ज्ञानमय ज्योतिरूप [ परमात्मा ] मुक्तात्मा [ परमपदे ] सबसे ऊपर मोक्षपदमें (सदैव] निरन्तर ही [ नन्दति ] अानन्दरूप स्थित है।
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्तो बस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ।। २२५ ॥
अन्वयाथी"- [ मन्थाननेत्रम् ] मथानीके नेताको [गोपो इव ] बिलोवनेवाली ग्वालिनीकी तरह [ जनो नोतिः ] जिनेन्द्र देवकी स्याद्वादनीति या निश्चय व्यवहाररूप नीति [ वस्तुतत्त्वम् ] वस्तुके 'वरूपको [ एकेन ] एक सम्यग्दर्शनसे [प्राकर्षन्ती | अपनी ओर खींचती है, [ इतरेण ] दूसरे प्रर्थात सम्यग्ज्ञानसे [ श्लथयन्ती' ] शिथिल करती है, और [अन्तेन] अन्तिम अर्थात् सम्यकचारित्रसे सिद्धरूप कार्यके उत्पन्न करनेसे [ जयति ] सबके ऊपर वर्तती है।
भावार्थ-जिस प्रकार दहीको बिलोवनेवाली ग्वालिनी मथानीकी रस्सीको एक हाथसे खींचती है. दूसरेसे ढीलो कर देती है, और दोनोंकी क्रियासे दहीसे मक्खन बनाने की सिद्धि करती है, उसी प्रकार जिनवाणीरूप ग्वालिनी सम्यग्दर्शनसे तत्त्वस्वरूपको अपनी और खींचती है, सम्यग्ज्ञानसे पदार्थके भावको ग्रहण करती है, पौर दर्शन ज्ञानकी आचरणरूप क्रियासे अर्थात् सम्यक्चारित्रसे परमात्मपद प्राप्तिकी सिद्धि करती है। अथवा:
अन्वयाथौं -[मन्थाननेत्रम् ] मथानीके नेताको [गोपी इव] ग्वालिनीके समान जो [ वस्तुतत्त्वम् ] वस्तुके स्वरूपकी [ एकेन अन्तेन ] एक अन्तसे अर्थात् द्रव्याथिकनयसे [आकर्षन्ती] अाकर्षण करती है. अर्थात् खींचती है, और फिर [ इतरेण ] दूसरे पर्यायाथिकनयसे [ श्लथयन्ती ] शिथिल करती है सो [ जैनी नीति ] जैनियोंकी न्यायपद्धति [ जयति ] जयवंती है।
१-सकलविषयविरतात्मा इत्यपिपाठः ( सम्पूर्ण विषयोंसे विरक्त, ऐसा भी पाठ है।) २-जो कुछ करना था सो कर चुके, अवशेष कर्तव्य कुछ नहीं।
३-संसारमें जो चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, अहमिन्द्रादि परस्पर बहुत सुखी हैं सो विषयानन्दकी अपेक्षासे हैं, परन्तु मुक्तात्मा प्रतीन्द्रिय ज्ञानानन्दसे सुखी है। ४-पक्षमें-शिथिल करती है। ५-"अन्त" शब्द पक्ष, सीमा, प्रान्त, अवसान मादि अनेक अर्थवाची है।
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श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ ५-रत्नत्रय मोक्षका कारण और ग्रंथकारकी लघुता०-२२६ भावार्थ - जिस नयके कथनका प्रयोजन द्रव्यसे हो उसे द्रव्यार्थिक और जिसका प्रयोजन पर्य्यायसे ही हो उसे पर्य्यायार्थिक नय कहते हैं । इन दोनों नयोंसे ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपका साधन होता है, अन्य मान्य न्यायोंसे वस्तुका साधन कदापि नहीं हो सकता । अब यहाँपर यह बतलाने के लिये, कि इन दोनोंसे जैनियों की नीति वस्तुस्वरूपका साधन किस तरह करती है, प्राचार्य्यं महाराजने एक विलक्षण उदाहरण दिया है, कि जिस तरह ग्वालिनी मक्खन वनानेरूप कार्यकी सिद्धि के लिये दही में मथानी चलाती है और उसकी रस्सीको जिस समय एक हाथसे अपनी ओर खींचती है, उस समय दूसरे हाथको शिथिल कर देती है और फिर जब दूसरे से अपनी ओर खींचती है, तब पहिलेको शिथिल करती है; एकके खींचनेपर दूसरेको सर्वथा छोड़ नहीं देती। इसी प्रकार जैनीनीति जब द्रव्यार्थिकनय से वस्तुका ग्रहण करती है, तब पर्य्यायार्थिकनयकी अपेक्षा वस्तु में उदानीन भाव धारण करती है, और जब पर्यायार्थिकनय से ग्रहण करती है, तब द्रव्यार्थिककी अपेक्षा उदासीनता धारण करती है, जिस किसीको सर्वथा छोड़ नहीं देता और अन्त में वस्तुके यथावत् स्वरूप कार्यकी सिद्धि करती है। जैनी जिस समय द्रव्यार्थिकको मुख्य मानके जीवका स्वरूप नित्य कहते हैं, उस समय पर्यायकी अपेक्षा उदासीन रूपसे अनित्य भी कहते हैं ।
१०४
वर्णैः कृतानि चित्रः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ।। २२६ ।।
अन्वयार्थी - [ चित्रः ] नाना प्रकारके [ वर्णै: ] अक्षरोंसे [ कृतानि ] किये हुए [ पदानि ] पद, [ पद: ] पदोंसे [ कृतानि ] बनाये गये [ वाक्यानि ] वाक्य हैं, [तु ] और [ वाक्यैः ] उन वाक्योंसे [ पुनः ] पश्चात् [ इदं ] यह [ पवित्रं ] पवित्र पूज्य [ शास्त्रम् ] शास्त्र [कृतं ] बनाया गया है, [ श्रस्माभिः ] हमने [ न 'किमपि कृतं' ] कुछ भी नहीं किया ।
भावार्थ- 'थकर्त्ता प्राचार्य अपनी लघुता प्रकट करनेके लिये कहते हैं कि प्रकारादि सम्पूर्ण अक्षर पौद्गलिक हैं, अनादि निधन हैं. इन्हींका जब विभक्त्यन्त समुदाय होता है, तब पद कहलाता है, तथा अर्थ सम्बन्धपर्यन्त क्रियापूर्ण पदोंका समूह वाक्य कहलाता है, और उन्हीं वाक्योंका वह एक समुदायरूप ग्रन्थ हो गया है। इसलिये इसमें मेरो कृति कुछ भी नहीं है, सब स्वाभाविक रचना है। शुभमस्तु ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिणां कृतिः पुरुषार्थसिद्धय पायोऽयं नाम जिनप्रवचन रहस्यकोषः समाप्तः ॥
१- इसी भावका श्लोक
वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां त पदावलिः । तु वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृ रिण न पुनर्वयम् ।। २३ ।। -- श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वार्थसार ।
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परिशिष्ट-१ पुरुषार्थसिद्धयं पायके श्लोकोंको वर्णानुक्रमणिका ।
......
TOTRA
..
श्लो) पृष्ठांक
६७-३७ १९३-८३
प्रक्रमकथनेन यतः अतिचारा सम्यक्त्वे प्रतिसंक्षेपाद् द्विविधः प्रत्यन्तनिशितधारं अथ निश्चित्तसचित्तौ अनवेक्षिताप्रमाजित अघ्र वमरणमेकत्व अनवरतमहिंसायां अनुसरतां पदमेतत् अबुधस्य बोधनार्थ अप्रादुर्भावः खलु अभिमानभयजुगुप्सा अमृतत्वहेतुभूतं प्ररतिकर भीतिकरं अर्कालोकेन विना अर्था नाम य एते प्राणा प्रवबुध्य हियहिंसक अनशनमवमौदर्य प्रवितीर्णस्य ग्रहणं अविधायापि हि हिंसा अविरुद्धा अपि भोगा अष्टावनिष्ट दुस्तर असदपि हि वस्तुरूपं असमग्र भावयतो घसमर्था ये कतुं प्रसिधेनुहुताशन प्रस्ति पुरुषश्चितात्मा
श्लोकांक पृष्ठांक
१६-१४ | प्रामास्वपि पक्वास्वपि १८१-७८ | आहारो हि सचित्तः ११५-५२
५६-३५ | इति यः परिमितिभोगैः ११७-५३ इति यो व्रतरक्षार्थं १९२-८३ | इति यः षोडशयामान् २०५-८८ | इतिरत्नत्रयमेतत् २६-२० इति नियमितदिग्भागे १६-१३ | इति विरतो बहुदेशात्
६-५ | इति विविधभङ्गगहने ४४-२६ | इत्थमशेषितहिंसः ६४-३६ | इत्यत्र त्रितयात्मनि ७८-४० | इत्येतानतिचारापरानपि ६८-४६ इदमावश्यकषटकं १३३-५७ इत्याश्रितसम्यक्त्वैः १०३-४८ इयमेकैव समर्था
६०-३५ | इह जन्मनि विभवादीन्य १६८-८५
उक्तन ततो विधिना ५१-३२ | उपलब्धिसुगतिसाधन १६४-६८ | उभयपरिग्रहवर्जन ।
७४-३६ __६३-४५ | ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग् २११-६७ १०६-४६ एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्य १४४-६१ एकस्मिन् समवायाद
एकस्य सैव तीव्र एकस्याल्पा हिंसा
एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती ४३-२८ एकः करोति हिंसा ३०-२१ एवं न विशेषः स्यादुन्दु ६८-३७ । एवमतिव्याप्तिः स्यात्
१६६-७० १८०-७८ १५७-६५ २०६-६६ १३८-५६ १४०-६० ५८-३४ १६०-६६ १३५-५८ १६६-८४ २०१-८७
३१-२१ १७५-७३ २४-१८
उ
१०२-४७,
१५६-६५
८७-४३ ११८-५३
16
१८८-८१
१६२-६७ २२१-१०१
५३-३३ ५२-३२ २२५-१०३
५५-३४ १२०-५३ ११४-५२
प्रात्मपरिणामहिंसन मात्मा प्रभावनीयो मामां वा पक्कां वा
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१०६
एवमयं कर्मकृतैर्भाव एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा एवं सम्यग्दर्शनबोध
श्लो० पृष्ठांक
२१६-६४ २०८-६३ ८६-४४
ऐहिकफलानपेक्षा
८८-४३ १५४-६४
७५-३६ २०४-८८ २७-२० ८०-४१
कर्तव्योऽध्यवसायः कन्दर्पः कौत्कुच्यं कस्यापि दिशति हिंसा कामक्रोधमदादिषु कारणकार्यविधानं किंवा बहुप्रल पितरिति को नाम विशति मोहं कृच्छण सुखावाप्तिर्भवन्ति कृतकारितानुमननै कृतकृत्यःपरमपदे कृतमात्मार्थं मुनये
परिशिष्ट-१ श्लो० पृष्ठांक
१४-११, दर्शनमात्मविनिश्चिति १४७-६२ द्वाविंशतिरप्येते २०-१४ दष्ट दृष्टापरं पुरस्तादशनाय
घ १६६-७१ धनलवपिपासितानां -
धर्मध्यानासक्तो वासर ३५-२५ | धर्ममहिंसारूपं १६०-८२ धर्मः सेव्यः क्षान्ति ५६-३४ धर्मोऽभिवर्धनीयः २८-२० धर्मो हि देवताभ्यः ३४-२४ १३४-५८ | नवनीतं च त्याज्यं प्रमषति ६०-४४ ननु कथमेवं सिद्धयति ८६-४३ | न विन प्राणविघातान्
७६-३६ । न हि सम्यग्व्यपदेशं २२४-१०३ | नातिव्याप्तिश्च तयोः
| निजशक्त्या शेषाणां
नित्यमपि निरुपलेपः ६५-४६ | निरतः कात्य॑निवृत्ती १७३-७२ | निधिं संसिध्येत् ३६-२५
| निश्चमुबुध्यमानो
निश्चयमिह भूतार्थ १६७-८५
नीयन्तेऽत्र कषाया ३६-२७ नैवं वासरभुक्तर्भवति
IT
महितमवद्य मंयुत गृतमागताय गुणिने ग्रन्थार्थोभयपूर्ण
२१६-१०१
६५-३६ ३८-२७ १०५-४८ १२६-५५ २२३-१०२
४१-२८ - १२२-५४ ५०-३२
५-५ १७६-७८ १३२-५७
चारित्रान्तर्भावात् तपोपि चारित्रं भवति यतः
छेदनताडनबन्धा छेदनभेदनमारणकर्षण
जिनपुङ्गवप्रवचने जीवकृतं परिणाम जीवाजीवादीनां जीवितमरणाशंसे
परदातृव्यपदेशः १८३-८०
परमागमस्य जीवं परिणममानस्य चित
परिणममानो नित्यं २००-८६ | परिधय इव नगराणि १२-१० पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो २२-१५ पापद्धिजयपराजय १६५-८४ पुनरपि पूर्वकृताया
पूज्यनिमित्त घाते १-२ पैशुन्यहासगर्भ १२४-५५ | पृथगाराधन मिष्टं
२१-१४ प्रविधाय सुप्रसिद्ध १३६-५६ | प्रतिरूपव्यवहार
१६४-८३
२-३ १३-११
१०-१ १३६-५८ १७१-७१ १४१-६. १६५-६६ ८१-४१ ६६-४६
३२-२४ १३७ ५८ १८५-८०
तज्जयति परं ज्योतिः तत्त्वार्थाश्रंद्धाने नियुक्त तत्रादौ सम्यक्त्वं तत्रापि च परिमाणं
.
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प्रविहाय च द्वितीयान् प्रागेव फलति हिंसा प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा प्रेष्यस्य संप्रयोजन
बद्धोद्यमेन नित्यं बरिङ्गादपि सङ्गात् बहुशः समस्तविरति बहुसत्त्वघातजनिता बहुवघातिनी बहुदु:ख। संज्ञपिताः
भूखननवृक्ष मोहन भोगोपभोगमूला भोगोपभोग साधनमात्र भोगोपतो: स्थावर हिसा
मधु मद्य नवनीतं मधुशलमपि प्रायो मद्य मांसं क्षौद्र मद्य मोहयति मनो
मरणान्तेऽवश्य महं मरणेऽवश्यं भाविनि
माणवक एव सिंह माधुर्य प्रीतिः किल दुग्धे मिथ्यात्व वेदरागात्
मिथ्योपदेशदान मुख्योपचार विवरण
मुक्तसमस्तारम्भः मूर्छालक्षणकरणात
यत्खलुकषाययोगात् यदपि किल भवति मांसं यदपि क्रियते किञ्चिन
यदिदं प्रमादयोगाद यद्वदरागयोगान्
यद्येवं तहि दिवा
यद्येव भवति तदा
यस्मात्सकषायः सन
'भ'
म
पुरुषार्थसिद्धय पाय
लो० पृष्ठांक १२५ - ५५
यानि तु पुनर्भवेयुः
या मूर्च्छा नामे युक्ताचरणस्य सतो येनांशेन चरित्रं येनांशेन सुदृष्टिम्
येनांशेन ज्ञानं
२१० - ६६ १२७-५६ |ये निजकलत्रमात्रं
१७- १३
८२-४१
८४-४२
८५ - ४२
५४-३३
१५५ - ६५ १८- ८२
१४३-६०
१६१-६७
१०१-४७
१५८-६६
योगात्प्रदेशबन्धः
योनिरुदुम्बरयुग्मं योऽपि न शक्यस्त्यक्त,
यो यतिधमं मकथयन्नु
यो हि कषायाविष्ट:
रत्नत्रयमिह हेतु निर्वाण रजनीदिनयोरन्ते
रसजानां च बहूनां
७१-३८ रक्षा भवति बहूनामेक ६६-३७ | रागद्व ेषत्याग न्निखिल ६१- ३५ राद्व ेषासंयममद
६२ - ३५ | रागादिवर्द्ध नानां १७६-७४ | रागाद्य दयपरत्वाद् १७७-७४ रात्रौ भुञ्जानानां
७-६ १२३-५४ | लोत्रयैकनेत्रं निरूप्य ११६-५२ | लोकशास्त्राभासे
१८४-८०
१५२-६४
११२ - ५१
वचनमनः कायानां
४-४ वर्णैः कृतानि चित्रैः
वस्तु सदपि स्वरूपात् गुप्तेर्नात्यनृतं न
३३ - २८ | वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्य ६६-३६ |विगलितदर्शनमोहैः १०६ - ५० विद्यावाणिज्यमषीकृषि
१-४४ विधिना दातृगुणवता
१०७-४६ विनयो वैयावृत्त्यं
१३१ - ५७
विपरताभिनिवेशं निरस्य
ब्यवहार निश्चयौ यः
११३ - ५१ ४७-३० | व्युत्थानावस्थायां
ल
१०७
पृष्ठांक
७३-३८
१११-५१
४५-२६
२१४-६७
२१२-६७
- २१३-६७
११०-५०
२१५-६८
-७२-३८
श्लो०
९२८-५६
१८-१३
१७८-७४
२२० - १०१
१४६-६३
६३-३६
८३-४२
१४८-६२
१७०-७२
१४५-६१
१३०-५६
१२६-५६
३-३ २६-१६
१६१-८२
२२६-१०४
६४-४५
१५६-६६
१८७-८१
३७-२६
१४२-६०
१६७-७०
१६६-८६
१५-१२
८-७
४६-३०
Page #133
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१०८
शङ्का तथैव काङ्क्षा धित्वा विविक्तवसति
श्लो० पृष्ठांक १६८-७०
७७-३६ २०७-६३ १८६-८१ ६२-४५ ७०-३७
सकलमनेकान्तात्मक सर्वविवतॊत्तीर्ण यदा स सति सम्यक्त्वचरित्रे सम्यक्त्वचारित्राभ्यां सम्यक्त्वबोधचारित्र सम्यग्गमनागमनं सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्ज्ञानं कार्य सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् सर्वानर्थप्रथमं मथनं सामायिकश्रितानां सामायिकसंस्कारं सूक्ष्मापि न खलु हिंसा सूक्ष्मौ भगवद्धमों
परिशिष्टे-१ श्लो० पृष्ठांक
संग्रहमच्चस्थानं पदोदक १८२-७६ | स्तोकैकेन्द्रियघाताद् १५३-६४ स्पर्शश्च तृणादीनाम
स्मरतीवाभिनिवेशो... २३-१८ स्वक्षेत्रकालभावःसदपि ११-१० स्वयमेव विमलितं यो २१८-१००
हरितृणाङ कुरचारिणि २१७-१००
हिंसातोऽनृतवचनात् २२२-१०२
हिंसापर्यायत्वात् २०३-८७
हिंसाफलंपरस्य तु २०२-८७
हिंसायामविरमण ३३-२४
हिंसायाः पर्यायी ६६-४६
हिंसायाः स्तेयस्य च १४६-६१
हिंस्यन्ले तिलनाल्यां १५०-६३
हेतौ प्रमत्तयोगे १५१-६३ ४६-३१ क्षुत्त ष्णाशीतोष्ण ७६-४० । क्षुत्त ष्णा हिममुष्णं
१२१-५४
४०-२८ ११६-५३ ५७-३४
४८-३१ १७२-७२ १.४-४८ १०८-५. १००-४७
२५-६६ २०६-६२
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परिशिष्ट-२
पुरुषार्थसिद्धय पायकी टोका और टिप्पणीमें उद्धत गाथानों,
श्लोकों, सूत्रों और दोहोंकी वर्णानुक्रमणिका ।
पृष्ठांक |
पृष्ठांक जइ जिणमयं पवज्जह
जौवितमरणाशंसा-उमास्वामि
८४ पं० पाशाधरकृत अनगारधर्मामृत-टीका ७ अतिक्रमो मानसशुद्धहानि
७६ | दत्त दयेऽर्थनिचये-सोमदेवसूरि अद्य दिवा रजनी वा-स्वामिसमंतभद्र- | दर्शनाच्चरणाद्वापि-स्वामिसमंतभद्र अनशनावमौदर्य-उमास्वामि
८५ प्रप्पाणं पि चवंतं-स्वमिकार्तिकेय
| परमपुरुष निज अर्थको-पं० टोडरमल अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितो-उमास्वामि
परविवाहकरणेत्वरिका-उमास्वामि अह णीरोमो देहो तो-स्वामिकार्तिकेय
पुत्तो वि भानो जाओ-स्वामिकार्तिकेय अज्ञानतिमिरव्याप्ति-स्वामिसमंतभद्र
पुश्चलीवेश्यादासीनां गमनेप्रा
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीका ८१ प्रानयनप्रेष्यप्रयोगशब्द
प्रायश्चित्तविनय-उमास्वामि
८३
१८
इदमेवेदशमेव-स्वामिसमंतभद्र ईर्याभाषेषणा उमास्वामि
न च परदारान् गच्छति-स्वामिसमंतभद्र नियमो यमश्च विहितौ-स्वामिसमंतभद्र निशा षोडश नारीणांनिहितं वा पतितं वा-स्वामिसमंतभद्र
उत्तमक्षमामार्दवार्जव-उमास्वामि
ऊवधिस्तिर्यग्व्यतिक्रम-उमास्वामि
बन्धवधच्छेदाति-उमास्वामि
कन्दर्पकौत्कुत्च-उमास्वामि कर्मपरवशे सान्ते-स्वामिसमंतभद्र कस्सवि ण त्थि कलत्त-स्वामिकार्तिकेय कस्य वि दुटु कलत्त-स्वामिकार्तिकेय कापथे पथिदुःखाना-स्वामिसमंतभद्र कौऊ नयनिश्चयसे-पं० टोडरमल
भूपयः पवनाग्नीनां-सोमदेवसूरि भोजनवाहमशयन....स्वामिसमंतभद्र भोजने षट्रसे पाने
६०
मधुशकलमपि प्रायो मण-वयण कायजोया-स्वामिकात्तिकेय
मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यान-उमास्वामि १ । मैं नमो नगन जैन जिन -पं० टोडरमल
८०
गुरु उर भाषे आप पर-पं० टोडरमल
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११.
परिशिष्ट-२
पृष्टांक
६३
मोग्यकालासनस्थानयोगदुःप्रणिधानाना-उमास्वामि
16 mm x
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८२
वर्णाःपदानां कर्तारो-प्रमृतचन्द्रसूरि वानी विन बैन न बने-पं. टोडरमल
पृष्ठांक
सचित्तनिक्षेपापिधान-उमास्वामि सचित्तसंबन्धसन्मिश्रा-उमास्वामि सुक्कं पक्कं तत्त-स्वामिकात्तिकेय
सीहस्स कमे पडिदं-स्वामिकार्तिकेय १०४
स्यादृग्बोध चरित्ररत्ननिचयंस्वयूथ्यान् प्रति सद्भाव-स्वामिसमन्तभद्र स्तेनप्रयोगतदाहृदादान-उमास्वामि स्वभावतोऽशुचौ काये-स्वामिसमंतभद्र
स्वयंशुद्धस्य मार्गस्य-स्वामिसमंतभद्र ७२ ६१ क्षुत्पिपासाशीतोष्ण-उमास्वामि८७ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्ण-,
श्रीगुरु परमदयाल है-पं० टोडरमल
ww
सप्पुरिसाणं दाणं-कुन्दकुन्दाचार्य सयल कुहियाण पिंडं-स्वामिकार्तिकेय सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति-उमास्वामि
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श्रीमद् राजचन्द्र प्राश्रम, भगास द्वारा पंचालित परमश्र तप्रभावक-मण्डल ( श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमाला ) के
प्रकाशित ग्रन्थों की सूची
(१) गोम्मटसार-जीवकाण्ड :
श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिकृत मूल गाथायें, श्रीब्रह्मचारी प. खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री. कृत नयी हिन्दीटीका युक्त । अबकी बार पंडितजीने धवल, जयधवल, महाघवल और बड़ी संस्कृतटीका के प्राधारसे विस्तृत टीका लिखी है।
मल्य-नौ रुपये। (२) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा :
स्वामिकात्तिके यकृत मूल गाथायें, श्री शुभचन्द्रकृत बड़ी संस्कृतटीका, स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके प्रधानाध्यापक, पं. कैलासचन्द्रजी शास्त्रीकृत हिन्दीटीका। अंग्रेजी प्रस्तावनायुक्त । सम्पादक-डा. प्रा ने. उपाध्ये, कोल्हापूर ।
मूल्य-चौदह रुपये। (३) परमात्मप्रकाश और योगसार :
श्रीयोगीन्दुदेवकृत मूल अपभ्रश-दोहे, श्रीब्रह्मदेवकृत संस्कृत-टीका व पं. दौलतरामजीकृत हिन्दी-टीका। विस्तृत अग्रेजी प्रस्तावना और उसके हिन्दीसार सहित । महान अध्यात्मग्रन्थ । डा. पा. ने. उपाध्येका अमूल्य सम्पादन । नवीन पंस्करण।
मूल्य-बारह रुपये (४) ज्ञानार्णव :
श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत महान योगशास्त्र । सुजानगढ़निवासी पं. पन्नालालजी बाकलीवालकृत हिन्दी अनुवाद सहित ।
मूल्य-बारह रुपये (५) प्रवचनसार :
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित ग्रन्थरत्नपर श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृत तत्त्वप्रदीपिका एवं श्रीमज्जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीकायें तथा पांडे हेमराजजी रचित वालावबोधिनी भाषाटीका। डा. पा. ने. उपाध्येकृत अध्ययनपूर्ण प्रग्रेजी अनुवाद और विशद प्रस्तावना प्रादि सहित आकर्षक सम्पादन। --
मूल्य-पन्द्रह रुपये। (६) बृहद्रव्यसंग्रह :
_प्राचार्य नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेवविरचित मूल गाथा, श्रीब्रह्मदेव विनिर्मित संस्कृतवृत्ति और पं. जवाहरलालशास्त्रीप्रणीत हिन्दी-भाषानुवाद सहित। षड्द्रव्यसप्ततत्त्वस्वरूपवर्णनात्मक उत्तम ग्रन्थ।
मूल्य-पांच रुपये पचास पैसे । (७) पुरुषार्थसिद्धयुपाय :
श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत मूल श्लोक। पं. टोडरमल्लजी तथा पं, दौलतरामजीकी टीकाके
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( ११२ ) आधार पर स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित नवीन हिन्दी टीका सहित । श्रावक-मुनि-धर्मका चित्तस्पर्शी अदभुत वर्णन ।
(८) अध्यात्म राजचन्द्र :
श्रीमद् राजचन्द्रके अद्भुत जीवन तथा साहित्यका शोध एवं अनुभवपूर्ण विवेचन डा. भगवानदास मनसुखभाई महेताने गुर्जरभाषामें किया है।
मूल्य-सात रुपये। (९) पंचास्तिकाय :
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित अनुपम ग्रन्थराज। घा अमृतचन्द्रसूरिकृत 'समयव्याख्या' एवं प्राचार्य जयसेनकृत 'तात्पर्यवृत्ति'-नामक संस्कृत टोकामोंसे अलंकृत और पांडे हेमराजजी-रचित बालावबोधिनी भाषा-टीकाके आधार पर पं. पन्नालालली बाकलीवाल कृत प्रचलित हिन्दी अनुवाद सहित ।
मूल्य-सात रुपये। (१०) प्रष्टाप्रामृत :
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित मूल गाथानों पर श्रीरावजीभाई देसाई द्वारा गुजराती गद्यपद्यात्मक भाषांतर । मोक्षमार्गकी अनुपम भेट ।
मूल्य-दो रुपये मात्र (११) भावनाबोध-मोक्षमाला :
श्रीमद् राजचन्द्रकृत । वैराग्यभावना सहित जैनधर्मका यथार्थ स्वरूप दिखाने वाले १०८ सुन्दर पाठ हैं।
मूल्य-दो रुपये पचास पैसे। (१२) स्याद्वाद मजरी:
श्रीमल्लिषेणसूरिकृत मूल और श्रीजगदाशचन्द्रजी शास्त्री एम. ए., पी. एच. डी. कृत हिन्दीअनुवाद सहित । न्यायका अपूर्व ग्रन्थ है। बड़ी खोजसे लिखे गये १६ परिशिष्ट हैं।
मूल्य-दस रुपये। (१३) गोम्मटसार-कर्मकाण्ड :
श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्तिकृत मल गाथाए, स्व. पं. मनोहरलाल जी शास्त्रीकृत संस्कृतछाया और हिन्दीटीका । जैनसिद्धान्त-ग्रन्थ है।
मूल्य-सात रुपये। (१३) इष्टोपदेश :
श्रीपूज्यपाद. देवनन्दिप्राचार्यकृत मूल श्लोक, पंडितप्रवर पाशाधरकृत संस्कृतटीका, पं. धन्यकुमारजी जैनदर्शनाचार्य एम. ए. कृत हिन्टीटीका, स्व. बैरिस्ट र चम्पतरायजीकृत अंग्रेजीटीका तथा विभिन्न विद्वानों द्वारा रचित हिन्दी, मराठी, गुजराती एवं प्रग्रेजी पद्यानुवादों सहित भाववाही आध्यात्मिक रचना।
मूल्य-दो रुपये पचास पैसे ।
(१५) समयसार : प्राचार्य श्रीकुन्दकुन्दस्वामी-विरचित महान अध्यात्मग्रन्थ, तीन टीकाओं सहित नयी आवृत्ति ।
मूल्य-सोलह रुपये।
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( ११३ )
(१६) लब्धिसार (क्षपणासारगर्मित):
श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्ती-रचित करणानुयोग अन्य । पं. प्रवर टोडरमल्लजी कृत बड़ी टीका सहित पुनः छप रहा है। (१७) द्रध्यानुयोगतर्करणा :
श्रीभोजसागरकृत, अप्र.८: है। सुन्दर सम्पादन सहित पुनः छप रहा है। (१८) न्यायावतार:
महान तार्किक श्री सिद्धसेनदिवाकरकृत मूल श्लोक, व श्रीसिद्धर्षिगणिकी संस्कृत टीकाका हिन्दी-भाषानुवाद जैनदर्शनाचार्य पं. विजयमूर्ति एम. ए. ने किया है : न्यायका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है।
मूल्य-छः रुपये। (१६) प्रशमरतिप्रकरण :
प्राचार्य श्रीमदुमास्वातिविरचित मूल श्लोक, श्रीहरिभद्रसूरिकृत संस्कृत टीका और पं. राजकुमार जी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित सरल अर्थ सहित। वैराग्यका बहुत सुन्दर ग्रन्थ है।
मूल्य-छः रुपये। (२०) सभाष्यतत्वाधिममसूत्र (मोक्षशास्त्र): ।
श्रीमत् उमास्वातिकृत मूल सूत्र और स्वोपज्ञभाष्य तथा पं. खूबचन्दजो सिद्धांतशास्त्रीकृत विस्तृत भाषाटीका । तत्त्वोंका हृदयग्राह्य गम्भीर विश्लेषण ।
मूल्य-छः रुपये। (२१) सप्तभंगीतरंगिणी :
श्रीविमलदासकृत मूल और स्व. पडित ठाकुरप्रसादजी शर्मा व्याकरणाचार्यकृत भाषाटीका। न्यायका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ । पुन: छप रहा है ।
मूल्य-छः रुपये। (२२) इष्टोपदेश : मात्र अग्रेजी टीका व पद्यानुवाद ।
मूल्य-पचहत्तर पैसे। परमात्मप्रकाश: मात्र अंग्रेजी प्रस्ताबना ब मूल गाथायें ।
मूल्य-दो रुपये। (१४) योगसार : मूल गाथायें और हिन्दीसार।
भूल्य-पहचत्तर पैसे। (२५) कार्तिकेयानुप्रेक्षा : मात्र मूल, पाठान्तर और अंग्रेजी प्रस्तावना ।
मूल्य-दो रुपये पचास पैसे। (२६) प्रवचनसार :
__मंग्रेजी प्रस्तावना, प्राकृत भूल, अंग्रेजी अनुवाद तथा पालन्तर सहित । मूल्य-पांचं रुपयें ।
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(२७) उपदेशछाया प्रात्मसिद्धि :
श्रीमद् राजचंद्रप्रणीत । अप्राप्य। (२८) श्रीमद् राजचन्द्र :
श्रीमद्के पत्रों व रचनाओंका अपूर्व संग्रह। तत्त्वज्ञानपूर्ण महान् ग्रन्थ है। म. गांधीजी की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना।
अधिक मूल्यके ग्रन्थ मंगानेवालोंको कमिशन दिया जायेगा। इसके लिए वे हमसे पत्रव्यवहार करें।
मल्य-बाईस रुपये। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रमकी ओरसे
प्रकाशित गुजराती ग्रंथ १. श्रीमद् राजचन्द्र २. अध्यात्म राजचन्द्र ३. श्रीसमयसार (संक्षिप्त) ४. समाधि सोपान ( रत्नकरण्ड श्रावकाचारके विशिष्ट स्थलोंका अनुवाद ) ५. भावनाबोध-मोक्षमाला ६. परमात्मप्रकाश ७. तत्त्वज्ञान तरंगिणी ८. धर्मामृत ६ स्वाध्याय सुधा १०. सहजसुखसाधन ११. तत्त्वज्ञान १२. श्रीसद्गुरुप्रसाद १३. श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला १४. सुबोध संग्रह १५. नित्यनियमादि पाठ १६. पूजा संचय १७. पाठ दृष्टिनी सज्झाय १८. पालोचनादि पद-संग्रह १६. पत्रशतक २०. चैत्यवंदन चोबीसी २१. नित्यक्रम २२. श्रीमद् राजचन्द्र जन्मशताब्दी महोत्सव-स्मरणांजलि २३. श्रीमद् लघुराज स्वामि ( प्रभुश्री) उपदेशामृत २४. अात्मसिद्धि शास्त्र २४. नित्यनियमादि पाठ (हिन्दी) २६. Shrimad Rajchandra. A Great Scer २७. Mokshamala २८. सुवर्णमहोत्सव-पाश्रम परिचय २६. ज्ञानमंजरी ३०. अनित्यपंचाशत् तथा हृदय प्रदीप ३१ अध्यात्मरसतरंग २२. प्रात्मानुशासन ।
आश्रमके गुजराती प्रकाशनोंका पृथक् सूचीपत्र मंगाइये। सभी ग्रन्थों पर डाकखर्च अलग रहेगा।
प्राप्तिस्थान: १. श्रीमद् राजचन्द्र प्राधम, स्टेशन-प्रगास पो. बोरिया, वाया-प्राणंद [ गुजरात ]
२. परमश्रुतप्रभावक-मंडल
[श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमाला ] चौकसी चेम्बर, खाराकुवा, जौहरी बाजार, बम्बई-२
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