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________________ श्लोक १५-१६-१७-१८ ] पुरुषार्थसिद्धच पायः। ___ अन्वयार्थों-[ विपरीताभिनिवेशं ] विपरीत श्रद्धानको [ निरस्य ] नष्टकर [ निजतत्त्वम् ] निज स्वरूपको [ सम्यक् ] यथावत् [ व्यवस्य ] जानकर [ यत् ] जो [ तस्मात् ] उस अपने स्वरूपसे [अविचलनं ] च्युत न होना [ स एव ] वह ही [ अयम् ] यह [ पुरुषार्थसिद्धय पाथः ] पुरुषार्थ की सिद्धिका उपाय है। भावार्थ-पूर्वकथित कर्मजनित पर्यायों को प्रात्मा मान लेना, इसको ही विपरीत श्रद्धान कहते हैं ? इस विपरीत श्रद्धानके समूल नष्ट करनेको सम्यग्दर्शन, कर्मजनित पर्यायोंसे भिन्न भिन्न शुद्धचैतन्यस्वरूपके यथावत् जाननेको सम्यग्ज्ञान और कर्मजनित प-योंसे उदासीन हो निजस्वरूपमें स्थिरीभूत होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं । तथा इन तीनोंका अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका समुदाय ही कार्य सिद्ध होनेका उपाय है, अन्य कोई उपाय नहीं है । अनुसरतां पदमेतत् करम्विताचारनित्यनिरभिमुखा। एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ।। १६ ।। __ अन्वयाथों-[ एतत्पदम् अनुसरतां ] इस रत्नत्रयरूप पदवीको अनुसरण करनेवाले अर्थात् प्राप्त हुए [ मुनीनाम् ] महा मुनियोंकी [ वृत्तिः] 'वृत्ति [करम्विताचारनित्यनिरभिमुखा ] पापक्रिया सम्मिश्रित प्राचारोंसे सर्वदा पराङ मुख, तथा [ एकान्तविरतिरूपा ] परद्रव्योंसे सर्वदा उदासीनरूप और [ अलौकिकी ] लोकसे विलक्षण प्रकारकी [ भवति ] होती है। . ____भावार्थ--महामुनियोंकी प्रवृत्ति जगत्के लोगोंसे सर्वथा निराली होती है । गृहस्थीका आचरण पापक्रियासे मिला हुआ होता है, और ऐसे आचरणों से महामुनि सर्वथा दूर रहते हैं। वह केवल अपने आत्मोक चैतन्य स्वभावका ही अनुभव करते हैं। ' बहुशः समस्तविरति प्रशितां यो न जातु गृह्णाति । तस्यैकदेशविरतिः कथनीयामेन बोल।। १०. ... अन्वयार्थी-[ यः ] जो जीव [ बहुशः ] बारम्बार [ प्रदर्शिता ] दिखलाई हुई [ समस्तविरतिं ] सकल पापरहित मुनिवृत्तिको [ जातु ] कदाचित् [ न गृह्णाति ] ग्रहण न करे तो [ तस्य ] उसे [ एकदेशविरतिः ] एकदेश पापक्रियारहित गृहस्थाचारको [ मन बीजेन ] इस हेतुसे [ कथनोया ] समझावे अर्थात् कथन करे। ___ भावार्थ-जो जीव उपदेश सुननेका अभिलाषी हो, उसे पहिले मुनिधर्मका उपदेश देना चाहिये और यदि वह मुनिधर्म ग्रहण करने योग्य सामर्थ्य न रखता हो, तो तत्पश्चात् श्रावक-धर्मका उपदेश देवे, क्योंकि यो यतिधर्ममकथवन्नुपदिशति गहल्यधर्ममम्पमहिए। तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित हिस्वानम् ॥ १॥ १-अन्तरंग परिणाम-वर्तन
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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