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श्लोक ७८-८२ ]
पुरुषार्थसिद्धयु पायः । कि यदि ये कार्य केवल मान बड़ाईके लिये यत्नाचार रहित लापरवाहीसे किये जावें, तो कदापि शुभ बंधके कारण नहीं हो सकते, परन्तु धर्म-बुद्धिसे यत्नपूर्वक किये जावें, तो अधिक शुभबंधके कर्ता होते हैं । यद्यपि उक्त कार्योंमें प्रारंभजनित हिंसा होती है, परन्तु वह ( हिंसा ) धर्मानुरागपूर्वक बँधे हुए शुभ बंधकी ( पुण्यको ) ओर देखनेसे कुछ गिनतोमें भी नहीं आ सकती है। इसके अतिरिक्त उक्त कार्यों में अपना द्रव्य व्यय करनेसे लोभकषायरूप अन्तरङ्ग हिंसाका त्याग होता है तथा एक बड़ा भारी लाभ और भी होता है, वह यह है कि मन्दिरादिक कार्योंमें लगाये हुए इस धनने विषय कषायादिक सेवनमें न लगाकर महत्पापोंसे दूर रखके सुकृतकी प्रवृत्ति की है; अतएव सिद्ध है कि मन्दिर प्रतिष्ठादिक कार्य उत्कृष्ट धर्म-कार्य हैं, परन्तु धर्मनिमित्तक यज्ञादिकमें पशु हवनादिकी क्रिया उद्यमीहिंसा होनेसे सर्वथा त्याज्य है । ऐसी सामान्यतया आज्ञा है।
धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुविवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिस्याः ।।८०॥ अन्वयाथों-[हि] 'निश्चय करके [ धर्मः ] धर्म [देवताभ्यः] देवतामोंसे [प्रभवति] उत्पन्न होता है। अतएव [ इह ] इस लोकमें [ताभ्यः] उनके लिए [सर्वम्] सब ही [प्रदेयम् [ दे देना योग्य है' [इति दुविवेककलितां] इस प्रकार अविवेकसे गृसित [धिषणां] बुद्धिको [प्राप्य] पाकरके [देहिनः] शरीरधारी जीव [न हिंस्याः] नहीं मारने चाहिये ।
भावार्थ-देवताओं के लिये भी किसी कारणसे प्राणिघात न करना चाहिये । कोई कोई मूर्ख कहा करते हैं कि धर्मके कर्ता जब देवता ही हैं, तो उन्हें मांसादिकी बलि जो चाहे सो देना अयोग्य नहीं है; सो यह कथन अविवेकसे भरा हुआ है, मान्य न करना चाहिए।
पूज्यनिमित्त' घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति ।
इति संप्रधार्य कार्य नातिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥ ८१ ॥ अन्वय थों-[पूज्यनिमित्त] 'पूजने योग्य पुरुषोंके लिये [छागादीनां] बकरा आदिक जीवोंके [ घाते ] घात करने में [ कः अपि ] कोई भी [ दोष ] दोष [ नास्ति ] नहीं है' [ इति ] ऐसा [ संप्रधार्य ] विचार करके [ अतिथये ] अतिथि व शिष्ट पुरुषोंके लिये [ सत्त्वसंज्ञपनम् ] जीवोंका घात [ न कार्य ] करना योग्य नहीं है।
भावार्थ पुरोडाशादिमेंशिष्ट पुरुषोंके लिए हिंसा करने में दोष नहीं है, ऐसा कहना बड़ी भारी भूल है।
बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्त्वघातोत्यम् ।
इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थी --[ बहुसत्त्वघातजनितात् ] "बहुत प्राणियोंके घातसे उत्पन्न हुए [अशनात् ] भोजनसे [ एकसत्त्वघातोत्थम् ] एक जीवके घातसे उत्पन्न हुआ भोजन [ वरम् ] अच्छा है" [ इति ]
१-"अतिथिके सत्कारार्थ बकरी वा बैल जो उत्तम जीव घरमें हों, उनके घात करनेमें कोई पाप नहीं है।" ऐसा स्मृतिकारोंका मत है।