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श्रीमद्जीका जन्म वि० सं० १९२४ कार्तिक शुक्ला पूर्णिमाको सौराष्ट्र मोरची राज्यान्तर्गत ववाणिया गांव में वणिक जातिके दशाश्रीमाली कुल में हुआ था। इनके पिताका नाम रवजीभाई पंचाणभाई महेता और माताका नाम देवाबाई था। इनके एक छोटा भाई और ४ बहिन थीं। घरमें इनके जन्मसे बड़ा उत्सव मनाया गया। श्रीमद्जीने प्रपने सम्बन्धमें जो बातें लिखी हैं वे बड़ी रोचक और समझने योग्य हैं । वे लिखते हैं
"छट पनकी छोटो समझ में, कौन जाने कहाँसे ये बड़ी बड़ी कल्पनाए पाया करती थीं। सुख की अभिलाषा भी कुछ कम न थी; प्रौर सुख में भी महल, बाग, बगोचे, स्त्रो प्रादिके मनोरथ किये थे, किन्तु मन में पाया करता था कि यह सब क्या है ? इस प्रकारके विचारोंका यह फल निकला कि न पुनर्जन्म है, और न पाप है, और न पूण्य है; सुखसे रहना और संसारका सेवन करना। बस, इसी में कृतकृत्यता है। इससे दूसरी झंझटोंमें न पड़कर धर्मकी वासना भी निकाल डाली। किसी भी धर्मके लिये थोड़ा बहुत भी मान अथवा श्रद्धाभाव न रहा। किन्तु थोड़ा समय बीतने के बाद इसमें से कुछ और ही होगया। आत्मामें बड़ा भारी परिवर्तन हुआ. कुछ दूसरा ही अनुभव हुप्रा; और यह अनभव ऐसा था. जो प्रायः शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता और न जडवादियोंकी कल्पनामें भी आसकता। वह अनुभव क्रमसे बढ़ा और बढ़कर एक 'तू ही तू ही' का जाप करता है।" एक दूसरे पत्रमें अपने जीवन को विस्तारपूर्वक लिखते हैं कि-"बाईस वर्ष की अल्पवय में मैंने प्रात्मा सम्बन्धी, मन सम्बन्धी, वचन सम्बन्धी, तन सम्बन्धी पौर धन सम्बन्धी अनेक रंग देखे हैं। नाना प्रकार की सृष्टिरचना, नाना प्रकार की सांसारिक लहरें और अनन्त दुःख के मूल कारणों का अनेक प्रकार से मुझे अनुभव हुअा है। तत्त्वज्ञानियों ने और समर्थ नास्तिकों ने जैसे जैसे विचार किए हैं उसी तरह के अनेक मैंने इसी अल्पवय में किए हैं। महान् चक्रवर्ती द्वारा किए गए तृष्णापूर्ण विचार और एक निस्पृही प्रात्मा द्वारा किये गए निस्पृहापूर्ण विचार भी मैंने किए हैं । अमरत्व की सिद्धि और क्षणिकत्व की सिद्धि पर मैंने खूब मनन किया है। अल्पवय में ही मैंने महान् विचार कर डाले हैं, और महान विचित्रता की प्राप्ति हुई है। यहां तो अपनी समुच्चय वयचर्या लिखता हूं:
जन्मसे सात वर्षकी बालवय नितान्त खेल कूदमें ही व्यतीत हुई थी। उस समय मेरी प्रात्मामें अनेक प्रकारकी विचित्र कल्पनाए' उत्पन्न हुमा करती थीं। खेल कूदमें भी विजयी होने और राजराजेश्वर जैसी ऊंची पदवी प्राप्त करनेकी मेरी परम अभिलाषा रहा करती थी। ..........
-स्मृति इतनी अधिक प्रबल थी कि वैसी स्मृति इस काल में, इस क्षेत्रमें बहुत ही थोड़ मनुष्यों की होगी। मैं पढ़ने में प्रमादी था, बात बनाने में होशियार खिलाड़ी और बहुत प्रानन्दी जीव था। जिस समय शिक्षक पाठ पढ़ाता था उसी समय पढ़कर मैं उसका भावार्थ सुना दिया करता था। बस, इतनेसे मुझे छट्टी मिल जाती थी। मुझमें प्रीति और वात्सल्य बहुत था। मैं सबसे मित्रता चाहता था, सबमें भ्रातृभाव हो तो सुख है, यह विश्वास मेरे मन में