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ग्लोक १८३-१०८ ]
पुरुषार्थसिद्धच पायः ।
स्मरतीव्राभिनिवेशोऽनङ्गक्रीडान्यपरिणयनकरणम् । अपरिगृहीतेतरयोर्गमने चेत्वरिकयोः पञ्च ॥ १८६॥
अन्वयार्थी - [ स्मरती ग्राभिनिवेशः ] कामसेवनकी प्रतिशय लालसा रखना, [श्रनङ्गक्रीडा ] योग्य अङ्गों के अतिरिक्त अङ्गोंसे कामक्रीड़ा करना, [ अन्यपरिणयनकरणम् ] अन्यका विवाह करना, [ च ] और [ अपरिगृहीतेतरयोः ] विना ब्याही ( अनूढा ) तथा उससे इतर प्रर्थात् ब्याही हुई ( ऊढ़ा ) [ इत्वरिकयोः ] व्यभिचारिणी स्त्रियोंके पास [ गमने ? ] गमन ( एते ब्रह्मव्रतस्य ) ये ब्रह्मचर्यव्रतके [ पञ्च ] पाँच प्रतीचार हैं ।
भावार्थ - व्यभिचारिणी स्त्री दो प्रकारकी होती हैं, एक तो अपरिगृहीता अर्थात् अनब्याही वेश्या दासी आदि, दूसरी परिगृहीता अर्थात् अन्यकी ग्रहण की हुई विवाहिता परकीया, सो इन दोनों प्रकारकी शीलभ्रष्ट स्त्रियों के पास जाना, उनके स्तन कुक्षि जघनादि कामोत्त ेजक प्रङ्गोंका देखना, तथा कुवचनालाप करके कुचेष्टा करना ये ब्रह्मचर्यव्रत के पांच प्रतीचार हैं।
वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् ।
कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रियाः पञ्च ॥ १८७॥
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अन्वयार्थी - [ वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् ] घर, भूमि, सोना, चांदो, धन, धान्य, दास, दासियोंके और [ कुप्यस्य ] सुवर्णादिक घातुओं के अतिरिक्त वस्त्रादिकोंके [मेदयोः ] भेदों [ प ] भी [ परिमारणातिक्रियाः ] परिमाणों का उलङ्घन करना । एते अपरिग्रहव्रतस्य अपरिग्रहवत [ पञ्च ] पांच प्रतीचार हैं ।
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भवार्थ - दो दो भेदोंके व्रत कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तु क्षेत्रादिक पाठके और कुप्यके दो दो करके पाच भेद करना अर्थात् १ घर भूमि, २ सोना चांदी, ३ धन धान्य, ४ सेवक सेविका, ५ रेशम और पाटके वस्त्र, इन प्रत्येक के परिमाणका उल्लंघन करनेसे पांच प्रतीचार होते हैं ।
ऊध्वंमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्धिराधानम् ।
स्मृत्यन्तरस्य गदिताः पञ्चेति प्रथमशीलस्य ॥ १८८ ॥ |
श्रन्वयार्थी - [ ऊर्ध्वमघस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः ] ऊपर, नीचे और समान
भूमिके किये हुए प्रमाणका व्यतिक्रम करना प्रर्थात् जितना प्रमाण लिया हो उससे बाहिर चले जाना, [ क्षेत्रवृद्धिः ] १ - परविवाहकरणे त्वरिकापरिग्रहीतापरिग्रहीतागमनानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशा: (त०सू०प्र० ७ सू० २ ) २- पुश्चली वेश्यादा सीनां गमनं जघनस्तनवदनादिनिरीक्षणसम्भाषणहस्तभ्रू कटाक्षादिसंज्ञाविधानम्, इत्येवमादिकं निखिलं रागित्वेन दुश्चेष्टितं गमनमित्युच्यते ( श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाः श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत संस्कृतटीकायाम् )
३ - क्षेत्रावास्तु हिरण्य-सुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमणातिक्रमाः ( त० प्र० ७, सू० २६ ) ।
४- ऊर्ध्वास्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्त राधानानि ( त० प्र० ७, सू ३०) ५ - पर्वतादिकोंपर चढ़ना ६- कूपादिकोंमें नीचे उतरना । ७- बिल, तहखाना, गुहादिमें प्रवेश ।
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