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________________ ४६ श्लोक १०३-१०७ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः। अन्वयाथों-[च और [ नीरागारणाम् ] वीतराग पुरुषोंके [ प्रमत्तयोगककारणविरोधात् ] प्रमाद योगरूप एक कारणके विरोधसे [कर्मानुग्रहणे] द्रव्यकर्म नोकर्मकी कर्मवर्गणाओंके ग्रहण करने में [अपि ] निश्चय करके [स्तेयस्य ] चोरीके [ अविद्यमानत्वात् ] उपस्थित न होनेसे [ तयोः ] उन दोनोंमें अर्थात् हिंसा और चोरीमें [अतिव्याप्तिः] अतिव्याप्ति भी [न] नहीं है। भावार्थ-"प्रदत्तादानं स्तेयं", इस सूत्रके अनुसार विना दिये हुए पदार्थके ग्रहण करनेको चोरी कहते हैं, इसलिये वीतरागसर्वज्ञको जिस समय कि वे द्रव्य नोकर्मवर्गणानोंका ग्रहण करते हैं, उस समय चोरीका दोष लगना चाहिये, क्योंकि प्राप्त नोकर्मवर्गणाओंका ग्रहण अदत्तादान है, और ऊपर कही अदत्तादान चोरी है, तो वीतरागदेव चोरीके भागी होनेसे हिंसक सिद्ध होंगे, परन्तु वीतरागदेव हिंसक नहीं है, क्योंकि मोहनीयकर्मका प्रभाव हो जानेसे कर्मवर्गणाओंके ग्रहण करने में उनके प्रमत्त योगरूप कारणका भी अभाव है, जिससे कि उक्त लक्षण में अतिव्याप्ति दोष नहीं लग सकता, क्योंकि चोरीका लक्षण यथार्थ में इस प्रकार कहा है-"प्रमत्तयोगात् अदत्तादानं स्तेयं" अर्थात् "प्रमादके योगसे परद्रव्यका ग्रहण करना चोरी है।" असमर्था ये कतुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम् ॥ १०६ ॥ अन्वयाथों-[ये] जो लोग [निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम्] दूसरोंके कुप्रा बावड़ी आदि जलाशयोंके जल आदिको ग्रहण करनेका त्याग [कतु] करनेको [असमर्था] असमर्थ हैं. [तैः] उन्हें [अपि ] भी [ अपरं ] अन्य [ समस्तम् ] सम्पूर्ण [ प्रदत्त ] विना दी हुई वस्तुअोंका ग्रहण करना [नित्यम्] हमेशा [परित्याज्यम्) त्याग करना योग्य है। भावार्थ-अदत्त वस्तुका त्याग दो प्रकार है, एक तो सर्वथा त्याग जो मुनिधर्म में पाया जाता है; दूसरा एकोदेश त्याग जो श्रावकधर्ममें वर्णन किया है। प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि जहां तक बन सके सर्वथा त्याग करे, परन्तु यदि उसका पालन न हो सके, तो एकोदेश त्याग तो अवश्य ही करे। एकोदेश त्यागी पुरुष दूसरेके कुओं, तालाबोंका जल तथा मृत्तिकादि ऐसे पदार्थ जिनका कोई मूल्य नहीं है, और जिन्हें अदत्त ग्रहण करनेसे संसारमें चोर नहीं कहा जाता-ग्रहण कर सकता है। परन्तु सर्वथा त्यागी पुरुष इन पदार्थोंको भी विना दिये ग्रहण नहीं कर सकता। यदरागयोगान्मथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ १०७ ॥ अन्वयाथों -[यत्] जो [वेदरागयोगात्] वेदके रागरूप योगसे [मैथुन] स्त्री-पुरुषोंका सहवास [अभिधीयते ] कहा जाता है, [ तत् ] सो [अब्रह्म] अब्रह्म है, और [तत्र] उस सहवास में [वधस्य] प्राणिवधका [सर्वत्र] सब जगह [सद्भावात्] सद्भाव होनेसे [हिंसा] हिंसा [अवतरति होती है। १-चारित्रम्गेहकी वेद नामक प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुआ राग । । २-पादिशब्दात् मत्तिकादि पदार्थजातमपि द्वयं । ३-मिथुनस्थ कर्म मैथुनम् ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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