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श्लोक २०८
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
६- दंशमशका परीषहजय - भयंकर वनमें नग्न शरीर पाकर नाना ऋतुके नानाप्रकारके डांस, मच्छर, पिपीलिका, मक्खी, कानखजूरे, सर्पादि जीव लिपट जाते हैं, उनकी व्ययासे खेदित न होकर ध्यानावस्थित रहने को कहते हैं ।
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१० - श्राक्रोशपरीषहजय - मुनिकी महादुर्धर नग्न दिगम्बरावस्थाको देखकर दुष्ट जन नाना प्रकारके कुवचन कहते हैं । पाखंडी और ठग, निर्लज्ज आदि कहकर गालियां देते हैं । ऐसे समय में किञ्चिन्मात्र भी क्रोधित न होकर महाक्षमा धारण करने को कहते हैं ।
.११ - रोग परीषहजय - इन क्षणस्थायी शरीर में उदरविकार, रक्तविकार, चर्मविकार, तथा वायु पित्त कफ जनित विकार आदि अनेक विकार उत्पन्न होते हैं । उनके उत्पन्न होनेपर ' खदित न होके तज्जनितपीड़ा सहन करते हुए स्वतः रोग शमन के उपाय न करनेको रोगपरिषहजय कहते हैं ।
१२ - मलपरीषह जय - संसारके जीवोंके शरीर में पमीना ग्राकर रंचमात्र भी रज बैठ जावे, तो वे खेद करते हैं और स्नानादि सुखनिमित्तक उपाय करते हैं, ऐसा न करके ग्रीष्मकी धूपसे प्रवाहित पसीनेपर अनन्त रज बैठ जानेपर अर्थात् शरीरके महा मलनि हो जानेपर भी स्नान विलेपनादि नहीं करके चित्त निर्मल रखनेको मलपरीषहजय कहते हैं। इस परीषहका जय करते समय मुनि चिन्तवन करते हैं, कि हे जीव ! यद्यपि यह शरीर इतना मलिन है, कि सारे समुद्रके जलसे धोया जावे तो भी पवित्र न होवे, परन्तु तू महा निर्मल प्रमूर्तिक शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, तुझसे मूर्तिक मलिन पदार्थों का संसर्ग ही नहीं हो सकता, अतएव देह-स्नेह छोड़ करके आपमें स्थिर हो ।
१३- तृरणस्पर्शपरीषहजय - जगत् के जीव जरासी फाँसके लग जानेपर दुखी होते हैं, और उसके " निकालने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा न करके तृण, कंटक, कंकर, फाँस, प्रादि शरीर में चुभ जानेपर खेद- खिन्न न होनेको और उनके निकालने का उपाय न करनेको तृणस्पर्शपरीषहजय कहते हैं !
१४ - श्रज्ञानपरीषहजय - ज्ञानावरणीयकर्म के उदयसे चिरकाल तपश्चर्या करनेपर भी श्रुतज्ञान न होनेपर स्वत: खेद न करनेको और ऐसी अवस्था में अन्य जनोंसे, अज्ञानी प्रादि मर्मभेदी वचन सुनकर दुःखित न होने को प्रज्ञानपरीषहजय कहते हैं ।
१५ - प्रदर्शन परीषहजय - संसारीजीव समस्त कार्य प्रयोजन रूप करते हैं और प्रयोजनमें थोड़ी भी न्यूनता देखने पर क्लेशित होते हैं । ऐसा न करके बहुकाल उग्रतप करनेपर यदि किसी प्रकार के ऋद्धि; सिद्धि आदि प्रकट करने वाले अतिशय प्रकट न हुए हों, तो संगमके फल में रंचमात्र भी शंका न करके खेद - खिन्न न होकर अपने मार्गमें स्थित रहनेको और सम्यग्दर्शनको दूषित न करनेको प्रदर्शन परीषहजय कहते हैं ।
१६ - प्रज्ञापरीषहजय - बुद्धिका पूर्ण विकास होनेपर किसी प्रकारके मान न करनेको कहते हैं । १७- सत्कारपुरस्कारपरोषहजय-देव, मनुष्य, तिर्यञ्चादि सब ही जीव अपना आदर सत्कार चाहते हैं, श्रादर करनेवालेको अपना मित्र औौर न करनेवालेको शत्रु समझते हैं, ऐसा न करके सुरेन्द्रा