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________________ १४ श्रीमद् राजननशास्त्रमालायाम् । [ धर्मोपदेशकी रीति अन्वयार्थी-[ यः ] जो [अल्बमतिः ] तुच्छ बुद्धि उपदेशक [ यतिधर्मम् ] मुनिधर्मको [प्रकथयन् ] नहीं कह करके [ गृहस्थधर्मम् ] श्रावक-धर्मका [ उपदिशति ] उपदेश देता है, [ तस्य ] उस उपदेशको [ भगवत्प्रवचने ] भगवतके सिद्धान्तमें [ निग्रहस्थानम् ] दंड देनेका स्थान [प्रवशितं ] दिखलाया है। __ भावार्थ जो उपदेशदाता पहिले मुनि-धर्मको न सुनाकर श्रावक-धर्मका व्याख्यान देता है, उसको जिनमतमें प्रायश्चित्तरूप दंड देने योग्य बतलाया है। क्योंकि प्रक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदमपि शिष्यः । अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ १६ ॥ अन्वयार्थी - [ यतः ] जिस कारणसे [ तेन ] उस [ दुर्मतिना ] दुर्बुद्धिके [ प्रक्रमकथनेन ] क्रमभंग कथनरूप उपदेश करनेसे [, प्रतिसम्] अत्यन्त दूरतक [ प्रोत्सहमानोऽपि ] उत्साहवाला हुआ भी [ शिष्यः ] शिष्य [ अपदे अपि ]. तुच्छ स्थानमें ही [ संप्रतृप्त ] संतुष्ट होकर [ प्रतारितः ] प्रतारित या ठगाया हुआ [ भवति ] होता है। भावार्थ-किसी शिष्यको धर्मका इतना, उत्साह था कि यदि उसे मुनि-धर्मका उपदेश मिलता तो मुनिपदवी अंगीकार कर लेता। परन्तु उपदेशदाता उसे पहिले ही श्रावक-धर्मका उपदेश देने लगा, तो ऐसे समयमें वह श्रावक-धर्मही ग्रहण करनेमें संतुष्ट होगया। सारांश पहिले मुनि-धर्मका उपदेश करना चाहिए। श्रावकधर्मव्याख्यान = = एवं सम्यग्दर्शनबोषचरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यों यथाशक्ति ।। २० ॥ अन्बयाथों-[ एवं ] इस प्रकार' [ तस्यापि ] उस गृहस्थको भी [ यथाशक्ति ] अपनी शक्तिके अनुसार [ सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मकः ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन भेदरूप [ मोक्षमार्गः ] मुक्तिका मार्ग [ नित्यम् ] सर्वदा [ निषेव्यः ] सेवन करने योग्य [ भवति ] होता है। भावार्थ-मुनि तो मोक्षमार्गका सेवन पूर्णरूपसे करते ही हैं। किन्तु गृहस्थको भो यथाशक्ति ( थोड़ा बहुत ) सेवन करना चाहिये। तत्रादौ सम्यक समुपापरलीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् मत्येव यतो भवति चरित्रं च ॥ २१॥ . १-जो आगे कहेंगे।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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