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________________ भीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [५-बाईस परीषह दिक महद्धिक देवोंसे सत्कार करनेपर प्रौर अविवेकी क्षुद्र जीवोंसे तिरस्कृत होनेपर हर्ष विषाद न करके समान भाव धारण करनंको सत्कार पुरस्कार परीषहजय कहते हैं। १८-शय्यापरीषहजय-खुरदरी, पथरीली काँटोंसे भरी हुई भूमिमें शयन करके दुखी न होनेको कहते हैं। १९-च-परीषहजय-किसी प्रकारकी सवारीकी इच्छा न करके मार्गके कष्टको न गिनकर भूमिशोधन करते हुए गमन करनेको कहते हैं। २०-बधबंधनपरीषहजय- दुष्ट मनुष्योंद्वारा बधबंधनादि दुःख उपस्थित होनेपर उन्हें समता पूर्वक सहन करनेको कहते हैं। २१-निषद्यापरीषह जय-निर्जन वनोंमें. हिंसक जीवोंके निवास स्थानोंमें, व्यन्तरादि देवोंके स्थानोंमें, अंधकारयुक्त गुफाओं में, और स्मशानभूमियोंमें रहकर भी दुःख न माननेको कहते हैं। २२-स्त्रीपरीषहजय-महासुन्दर, स्त्रियोंकी हाव भाव भ्र कटाक्षादि चेष्टाओंसे पीड़ित न होनेकी कहते हैं। इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता । २०६ ॥ अन्वयार्थी-[इति] इस प्रकार [एतत्] पूर्वोक्त [रत्नत्रयम्] सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्वचारित्ररूप रत्नत्रय [ विकलम् ] एक देश [ अपि ] भी [ निरत्ययां ] अविनाशी [ मुक्तिम् ] मुक्तिको [ अभिलषता ] चाहनेवाले [ गृहस्थेन ] गृहस्थ के द्वारा [ अनिशं ] निरन्तर [ प्रतिसमयं ] समय समयपर [ परिपालनीयम् ] परिपालन करने योग्य है। भावार्थ-इस मोक्ष प्रतिपादक ग्रन्थमें अभीतक सकल और विकलरूप दो प्रकारके रत्नत्रयका स्वरूप वर्णन किया गया है', अब कहते हैं, कि सकलरत्नत्रय मुनिका धर्म है, और विकलरत्नत्रय गृहस्थका धर्म है, परन्तु साक्षात् परम्पराको अपेक्षा ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं, बन्धके कारण नहीं हैं । इसलिये मोक्षाभिलाषी गृहस्थको सकल न सध सके, तो विकलरत्नत्रयका सेवन करना चाहिये । बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य । पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ॥ २१०।। अन्वयार्थी-[च ] और यह विकलरत्नत्रय [नित्यं] निरन्तर [ बद्धोद्यमेन ] उद्यम करने में तत्पर ऐसे मोक्षाभिलाषी गृहस्थद्वारा [बोधिलाभस्य] रत्नत्रयके लाभके [समयं] समयको [लब्ध्वा] प्राप्त करके तथा[ मुनीनां] मुनियोंके [पदम्] चरण [अवलम्ब्य] अवलम्बन करके [सपदि] शीघ्र ही [ परिपूर्णम् ] परिपूर्ण [ कर्तव्यं ] करने योग्य है। भावार्थ-विवेकी जीव गृहस्थाचारमें रहकरके भी सांसारिक भोग-विलासोंसे विरक्त तथा १-प्रथम तीस कारिकानोंमे दर्शन प्रकरण, फिर छह श्लोकोंमें ज्ञानाधिकार, एकसौ आठ प्रार्या छन्दों में देशचारित्र और पश्चात बारह प्रार्या छन्दोंमें सकलचारित्रका स्तवन है। इसप्रकार २०८ कारिकाओंमें रत्नत्रयका स्वरूप वणित है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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