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________________ ११ श्लोक ११-१२-१३-१४ ] पुरुषार्थसिवा पायः । निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य स्वतः ही कर्म अवस्थाको धारण करलेते हैं । विशेष इतना ही है कि जो मात्मा देव, गुरु, धर्मादिक प्रशस्त रागरूप परिणमन करता है, उसके शुभ कर्मका बंध होता है, और जो अन्य अप्रशस्त' राग द्वेष मोहरूप परिणमन करता है, उसे पापका बंध होता है। यहाँ यदि यह प्रश्न किया जावे कि जीवके महा सूक्ष्मरूप भावोंकी स्मृति जड़ पुद्गलको किस प्रकार होती है ? और यदि नहीं होती तो वे पुद्गलपरमाणु बिना ही कारण पुण्य-पापरूप परिणमन कैसे करते हैं ? तो उसका उत्तर यह है कि जैसे एक मंत्रसाधक पुरुष गुप्त स्थानमें बैठकर किसी मंत्रका जप करता है और उसके बिना ही किये केवल मंत्रकी शक्तिसे अन्य जनोंको पीड़ा उत्पन्न होती है अथवा सुख होता है । ठीक इस ही प्रकार अज्ञानी जीव अपने अन्तरंगमें उत्पन्न हुए विभावभावोंकी शक्तिसे उनके बिना ही कहे कोई पुद्गल पुण्यरूप और कोई पुद्गल पापरूप परिणमन करते हैं। सारांश इसके भावोंमें ऐसी कुछ विचित्र शक्ति है कि उसके निमित्तसे पुद्गल स्वयं ही अनेक अवस्थायें धारण करते हैं। परिणममानस्य चितश्चियात्मकः स्वयमपि स्वर्भावः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।। १३ ।। अन्वयाथों-[ हि ] निश्चय करके [ स्वकः ] अपने [ चिदात्मकः ] चेतनास्वरूप [ भावः ] रागादिक परिणामोंसे [ स्वयम् अपि ] आप ही [ परिणममानस्य ] परिणमते हुए [ तस्य=चितः अपि ] पूर्वोक्त आत्माके भी [पौद्गलिकं] पुद्गलसम्बन्धी [ कर्म ] ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म [निमित्तमात्रं ] कारणमात्र [ मवति ] होते हैं । . भावार्थ-जीवके रागादिक विभावभाव स्वयं नहीं होते हैं; क्योंकि जो आप ही से उत्पन्न होवें तो ज्ञान दर्शनके समान ये भी स्वभावभाव होजावें। और स्वभाव भाव हो जानेसे अविनाशी हो जावें । अतएव ये भाव औपाधिक हैं, क्योंकि अन्य निमित्तसे उत्पन्न होते हैं, और यह निमित्त ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मका जानना चाहिये । जैसे जैसे द्रव्यकर्म उदय अवस्थाको प्राप्त होते हैं, वैसे वैसे आत्मा विभावभावोंसे परिणमन करता है। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुद्गल में ऐसी कौनसी शक्ति है जो चैतन्य के नाथको भी विभावभावोंमें परिणमन कराती है ? इसका समाधान इस प्रकार होता है कि जैसे किसी पुरुषपर मंत्रपूर्वक रज (धूलि । डाली जावे तो वह आपको भूलकर नाना प्रकारकी विपरीत चेष्टायें करने लगता है । क्योंकि मंत्रके प्रभावसे उस रजमें ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो चतुर पुरुषको भी पागल बना देती है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने प्रदेशोंमें रागादिकोंके निमित्तसे बंधरूप हुए पुद्गलों के कारण प्रापको भूलकर नाना प्रकार विपरीत भावों में परिणमन करता है, सारांश इसके विभाव भावोंसे पुद्गल में ऐसी शक्ति हो जाती है, जो चैतन्यपुरुषको विपरीत चलाती है । एवमयं कर्मकृतविरसमाहितोऽपि युक्त इव ।। प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ॥१४॥ अन्वयाथों-[एवम्] इस प्रकार [अयं] यह प्रात्मा [कर्मकृतः] कर्मोंके किये हुए [भावः] रागादि या शरीरादि भावोंसे [असमाहितोऽपि] संयुक्त न होनेपर भी [बालिशानां] अज्ञानी जीवों को १-निर । २-खबर ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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