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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम्। [३-अहिंसा तत्त्व व्यर्थ प्रौर असावधानीसे कार्य करनेमें जो एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा होती है, उसका तो अवश्य ही त्याग होना चाहिये। अमृतत्वहेतुभूतं परमहिंसारसायनं लब्ध्वा । अवलोक्य बालिशानामसमञ्जसमाकुलन भवितव्यम् ॥७॥ अन्वयाथों-[अमृतत्वहेतुभूतं ] अमृत अर्थात् मोक्षके कारणभूत [ परमं ] उत्कृष्ट [अहिंसारसायनं ] अहिंसारूपी रसायनको [ लब्ध्वा ] प्राप्त करके [ बालिशानाम् ] अज्ञानी जीवोंके [असमञ्जसम् ] असङ्गत बर्तावको [ अवलोक्य ] देखकर [ प्राकुलैः ] व्याकुल [ न भवितब्यम् ] नहीं होना चाहिये। भावार्थ-किसी जीवको हिंसा करते हुए सुख सातायुक्त देखकर और आपको अहिंसाधर्म पालते हुए भी दुःखी जानकर अथवा आपको अहिंसाधर्म साधते देख व अन्य मिथ्यादृष्टियोंको हिंसामें धर्म ठहराते हुए व पुष्ट करते हुए देखकर धर्मात्मा पुरुषोंको चलायमान न होना चाहिये । सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिंसने न दोषोऽस्ति । इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥७॥ अन्वयार्थी-[भगवद्धर्मः] परमेश्वरकथित-भगवानका कहा हुआ धर्म [सूक्ष्मः] बहुत बारीक है, अतएव [ धमार्थ ] 'धर्मके निमित्त [ हिंसने ] हिंसा करने में [ दोषः ] दोष [ नास्ति ] नहीं है। [ इति धर्ममुग्धहृदयैः ] ऐसे धर्ममें मूढ अर्थात् भ्रमरूप हुए हृदयसहित [ भूत्वा ] हो करके [ जानु ] कदाचित् [ शरीरिणः ] शरीरधारी जीव [ न हिंस्याः ] नहीं मारने चाहिये। ___ भावार्थ-जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म कदापि नहीं हो सकता, अतएव धर्मात्मा पुरुषोंको इस प्रकार के धोखे में नहीं आना चाहिये, कि धर्मके निमित्त यज्ञसम्बन्धी हिसा करने में पाप नहीं है । यदि यहांपर कोई यह प्रश्न करे कि जैनधर्ममें भी तो मंदिर बनवाना, प्रतिष्ठा करामा कहा गया है, जिसमें सूक्ष्म जीवोंकी विपुल हिंसा होती है, सो क्या इन मन्दिरादि कार्योंमें धर्म नहीं होता ? इसका उत्तर यह है १ त्रसस्थावरस्वरूपकथनम्: संसारी जीव दो प्रकार के हैं- एक त्रस, दूसरे स्थावर । केवल एक स्पर्शन इन्द्रियवाले एकेन्द्रिय जीवोंको स्थावर कहते हैं। और द्वीन्द्रियादिक पंचेन्द्री पर्यन्त जीवोंको त्रस कहते हैं । स्थावरजीवोंके १ पृथ्वीकाय. २ जलकाय ३ वनस्पतिकाय, ४ अग्निकाय, ५वायुकाय ये ५ भेद हैं और त्रसजीवोंके १द्वन्द्रिय, २ त्रीन्द्रिय ३ चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये ४ भेद हैं। जो स्पर्शन और रसना ( जीभ ) युक्त हों, जैसे लट, कौड़ी, गिडोला आदि उन्हें द्वीन्द्रिय, जो स्पर्शन, रसना, घ्राण (नाक) युक्त हों जैसे कीड़ी मकोड़ी, कानखजूरा आदि उन्हें ते-इन्द्रिय, जो स्पर्शन रसना, घ्राण, नेत्रयुक्त हों जैसे भ्रमर पतंगादि उन्हें चतुरिन्द्रिय और जो कानसंयुक्त हों जैसे मनुष्य, देव, पशु, पक्षी आदि उन्हें पंचेन्द्रिय कहते हैं। पुनः पंचेन्द्रियके सैनी और असनी ये दो भेद हैं। जिन पंचेन्द्रिय जीवोंके मन पाया जाता है, उन्हें सैनी और जिनके मन नहीं पाया जाता, उन्हें असैनी कहते हैं। सैनी पंचेन्द्रिय चार प्रकारके हैं, देव, मनुष्य, नारक, तिर्यश्च । इनमेंसे नरकोंके भूमिकी अपेक्षा सात भेद और तिर्यञ्चोंके जलचर, स्थलचर और नभश्चर ये तीन भेद हैं।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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