SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् । [ जीव परिणमन [ युक्तः इव ] संयुक्त सरीखा [ प्रतिभाति ] प्रतिभासित होता है, और [सः प्रतिभासः] वह प्रतिभास ही [खलु] निश्चय करके भिवबीजम्] संसारका बीजभूत है। भावार्थ-पहले कहा गया है कि रागादिक भाव पुद्गलकर्मको कारणभूत हैं और पुद्गलकर्म रागादिक भावोंको कारणभूत है। इससे यह आत्मा निज स्वभावोंकी अपेक्षा नाना प्रकारके कर्मजनित भावोंसे पृथक् ही चैतन्यमात्र वस्तु है। जैसे लाल रंगके निमित्तसे स्फटिकमणि लालरूप दिखलाई देती है, यथार्थमें लालस्वरूप नहीं है। रक्तत्व तो स्फटिकसे अलिप्त ऊपर ही ऊपर को झनकमात्र है। और स्फटिक स्वच्छ श्वेतवर्णपनेसे शोभायमान है। इस बातको परीक्षक जौहरी अच्छी तरहसे जानता है। परन्तु जो रत्न-परीक्षाकी कलासे अनभिज्ञ है, वह स्फटिकको रक्तमणि व रक्त स्वरूप ही देखता है। इसी प्रकार कर्मके निमित्तसे आत्मा रागादिकरूप परिणमन करता है, परन्तु यथार्थमें रागादिक आत्माके निज भाव नहीं हैं। प्रात्मा अपने स्वच्छतारूप चैतन्यगुणसहित विराजमान है। रागादिकपन तो स्वरूपसे विभिन्न ऊपर ही ऊपरकी झलकमात्र है। इस बातको स्वरूपके परीक्षक सच्चे ज्ञानी भलीभाँति जानते हैं, परन्तु अज्ञानी अपरीक्षकोंको प्रात्मा राबादिक रूप ही प्रतिभासित होता है। यहाँपर यदि कोई प्रश्न करे कि पहिले जो रागादिक भाव जीवकृत कहे गये थे, उन्हें अब कर्मकृत क्यों कहते हो? तो इसका समाधान यह है कि रागादिक भाव चेतनारूप हैं, इसलिये इनका कर्ता जीव ही है, परन्तु श्रद्धान करानेके लिए इस स्थलपर मूलभूत जीवके शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा रागादिकभाव कर्मके निमित्तसे होते हैं, अतएव कर्मकृत हैं। जैसे भूतगृहीत मनुष्य भूतके निमित्तसे नाना प्रकारकी जो विपरीत चेष्टायें करता है, उनका कर्ता यदि शोधा जावे तो वह मनुष्य ही निकलेगा, परन्तु वे विपरीत चेष्टायें उस मनुष्यके निजभाव नहीं हैं, भूतकृत हैं । इसी प्रकार यह जीव कर्मके निमित्तसे जो नाना प्रकार विपरीत भावरूप परिणमन करता है उन (भावों) का कर्ता यद्यपि जीव ही है परन्तु ये भाव जीवके निजस्वभाव न होने से कर्मकृत कहे जाते हैं, अथवा कर्मकृत नाना प्रकारकी पर्याय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, नोकर्म, देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यच, शरीर, संहनन, संस्थानादिक भेद व पुत्र मित्रादि धन धान्यादि भेदोंसे शुद्धात्मा प्रत्यक्ष ही भिन्न है । इसके अतिरिक्त और भी सुनिये एक मनुष्य अज्ञानी गुरुके उपदेशसे छोटेसे भोहरेमें बैठकर भैसेका ध्यान करने लगा, और अपने को भैसा मानकर दीर्घ शरीरके चितवनमें आकाशपर्यंत सींगोंवाला मानने लगा, तब इस चिन्तामें पड़ा कि भोहरेमेंसे मेरा इतना बड़ा शरीर किस प्रकार निकल सकेगा ? ठीक यही दशा जीवकी मोहके निमित्तसे हो रही है, जो आपको वर्णादि स्वरूप मानके देवादिक पर्यायोंमें आपा मानता है। भैसा माननेवाला यदि अपनेको भैंसा न माने, तो आखिर मनुष्य बना ही है, इसीप्रकार देवादिक पर्यायोंको भी जीव यदि आपा न माने तो अमूर्तीक शुद्धात्मा आप बना ही है। सारांश प्रात्मा कर्मजनित रागादिक अथवा वर्णादिक भावोंसे सदाकाल भिन्न है, तदुक्तम्-"वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुसः"१ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मावविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धघ पायोऽयम् ॥१५॥ १--इस पुरुषके अर्थात् प्रात्माके वर्णादि रागादि अथवा मोहादि सर्व ही भाव (पात्मासे) भिन्न हैं।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy