SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक १४०-१४६ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः। अन्वयाथों-[भूखननवृक्षमोट्टनशाड्वलदलनाम्बुसेचनादोनि] पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाड़ना, अतिशय घासवाली जगह रोंदना, पानी सींचना प्रादि [च ] और [ दलफलकुसुमोच्चयान् ] पत्र फल फूल तोड़ना [ अपि ] भी [निष्कारणं] प्रयोजनके विना [ न कुर्यात् ] न करे। भावार्थ-गृहस्थ त्रस जीवोंका रक्षक तो है ही, परन्तु जहाँतक बने, उसे स्थावर जीवों की रक्षा भी करनी चाहिये, अर्थात् जबतक कोई विशेष प्रयोजन न पा पड़े, स्थावर जीवोंकी भी निष्कारण विराधना न करे। यह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है। प्रसिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरवालकामुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नाद् ॥ १४४ ।। अन्वयार्थी-[असि-धेनु विष-हुताशन-लाङ्गल-करवाल-कामुकादीनाम्] छ री, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष, प्रादि [हिंसायाः] हिंसाके [उपकरणनां ] उपकरणोंका [ वितरणम् ] वितरण अर्थात् दूसरोंको देना [यत्नात्] यत्नसे अर्थात् सावधानीसे [परिहरेत्] छोड़ दे।। भावार्थ-हिंसाके जितने साधन हैं उनके विना यदि अपना कार्य नहीं चलता हो तो रख ले, परन्तु वे साधन दूसरोंको कभी न दे, क्योंकि उक्त साधन देनेसे देनेवालेको उनसे उत्पन्न होनेवाली हिंसाके पापबधका भागी निष्कारण ही होना पड़ता है । यह हिंसाप्रदान नामक चौथा अनर्थदण्ड है । रागादिवद्ध नानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥ १४५ ॥ अन्वयाथों--[रागादिवर्द्धनानां] राग द्वेष मोहादिको बढ़ानेवाली तथा [प्रबोधबहुलानाम्] बहुत करके अज्ञानतासे भरी हुई [ दुष्टकथानाम् ] दुष्ट कथामोंका' [श्रवरणार्जनशिक्षणादीनि ] श्रवण-सुनना, अर्जन-संग्रह, शिक्षण सीखना आदिक [कदाचन] किसी भी समय [न कुर्वीत] न करे। भावार्थ-दुष्टशृङ्गारादिरूप कथानोंमें न तो धर्म होता है, न किसी प्रकारकी आजीविका होती है, निष्प्रयोजन उपयोग लगाना पड़ता है, और उपयोग लगानेसे परिणाम तद्रप होकर व्यर्थ ही पापबंध के कारण हो जाते हैं, अतएव ऐसी कथानों का पठन-पाठन सर्वथा त्याज्य है । यह दुःश्रुति नामक पांचवां अनर्थदण्ड है। सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सद्म मायायाः। दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं तम् ॥ १४६ ।। १-तथाचोक्त यशस्तिलकचम्पू-महाकाव्ये सप्तम माश्वासे उपासकाध्ययने षड्विंशकल्पे । ... ------ भूपयःपवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्कुर्य्यादयं तु यत् ॥ २–अादि शब्दसे करोंत, भाला, बरछी प्रादि भी समझना चाहिये। ३ - श्वान, मार्जारादि हिंसकजीवोंका पालना भी इस अनर्थदण्डमें गर्भित है। ४-कोकादि कुशास्त्र कामोद्दीपन करनेवाले हैं तथा हिंसाके प्रवर्तक हैं, अतएव दुष्ट हैं।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy