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________________ श्लोक ७१-७७ ] पुरुषार्थसिद्धच पायः । अष्टानिष्ट दुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्रारिण शुद्धधियः ।। ७४ ।। अन्वयार्थौ – [अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि ] दुःखदायक दुस्तर और पापोंके स्थान [प्रमूनि ] इन [ अष्टौ ] आठ पदार्थोंको [ परिवर्ज्य ] परित्याग करके [ शुद्धधियः ] निर्मल बुद्धिवाले पुरुष [ जिनधर्मदेशनायाः ] जिनधर्मके उपदेश के [ पात्राणि ] पात्र [ भवन्ति ] होते हैं । ३६ भावार्थ- मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बर फल ये आठों पदार्थ महा पाप के कारण हैं, इस कारण इनका त्याग करनेपर ही पुरुष किसी उपदेशके सुननेके योग्य पात्र होता है, अर्थात् इनके त्याग विना श्रावक नहीं हो सकता, इसी कारण इनके त्यागको प्रष्ट मूलगुण माना है । धर्म हिंसारूपं संशृण्वन्तोपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥ ७५ ॥ अन्वयार्थी - [ ये ] जो जीव [ श्रहिंसारूपं ] अहिंसारूप [ धर्मम्] धर्मको [ संशृण्वन्तः प्रपि ] भले प्रकार श्रवण करके भी [ स्थावरहिंसाम् ] स्थावर जीवोंकी हिंसा [ परित्यक्तुम् ] छोड़नेको [ असहाः ] असमर्थ हैं [ ते अपि ] वे भी [ सहिसां ] त्रस जीवोंकी हिंसाको [ मुञ्चन्तु ] छोड़ें । कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा । fist निवृत्तिविचित्ररूपापवादिकी त्वेषा ।। ७६ ।। अन्वयार्थी - [ श्रौत्सगिकी निवृत्तिः ] उत्सर्गरूप निवृत्ति अर्थात् सामान्य त्याग [ कृतकारितानुमननैः ] कृत कारित, अनुमोदनरूप [ वाक्कायमनोभिः ] मन वचन काय करके [ नवधा ] नव प्रकार [इष्यते ] मानी है, [तु] और [एषा ] यह [ अपवादिकी] अपवादरूप निवृत्ति [ विचित्ररूपा ] अनेकरूप है । भावार्थ - साधारणतः सर्वथा त्यागको उत्सर्गत्याग कहते हैं । यह नौ प्रकारका होता है । मनसे वचनसे या कायसे, प्राप न करना, दूसरेसे न कराना और करनेवालेको भला नहीं समझना । इन नौ भेदों में से किसी भेदका थोड़ा बहुत किसी प्रकारसे त्याग करनेको अपवाद त्याग कहते हैं। इसके बहुत भेद हैं । स्तो केन्द्रियघाताद्गृहिरणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावर मारण विरमरणमपि भवति कररणीयम् ॥ ७७ ॥ अन्वयार्थी – [ सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् ] इन्द्रियोंके विषयोंका न्यायपूर्वक सेवन करनेवाले [ गृहिणाम् ] श्रावकोंको [ स्तोकंकेन्द्रियघातात् ] अल्प एकेन्द्रिय घातके अतिरिक्त [ शेषस्थावरमाररणविरमरणमपि ] अवशेष स्थावर ( एकेन्द्री ) जीवोंके मारनेका त्याग भी [ कररणीयम् ] करने योग्य [ भवति ] होता है । भावार्थ - गृहस्थ से एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं हो सकता है, इसलिये यदि योग्य रीति से यत्नाचारपूर्वक कार्य करते हुए एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा होती है, तो होओ, परन्तु इसके अतिरिक्त
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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